Book Title: Syadvada Manjari
Author(s): Jagdishchandra Jain
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 345
________________ स्याद्वादमञ्जरी (परिशिष्ट ) २९५ व्यवहारकाल मनुष्य क्षेत्रमें ही होता है। निश्चयकाल द्रव्य रूप होनेसे नित्य है, और व्यवहारकाल क्षण-क्षणमें नष्ट होनेके कारण पर्यायरूप होनेसे अनित्य कहा जाता है । कालद्रव्य अणुरूप है। पुद्गल द्रव्यकी तरह कालद्रव्यके स्कंध नहीं होते । जितने लोकाकाशके प्रदेश होते हैं, उतने ही कालाणु होते है। ये एक-एक कालाणु गति रहित होनेसे लोकाकाशके एक-एक प्रदेशके ऊपर रत्नोंकी राशिकी तरह अवस्थित हैं। कालद्रव्यके अणु होनेसे कालमें एक ही प्रदेश रहता है, इसलिये काल द्रव्यमें तिर्यक्-प्रचय न होनेसे कालको पांच अस्तिकायोंमें नहीं गिना' । आकाशके एक स्थानमें मन्द गतिसे चलनेवाला परमाणु लोकाकाशके एक प्रदेशसे दूसरे प्रदेश तक जितने कालमें पहुँचता है, उसे समय कहते हैं । यह समय बहुत सूक्ष्म होता है, और प्रतिक्षण उत्पन्न और नष्ट होनेके कारण इसे पर्याय कहते हैं। एक-एक कालाणुमें अनंत समय होते हैं। ये कालाणुके अनंत समय व्यवहार नयको अपेक्षा समझने चाहिये, वास्तवमें कालद्रव्य (निश्चयकाल ) लोकाकाशके बराबर असंख्य प्रदेशोंका धारक' है, उसे आकाश आदिकी तरह एक और पुद्गलकी तरह अनंत नहीं मान सकते । यह मत दिगम्बर ग्रन्थोंमें और हेमचन्द्रके योगशास्त्रमें मिलता है। '१. प्रो. ए. चक्रवर्तीने काल द्रव्यको इस मान्यताको आधुनिक वैज्ञानिक सिद्धान्तसे तुलना की है The author differentiates between relative time and absolute time. The distinction is quite identical with Newtonian distinction between relative and absolute time........The author not only admits the reality of time but also recogộises its potency. In this respect one is reminded of the great French philosopher Bergson. Bergson has revealed to the world that time is a potent factor in the evolution of Cosmos............It is also worth noticing that modern realist led by the mathematical Philosophers admits the doctrine that time is real and is made up of instants or moments Panchastikayasara पृ० १०५, १०९, २२ । २. श्वेताम्बर सम्प्रदायमें कालाणुके असंख्य प्रदेश नहीं माने गये है। कालाणुओंके असंख्यात प्रदेशोंका खंडन युक्तिप्रबोध आदिमें किया गया है यत्तु कालाणूनामसंख्यातत्वं मतान्तरीयैः प्रपन्नं तदनुपपन्नं । द्रव्यत्वव्याहतेः। यद् यद् द्रव्यं तदेकमनन्तं वा। यदुक्तमुत्तराध्ययनसूत्रे 'धम्मो अहम्मो आगासं द्रव्वं एक्केकमाहियं । अणंताणि य दव्वाणि कालो पोग्गलजंतुणो ।' प्रत्याकाशप्रदेशं तन्मते कालाणस्वीकारे शेषद्रव्याणामिवैतदीयस्तिर्यप्रचयोऽपि स्यात् । स चानिष्टः। यतो गोम्मटसारवृत्ती सूत्रे च दव्वच्छक्कमकालं पंचत्थिकायसण्णिय होई। काले पदेसए चउ जम्मा णस्थित्ति णिद्दिढें ॥ ६०६ ॥ कालद्रव्ये प्रदेशप्रचयो नास्तीत्यर्थः। न च अप्रदेशत्वान्न तिर्यप्रचय इति वाच्यं । पुद्गलस्यापि तदभावप्रसंगात् । प्रदेशमात्रत्वं अप्रदेशमिति तल्लक्षणस्य तत्रापि विद्यमानत्वात् । अथ पुद्गलस्यास्ति अप्रदेशत्वं द्रव्येण परं पर्यायेण तु अनेकप्रदेशत्वमप्यस्ति । कालस्य तु नैतदिति चेत् । न । अनेनापि प्रसंगापराकरणात् । न हि निर्द्धमत्वेन पर्वतेऽग्निमत्त्वे प्रसज्यमाने यत्किचिद्धर्माभावे तदभावः प्रतीयते इति स्थितं तिर्यकप्रचयप्रसंगेन । न चैतत् समयद्रव्याणामानन्त्येऽपि तुल्यं । तदानन्त्यस्य अतीतानागतापेक्षया स्वीकारात् । यदुक्तमुत्तराध्ययने'एमेव संतई पप्प' इति । तत्तौ वादिवेतालापरनामधेयाः श्रीशांतिसूरयोऽप्याहुः-'कालस्यानन्त्यमतीतानागतापेक्षया' इति । श्रीभगवतीवृत्ती श्रीमभयदेवसूरयोऽपि-एको धर्मास्तिकायप्रदेशोऽद्धासमयैः स्पृष्टश्चेन्नियमादनन्तैः अनादित्वादाद्धसमयानाम्' इति । मेघविजयगणि-युक्तिप्रबोध ग्रा. २३ पृ. १८९ । ३. मेघधविजयगणि योगशास्त्रमें वर्णन किये हुए काल द्रव्यके सिद्धांतसे श्वेताम्बर मान्यताका समन्वय करते हैं

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