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स्थाहादमञ्जरी ( परिशिष्ट) आदि धर्मोका प्रतिपादन करते हैं। और तो क्या परमार्थ सत्यसे बुद्ध और उसकी देशना भी मृगतृष्णाके समान है। इसलिये धर्मोक निस्वभाव होनेपर भी प्राणियों की प्रजाप्ति के लिये ही बुद्धने इनका उपदेश किया है।
शंका-गून्यवादियोंके मतमे सम्पूर्ण भाव शून्य है, इसलिये जून्यताको भी शून्य मानना चाहिये । समाधान-वास्तवमें सम्पूर्ण पदार्थोके निस्स्वभावत्वके साक्षात्कार करनेके लिये ही वुद्धने शून्यताका उपदेश किया है । शून्यता भाव, अभाव, आदि चार कोटियोंसे रहित है, इसलिये शून्यताको अभाव ( शून्य ) रूप, नहीं कह सकते। हमारे मतमें भववासनाका नाश करनेके लिये ही शून्यताका उपदेश है, इसलिये शून्यतामें भी शून्यता बुद्धि रखनेसे नैरात्म्यवादका साक्षात् अनुभव नहीं हो सकता । अतएव हमें भाव-अभिनिवेशको तरह शून्यतामें भी अभिनिवेश नहीं रखना चाहिये, अन्यथा भाव-अभिनिवेश और शून्यता-अभिनिवेश दोनोंमें कोई अन्तर न रहेगा। जिस समय भाव, अभाव, शुद्धि, अशुद्धि रूप प्रपंचवृत्ति नहीं रहती उस समय ईंधन रहित अग्निकी तरह सत् और असत्के आलम्बनसे रहित बुद्धि सम्पूर्ण विकल्पोंके उपशम होनेसे शांत हो जाती है।
माध्यमिकवादके .प्रधान आचार्य नागार्जुन ( १०० ई.) माने जाते हैं। नागार्जुनने शून्यवादके स्थापन करने के लिये चार सौ कारिकाओंमें माध्यमिककारिका नामक ग्रंथ लिखा है। इस ग्रंयके ऊपर नागार्जुनने अकुतोभया नामकी टीका लिखी है। इसका अनुवाद तिब्बती भापा में मिलता है। माध्यमिककारिकापर बुद्धपालित और भावविवेकने भी टोकायें लिखी है, जो तिब्बती भाषामें हैं। वुद्धपालित शून्यवादके अन्तर्गत प्रासंगिक सम्प्रदायके जन्मदाता कहे जाते हैं । बुद्धपालित शून्यवादके सिद्धांतोंको स्थापित करके अन्य मतवालोंका खण्डनकर नागार्जुनके सिद्धांतोंकी रक्षा करना चाहते थे। भावविवेक शन्यवादके दूसरे सम्प्रदाय स्वातंत्रिक मतके प्रतिष्ठाता है। ये आचार्य स्वतंत्र तर्कोसे शून्यवादकी सिद्धि करते थे। माध्यमिककारिकाके ऊपर चन्द्रकीतिने ( ५५० ई. ) प्रसन्नपदा नामको संस्कृत टीका लिखी है। यह टीका उपलब्ध है। नागार्जुनने सुहल्लेख, युक्तिषष्टिका आदि अनेक ग्रंथ लिखे हैं। शून्यवादके दूसरे महान् आचार्य आर्यदेव हैं। ये नागार्जुनके शिष्य थे। इन्होंने चतुःशतक, चित्तविशुद्धिप्रकरण आदि अनेक ग्रंथ लिखे हैं।
१. अशुच्यादिपु शुच्यादिप्रसिद्धिरिव सा मृपा ॥
लोकावतारणार्थं च भावा नाथेन देशिताः।
तत्त्वतः क्षणिका नैते संवृत्या चेद विरुष्यते ॥ बोधिचर्यावतार ९-६, ७ । २. शून्यं इति न वक्तव्यं अशून्यं इति वा भवेत् । उभयं नोभयं चेति प्रज्ञप्त्यर्थं तु कथ्यते ।।
माध्यमिककारिका. २२-११ । ३. शून्यवादियोंके ग्रन्थोंमें शून्यताका अन्तद्वयरहितत्व, मध्यमप्रतिपदा, परस्परअपेक्षिता, धर्मधातु आदि
शब्दोंसे उल्लेख किया गया है। रशियन विद्वान प्रोफेसर शेर्बाट्सकी 'शून्यता' का अनुवाद 'Relativity'-अपेक्षिता शब्दसे करते हैं। उक्त विद्वान् लेखकने यूरोपके हेगेल ( Hege! ), ब्रेडले ( Bradley ) आदि महान् विचारकोंके सिद्धान्तोंके साथ 'शून्यवाद' की तुलना की है, और सिद्ध किया है कि इस सिद्धान्तको Nihilism ( सर्वथा अभाव रूप ) नहीं कहा जा सकता। देखिये लेखककी Conception of Buddhist Nirvana, पृ. ४९ से आगे। सर्वसंकल्पहानाय शून्यतामृतदेशना । यस्य तस्यामपि ग्राह्यस्त्वयासाववसादितः।। बोधिचर्यावतारपंजिका, पृ. ३५९ ।
४. सवत