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श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां ( २ ) आत्मा पांच स्कंधोंसे भिन्न पदार्थ है :
बौद्धोंको दूसरो नान्यता है कि आत्मा पंचस्कंघोंसे पृथक् पदार्थ है। यह मान्यता नैयायिक आदि दार्शनिकों जैसी ही है। यहां पर आत्मा ( पुद्गल ) को पांच स्कंध रूप बोझेको ढोनेवाला कहा है।'
( ३ ) आत्मा पांच स्कंधोंसे न भिन्न है, न अभिन्न :
बौद्धोंके आत्मा संबंधी तीसरे सिद्धान्तको माननेवाले पुद्गलवादी वात्सीपुत्रीय वौद्ध हैं। ये लोग आत्माके अस्तिन्त्रको मानते हैं, परन्तु इनके अनुसार जिस तरह अग्निको न जलती हुई लकड़ीसे भिन्न कह सकते है, और न अभिन्न, परन्तु फिर भी अग्नि भिन्न वस्तु है; उसी तरह यद्यपि पुद्गल भिन्न पदार्थ है, परन्तु यह पुद्गल न पांच कंघोंसे सर्वथा भिन्न कहा जा सकता है और न अभिन्न । यह न नित्य है, और न अनित्य । यह पुद्गल अपने अच्छे, वुरे कर्मो का कर्ता और भोक्ता है, इसलिये इसके अस्तित्वका निपेध नहीं कर सकते ।
(४) आत्मा अव्याकृत है:
इस मान्यताके अनुसार आत्मा क्या है, यह नहीं कहा जा सकता। (क) जिस समय अनुराधने बुद्धसे प्रश्न किया कि क्या जीव रूम, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञानसे वाह्य है तो बुद्धने उत्तर दिया कि तुम इसी लोकमें जीव दिखाने में समर्थ नहीं, फिर परलोककी बात तो दूर रही; इसलिये मै 'दु.ख, और दुखका निरोध' इन दो तत्वोंका ही उपदेश करता है। जिस प्रकार किसी तीरसे आहत मनुप्यका 'यह तीर किसने मारा है ? कौनसे समयमें मारा है ? कौनसी दिशासे आया है ? आदि प्रश्न करना वृथा है, क्योंकि उस समय मनुष्यको इन सब प्रश्नोत्तरोंमें न पड़कर घावको रक्षा की ही वात सोचनी चाहिये; उसी प्रकार आत्मा क्या है ? परलोक क्या है ? मरनेके वाद तथागत पैदा होता है या नहीं ? आदि प्रश्न अव्याकृत है। ( ख ) वहुतसी जगह आत्माके विपयमें प्रश्न पूछे जानेपर वुद्ध मौन धारण करते हैं । इस मौनका कारण है कि यदि वे कहें कि आत्मा है तो लोग शाश्वतवादी हो जाते हैं और यदि कहा जाये कि आत्मा नहीं है, तो लोग उच्छेदवादी हो जाते हैं। अतएव एक ओर शाश्वतवाद और दूसरी ओर उच्छेदवादका निराकरण करनेके लिये मौन रहना ही ठीक समझा गया। (ग) अनेक वौद्ध
तथा-दुखमेव हि न कोचि दुक्खितो।
कारको न किरियाव विज्जति । अत्यि निवृत्ति न निव्वुत्तो पृमा ।
मग्गमत्वि गमको न विज्जति ॥ विसुद्धिमग्ग, अध्याय १६ । तथा देखिये कयावत्यु १-२; अभिधर्मकोश ३-१८ टीका; दोघनिकाय, पायासिसुत्त; संयुत्तनिकाय
५-१०-६ । १. "भारं वो भिक्षवो देशयिष्यामि भारादानं मारनिक्षेपं भारहारं च । तत्र भारः पंचोपादानस्कंधाः,
भारादानं तृप्तिः, भारनिक्षेपो मोक्षः, भारहारः पुद्गलाः..." तत्त्वसंग्रहपंजिका, आत्मवादपरीक्षा ३४६%3B
तथा धम्मपद, अत्तवग्गो। २. संयुत्तनिकाय, अनुराधसुत्त; तथा-'स्कंधाः सत्त्वा एव ततो भिन्ना वा' इति प्रश्नः सत्त्वस्य विषये,
सत्त्वश्च नास्त्येव किमपि वस्तु । तेनायं प्रश्नः 'वन्ध्यापुत्रः शुक्ल कृष्णो वा' इतिवत् स्थापनीय ( अनु
तरितं ) एव । अभिधर्मकोश ५-२२ टिप्पणी; बुद्धचर्या पृ. १८६ से आगे। ३. किनु खो गोतम अत्थत्ताति ।
एवं वुत्ते भगवा तुण्ही अहोसि ॥ कि पन भो गोतम नत्थत्ताति ॥
दुतियंपि खो भगवा तुण्ही अहोसि । संयुत्तनिकाय ४-१००। ४. अस्तीति शाश्वतग्राहो नास्तीत्युच्छेददर्शनं । तस्मादस्तित्वनास्तिवे नाश्रीयेत विचक्षणः॥
माध्यमिककारिका १८-१०।