Book Title: Syadvada Manjari
Author(s): Jagdishchandra Jain
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 365
________________ स्याद्वादमञ्जरी (परिशिष्ट) ३१५ है। महायान सम्प्रदायके प्ररूपण करनेवाले आचार्योंका नाम लेते समय अश्वघोषका स्थान बहुत महत्त्वका है। अश्वघोष (८० ई०) तथतावाद नामके एक नूतन सिद्धांतके जन्मदाता थे। अश्वघोषने लंकावतारसूत्रके आवारसे अपने महायान मार्गके तत्त्वदर्शनको रचना की है। अश्वघोष अपने जीवनके प्रारंभमें बड़े भारी विद्वान् थे। अश्वघोषका सिद्धांत केवल शून्यविज्ञानवादका सिद्धांत नहीं है, बल्कि उसमें उपनिषदोंके शाश्वतवादकी छाया स्पष्ट मालूम देती है। अश्वघोषने श्रद्धोत्पादशास्त्र, बुद्धचरित, सौंदरानन्द, सूत्रालंकार, वज्रसूचि आदि अनेक बौद्ध शास्त्रोंकी रचना की है। बौद्धोंका अनात्मवाद (१) उपनिपद्कारोंका मत है कि आत्मा नित्य, सुख और आनन्द रूप है, और यह दृश्यमान जगत इस आत्माका ही रूप है। पति पत्नीको और पत्नी पतिको एक दूसरेके सुखके लिये प्यार नहीं करते, परन्तु प्राणीमात्रकी प्रवृत्ति अपनी-अपनी आत्माके सुखके लिये होती है, अतएव आत्मा सर्वप्रिय है। इसलिये आत्माका दर्शन, श्रवण, मनन और निदिध्यासन करना चाहिये; क्योंकि आत्माके दर्शन, श्रवण, आदिसे समस्त ब्रह्माण्डका ज्ञान होता है। (२) नैयायिक-वैशेषिकोंकी मान्यता है कि आत्मा नित्य और सर्वव्यापी है। इच्छा, द्वेप, प्रयत्न, सुख, दुख, और ज्ञान ये आत्माके जानने के लिंग है । आत्मा शरीरसे भिन्न होकर कर्मोका कर्ता और भोक्ता है । आत्माको चेतनाके संबंधसे चेतन कहा जाता है। ( ३ ) मीमांसकोंके मतमें आत्मा चैतन्यरूप है । आत्माके सुख, दुखके सम्बन्धसे आत्मामें परिवर्तन होना कहा जाता है, वास्तवमें नित्य आत्मामें परिवर्तन नहीं होता। ( ४ ) सांख्य लोगोंका मत है कि आत्मा नित्य, व्यापक निर्गुण और स्वयं चैतन्यरूप है । बुद्धि और चैतन्य परस्पर भिन्न हैं । अतएव बुद्धिके सम्बन्धसे आत्माको चेतन नहीं कह सकते । आत्मा निष्क्रिय है, इसलिये इसे कर्ता और भोक्ता भी नहीं कह सकते । प्रकृति ही करने और भोगनेवाली है। प्रकृति और आत्माका सम्बन्ध होनेसे संसारका आरम्भ होता है । (५) जैन लोगोंका कथन है कि यदि आत्माको सर्वव्यापी और सर्वथा अमूर्त मानकर निरवयव माना जाय तो निरंश परमाणुकी तरह आत्माका मूर्त शरीरसे सम्बन्ध तथा आत्मामें ध्यान, ध्येय आदिका व्यवहार और आत्माको मोक्षकी प्राप्ति नहीं हो सकती, इसलिये आत्मा व्यवहार नयकी अपेक्षा संकोच और विस्तारवाला होकर सावयव है, तथा निश्चय नयसे अमूर्त होनेके कारण लोकव्यापी है। बौद्ध लोग आत्मवादियोंकी उक्त सम्पूर्ण मान्यताओंका विरोध करते हैं। उन लोगोंका कथन है कि आत्माको नित्य स्वतन्त्र द्रव्य मानने दर्शनशास्त्र ( Metaphysical ) और नीतिशास्त्र ( Ethical ) सम्बन्धी दोनों तरहकी कठिनाइयां आती है। यदि आत्माको सर्वथा नित्य स्वीकार किया जाय तो उसमें बन्ध और मोक्षकी व्यवस्था नहीं बन सकती है । "यदि आत्माको कूटस्थ नित्य मानें तो वह अनन्त काल तक एक-रस रहनेवाला होगा। फिर सदाके लिये रहनेवाले आत्मापर अनुभवोंका ठप्पा कैसे पड़ सकता है ? यदि पड़ सके तो ठप्पा पड़ते ही उसका रूप परिवर्तन हो जायगा। आत्मा कोई जड़ पदार्थ नहीं है जिससे सिर्फ बाह्य अवयवपर ही लांछन हो। वह तो चेतनमय है, इसलिये ऐसी अवस्थामें इन्द्रियजनित ज्ञान उसमें सर्वत्र प्रविष्ट हो जायगा। वह राग, द्वेष, मोह--इन नाना प्रकारोंमेंसे किसी एक रूपवाला हो जायगा। १. स होवाच न वा अरे पत्युः कामाय पतिः प्रियो भवति आत्मनस्तु कामाय पति प्रियो भवति । न वा अरे जायाय कामाय जाया प्रिया भवति आत्मनस्तु कामाय जाया प्रिया भवति ।""""न वा अरे सर्वस्य कामाय सर्व प्रियं भवति । आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यो मैत्रेय्यात्मनो वा दर्शनेन श्रवणेन मत्या विज्ञानेनेदं सर्व विदितम् 1 बृहदारण्यक उ. २-४-५ आत्मवादियोंके पूर्वपक्ष और उसके खंडनके लिये देखिये बोधिचर्यावतार परिच्छेद ९, पृ. ४५२ से आगे तत्त्वसंग्रह, पृ. ७९-१३० आत्मपरीक्षा नामका प्रकरण । २.

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