Book Title: Syadvada Manjari
Author(s): Jagdishchandra Jain
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 343
________________ स्याद्वादमञ्जरी (परिशिष्ट) २९३ प्राणियोंकी हिंसा होती है, इसलिये इसे आधाकर्म कहते हैं। यह सामान्य नियम है । परन्तु यदि कोई मुनि रोग आदिके कारण अपने संयमका निर्वाह करनेमें असमर्थ हो गया है तो आपत्कालमें उस मुनिको शास्त्रमें उद्दिष्ट भोजन ग्रहण करनेकी भी आज्ञा दी गई है। यदि आधाकर्मको सर्वथा अधोगतिका कारण मानकर उससे एकान्त रूपसे कर्मबंधे माना जाय, तो मुनिको भोजन न मिलनेके कारण मुनिका आर्तध्यानके द्वारा प्राणान्त होना संभव है। उदाहरणके लिये, जिस मुनिकी आंख दुख रही है, वह मुनि पृथ्वीको देखकर न चल सकनेके कारण त्रस जीवोंकी हिंसा नहीं बचा सकता। वैसे ही यदि रोगादिके कारण साधु उद्दिष्ट भोजनका त्याग नहीं कर सकता तो वह दोषका भागी नहीं है । अदि आपत्कालमें भी इस प्रकारका अपवाद नियय न बनाया जाय तो क्लेशित परिणामोंसे आर्तध्यानसे मरकर साधुको दुर्गतिमें जाना पड़े, इससे और भी अधिक पापका बंध हो। अतएव रोगादिके कारण असामान्य परिस्थितिके उत्पन्न होने पर साधुको आधाकर्म-उद्दिष्ट भोजन ग्रहण करनेकी आज्ञा शास्त्रों में दी गई है। इसी प्रकार सामान्यतः शास्त्रोंमें मुनिके लिये नवकोटिसे विशुद्ध आहार ग्रहण करनेकी आज्ञा है, लेकिन यदि मुनि किसी आपदासे ग्रस्त हो जाय तो वह केवल पांच कोटिसे शुद्ध आहार ग्रहण करके अपना जीवन यापन कर सकता है । श्लो. २३ पृ०. २०४ पं० ४ : द्रव्यषट्कं जैन दर्शनकारोंने जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये छह द्रव्यं स्वीकार किये हैं। इन छह द्रव्योंमें काल द्रव्यको छोड़कर बाकीके पांच द्रव्योंको पंच अस्तिकायके नामसे कहा जाता है । कुछ श्वेताम्बर विद्वान् काल द्रव्यको द्रव्योंमें नहीं गिनते। इसलिये उनके मतमें पांच अस्तिकाय ही पांच द्रव्य माने गये हैं। काल शब्द बहुत प्राचीन है। वैदिक विद्वान् अघमर्षण ऋग्वेदमें काल शब्दको 'संवत्सर' के अर्थमें प्रयुक्त करते हैं । यहाँ कालको सृष्टिका संहार करनेवाला कहा गया है । अथर्ववेदमें कालको नित्य पदार्थ माना है, और इस नित्य पदार्थसे प्रत्येक वस्तुको उत्पत्ति स्वीकार की गई है। बृहदारण्यक, मैत्रायण आदि उपनिषदोंमें भी काल शब्दको विविध अर्थों में प्रयुक्त किया है। महाभारतमें कालका विस्तृत वर्णन पाया जाता है। यहां काल शब्दको दिष्ट, दैव, हठ, भव्य भवितव्य, विहित, भागधेय आदि अनेक अर्थों में प्रयुक्त किया गया है। वैदिक और बौद्ध दर्शनोंमें काल संबंधी दो प्रकारकी मान्यतायें दृष्टिगोचर होती हैं : (१) न्याय वैशेषिकोंका मत है कि काल एक सर्वव्यापी अखंड द्रव्य है। यह केवल उपाधिसे भिन्न-भिन्न क्षण, महर्त आदिके रूप में प्रतीत होता है । पूर्वमीमांसकोंने भो कालको व्यापक और नित्य स्वीकार किया है। इनके मतमें जिस १ अतएवाधोगतिनिमित्तं कर्माधःकर्मेत्यन्वर्थोऽपि घटते । तदेतदधःकर्म गृहस्थाश्रितो निकृष्टव्यापारः । अथवा __ सूनाभिरङ्गिहिंसनं यत्रोत्पाद्यमाने भक्तादौ तदधःकर्मेत्युच्यते । आशाधर-अनगारधर्मामृत ५-३ वृत्ति । २ आहाकम्माणि भुंजंति अण्णमण्णे सकम्मुणा । उवलित्तेत्ति जाणिज्जा णुवलित्तेत्ति वा पुणो । अभिधानराजेन्द्रकोष, भाग २ पृ. २४२ । ३ विशेषके लिये देखिए अभिधानराजेन्द्रकोष, भाग २ पृ. २१९-२४२।। ४ वैशेषिकों द्वारा मान्य छह पदार्थ है-द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय । ५ भगवती २५-४; उत्तराध्ययन २८-७,८ प्रज्ञापना आदि श्वेताम्बर आगम ग्रंथोंमें काल द्रव्य संबंधी दोनों पक्ष मिलते हैं। ६ १०-१९०। ७ १९-५३, ५४। ८४-४-१६ । ९६-१५१० देखिये। १० डा. सिद्धेश्वर शास्त्री का कालचक्र पृ. ३९-४८। काल संबंधी वैदिक मान्यताओंके विस्तृत विवेचनके लिए देखिये प्रोफेसर बरुआकी Pre-Buddhist Philosophy भाग ३ अ. १३ । कालवादियोंके मतके खण्डनके लिए माध्यमिककारिका, सन्मतिटीका आदि ग्रंथ देखने चाहिये ।

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