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अयोगव्यवच्छेदिका
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अर्थ-हे भगवन् ! अन्य मतावलम्बियोंके इष्ट देवता चाहे जगतकी प्रलय करें, अथवा जगतका सर्जन, परन्तु वे संसारके नाश करनेका उपदेश देनेमें अलौकिक ऐसे आपकी बराबरीमें कुछ भी नहीं है। जिनमुद्राको सर्वोत्कृष्टता
वपुश्च पर्यकशेयं श्लथं च दृशौ च नासानियते स्थिरे च ।
न शिक्षितेयं परतीर्थनाथैर्जिनेन्द्र मुद्रापि तवान्यदास्ताम् ॥२०॥ अर्थ-हे जिनेन्द्र ! आपके अन्य गुणोंका धारण करना तो दूर रहा, अन्यवादियोंके देवोंने पर्यंकआसनसे युक्त शियिल शरीर और नासिकाके अग्रभाग पर दृष्टिवालो आपकी मुद्रा भी नहीं सीखी! भगवान्के शासनकी महत्ता
यदीयसम्यक्त्वबलात् प्रतीमो भवादृशानां परमस्वभावम् ।
कुवासनापाशविनाशनाय नमोऽस्तु तस्मै तव शासनाय ॥२१॥ अर्थ-हे वीतराग ! जिसके सम्यग्ज्ञानके द्वारा हमलोग आप जैसोंके शुद्ध स्वरूपका दर्शन कर सके हैं, ऐसे कुवासनारूपी वन्धनके नाश करनेवाले आपके शासनके लिये नमस्कार हो! प्रकारान्तरसे भगवान्के यथार्थवाद गुणकी प्रशंसा
अपक्षपातेन परीक्षमाणा द्वयं द्वयस्याप्रतिमं प्रतीमः ।
यथास्थितार्थप्रथनं तवैतदस्थाननिर्वधैरसं परेषाम् ॥२२॥ अर्थ-हे भगवन् ! हम जब निष्पक्ष होकर परीक्षा करते हैं, तो हमें एक तो आपका यथार्थरूपसे वस्तुका प्रतिपादन करना, और दूसरे अन्यवादियोंकी पदार्थोके अन्यथा रूपसे कथन करनेमें आसक्तिका होनाये दो बातें निरुपम प्रतीत होतो हैं।। अज्ञानियोंके प्रतिबोध करनेकी असामर्थ्य
अनाद्यविद्योपनिषन्निषण्णैर्विशृंखलैश्चापलमाचरद्भिः।
अमूढलक्ष्योऽपि पराक्रिये यत्त्वत्किंकरः किं करवाणि देव ॥२३॥ अर्थ-हे देव ! अनादि विद्यामें तत्पर, स्वच्छंदाचारी और चपल अज्ञानी पुरुषोंको लक्ष्यबद्ध करनेसे भी यदि वे नहीं समझते हैं, तो आपका यह तुच्छ सेवक क्या करे ?"
१. स्याज्जंघयोरधोभागे पादोपरि कृते सति ।
पर्यको नाभिगोत्तानदक्षिणोत्तरपाणिकः ।। "जानुप्रसारितबाहोः शयनं पर्यकः" इति पातंजलाः ।
योगशास्त्रं ४.१२५ । २. तिष्ठन्तु तावदतिसूक्ष्मगभीरबाधाः संसारसंस्थितिभिदः श्रुतवाक्यमुद्रा । पर्याप्तमेकमुपपत्तिसचेतनस्य रागाचिषः शमयितुं तव रूपमेव ।।
द्वा. द्वात्रिंशिका २.१५ । ३. निर्बन्धोऽभिनिवेशः स्यात् । अभिधानचिन्तामणि ६.१३६ । ४. 'अगूढलक्ष्योऽपि' पाठान्तरं । ५. इस अर्थमें खींचातानी करनी पड़ती है।