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श्रीमद्रराजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लोक २७ द्रवमिव परित्रातुर्धरित्रीपतेखिजगत्पतेः पुरतो भुवनत्रयं प्रत्युपकारकारितामाविष्करोति
नैकान्तवादे सुखदुःखभोगौ न पुण्यपापे न च बन्धमोक्षौ ।
दुर्नीतिवादव्यसनासिनैवं परैर्विलुप्तं जगदप्यशेषम् ॥ २७ ॥ एकान्तवादे नित्यानित्यैकान्तपक्षाभ्युपगमे न सुखदुःखभोगौ घटेते। न च पुण्यपापे घटेते। न च वन्धमोक्षौ घटेते । पुनः पुनर्नबः प्रयोगोऽत्यन्ताघटमानतादर्शनार्थः । तथाहिएकान्तनित्ये आत्मनि तावत् सुखदुःखभोगौ नोपपद्यते। नित्यस्य हि लक्षणम् अप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकरूपत्वम् । ततो यदा आत्मा सुखमनुभूय स्वकारणकलापसामग्रीवशाद् दुःखमुपभुङ्क्ते, तदा स्वभावभेदाद् अनित्यत्वापत्त्या स्थिरैकरूपताहानिप्रसङ्गः। एवं दुःखमनुभूय सुखमुपभुञ्जानस्यापि वक्तव्यम् । अथ अवस्थाभेदाद् अयं व्यवहारः। न चावस्थासु भिद्यमानास्वपि तद्वतो भेदः । सर्पस्येव कुण्डलार्जवाद्यवस्थासु इति चेत् । न । तास्ततो व्यतिरिक्ता अव्यतिरिक्ता वा ? व्यतिरेके, तास्तस्येति संबन्धाभावः, अतिप्रसङ्गात् । अव्यतिरेके तु, तद्वानेवेति तदवस्थितैव स्थिरैकरूपताहानिः । कथं च तदेकान्तैकरूपत्वेऽवस्थाभेदोऽपि भवेदिति ॥
किंच, सुखदुःखभोगौ पुण्यपापनिर्वत्यौ । तन्निर्वर्तनं चार्थक्रिया । सा च कूटस्थनित्यस्य
प्रजाकी रक्षा करनेवाला राजा महान् उपकारक कहा जाता है, उसी प्रकार एकान्तवादियोंके उपद्रवसे तीनों लोकोंकी रक्षा करनेवाले जिनेन्द्र भगवान् संसारके महान् उपकारक है
श्लोकार्थ-एकान्तवादमें सुख-दुखका उपभोग, पुण्य-पाप, और बन्ध-मोक्षकी व्यवस्था नहीं बन सकती। इस प्रकार परतीथिक लोग नयाभासोंके द्वारा प्रतिपादित करनेवाले आग्रह रूप खड्गसे सम्पूर्ण जगतका नाश करते हैं।
व्याख्यार्थ-(१) वस्तुको एकान्त नित्य माननेसे आत्मामें सुख और दुखकी उत्पत्ति नहीं हो सकती । अप्रच्युत, अनुत्पन्न, स्थिर और एक रूपको नित्य कहते हैं। अतएव यदि आत्मा अपनी कारण सामग्रीसे सुखको भोग कर दुखका उपभोग करने लगे, अथवा दुखका उपभोग करके सुखको भोगने लगे, तो अपने नित्य और एक स्वभावको छोड़नेके कारण आत्मामें स्वभावभेद होनेसे आत्माको अनित्य मानना पड़ेगा । शंका-वास्तवमें आत्माकी अवस्थाओंमें भेद होता है, स्वयं आत्मामें भेद नहीं होता। जिस प्रकार सर्पकी सरल अथवा कुण्डलाकार अवस्थाओंमें भेद होनेसे सर्पमें भेद होना कहा जाता है, उसी प्रकार सुख और दुख रूप आत्माको अवस्थाओंमें भेद होनेसे यह भेद आत्माका कहा जाता है। समाधान-यह ठीक नहीं। आप लोग आत्माकी अवस्थाको आत्मासे भिन्न मानते हैं, या अभिन्न ? यदि सुख-दुख अवस्थायें आत्मासे भिन्न हैं, तो इन अवस्थाओं और आत्मामें कोई सम्बन्ध नहीं हो सकता। यदि इन अवस्थाओंको आत्मासे अभिन्न मानो, तो सुख-दुख अवस्थाओंको ही आत्मा मानना चाहिये । अतएव सुख-दुखका भोग करते समय अपने नित्य स्वभावको छोड़नेके कारण आत्माको अनित्य मानना पड़ेगा। अतएव एकान्तवादमें आत्माका अवस्था-भेद भी नहीं बन सकता ।
(२) पुण्य-पापसे होनेवाले सुख-दुख भी नित्य एकान्तवादमें नहीं बन सकते । सुखानुभव रूप क्रियात्मक परिणाम पुण्य कर्मके निमित्तसे तथा दुःखानुभव रूप क्रियात्मक परिणाम पाप कर्मके निमित्तसे उत्पादित किया जाता है । इन दोनों परिणामोंकी उत्पत्ति करना ही इन दोनों परिणामोंके रूपसे परिणत होना ही-कर्मबद्ध आत्माकी अर्थक्रिया है। यह पुण्य-पापसे होनेवाली अर्थक्रिया कूटस्थ नित्य आत्मामें नहीं