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श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लोक १० प्रमेयमपि तरात्मशरीरेन्द्रियार्थबुद्धिमनःप्रवृत्तिदोपप्रत्यभावफलदुःखापवर्गभेदाद् द्वादश विधमुक्तम् । तञ्च न सम्यग् । यतः शरीरेन्द्रियबुद्धिमनःप्रवृत्तिदोपफलदुखानाम् आत्मन्येवान्तर्भावो युक्तः । संसारिण आत्मनः कथञ्चित् तदविष्वग्भूतत्वात् । आत्मा च प्रमेय एव न भवति । तस्य प्रमातृत्वात् । इन्द्रियबुद्धिमनसां तु करणत्वात् प्रमेयत्वाभावः। दोपास्तु रागद्वेपमोहाः, ते च प्रवृत्तेर्न पृथग्भवितुमर्हन्ति । वाङ्मनःकायव्यापारस्य शुभाशुभफलस्य विंशतिविधस्य तन्मते प्रवृत्तिशब्दवाच्यत्वात् । रागादिदोपाणां । च मनोव्यापारात्मकत्वात् । दुःखस्य शब्दादीनामिन्द्रियार्थानां च फल एवान्तर्भावः। "प्रवृत्तिदोपजनितं सुखदुःखात्मकं मुख्यं फलं, तत्साधनं तु गौणम्” इति जयन्तवचनात् । प्रेत्यभावापवर्गयोः पुनरात्मन एव परिणामान्तरापत्तिरूपत्वाद्, न पार्थक्यमात्मनः सकाशादुचितम् । तदेवं द्वादशविधं प्रमेयमिति वाग्विस्तरमात्रम् "द्रव्यपर्यायात्मकं वस्तु प्रमेयम्" इति तु समीचीनं लक्षणम् । सर्वसंग्राहकत्वात् । एवं संशयादीनामपि तत्त्वाभासत्वं प्रेक्षावद्धिरनुपेक्षणीयम् । अत्र तु प्रतीतत्वाद, ग्रन्थगौरवभयाच्च न प्रपश्चितम् । न्यक्षेण ह्यत्र न्यायशास्त्रमवतारणीयम, तच्चावतार्यमाणं पृथगग्रन्थान्तरतामवगाहत इत्यास्ताम् ।।
तदेवं प्रमाणादिपोडशपदार्थानामविशिष्टेऽपि तत्त्वाभासत्वे प्रकटकपटनाटकसूत्रधाराणां त्रयाणामेव छलजातिनिग्रहस्थानानां मायोपदेशादिति पदेनोपक्षेपः कृतः तत्र परस्य वदतोऽर्थविकल्पोपपादनेन वचनविघातः छलम् । तत् त्रिधा–वाक्छलं, सामान्यछलम्, उपचारछलं अन्यत्र (सन्निकर्प आदिमें) उपचारके विना अर्थात् अनुपचरित रूपसे प्रमाणत्व नहीं है । तथा न्यायभूषणकारने जो "सम्यक् प्रकारसे अनुभवका साधन करनेवाले" को प्रमाग कहा है, वहाँ भी साधनका ग्रहण किया जाने से कर्ता और कर्मका निरसन हो जानेसे करणका ही प्रमाणत्व सिद्ध होता है । तथा, अव्यवहित फलदायी होने से ज्ञान के साधकतम होने कारण प्रमाणका उक्त लक्षण समीचीन नहीं है, अतएव अपने और परको निश्चय करनेवाले ज्ञानको हो वास्तविक प्रमाण मानना चाहिये । (स्वपरव्यवसायि ज्ञानं प्रमाणम् )।
नैयायिकोंने आत्मा, शरीर, इन्द्रिय, अर्थ, बुद्धि, मन, प्रवृत्ति, दोप, प्रेत्यभाव, फल, दुख, और अपवर्गके भेदसे जो बारह प्रकारका प्रमेय (मुमुक्षुद्वारा जानने योग्य विषय ) स्वीकार किया है, वह भी ठीक नहीं । क्योंकि शरीर, इन्द्रिय, बुद्धि, मन, प्रवृत्ति, दोप, फल और दुखका आत्मामें ही अन्तर्भाव हो जाता है। कारण कि शरीर, इन्द्रिय आदिसे संसारी पुरुपकी आत्मा किसी अपेक्षासे अभिन्न ही है। तथा, आत्मा प्रमाता है, वह प्रमेय नहीं हो सकता। इन्द्रिय, बुद्धि और मन करण हैं, अर्थात् इनके द्वारा प्रमाता प्रमिति क्रियाका कर्ता है, इसलिये ये भी प्रमेय नहीं कहे जा सकते। राग, द्वेप और मोह प्रवृत्तिसे भिन्न नहीं है क्योंकि नैयायिकोंके मतमें प्रवृत्ति शब्दसे शुभ अशुभ रूप वीस प्रकारका मन, वचन और कायका व्यापार लिया गया है। राग आदि दोप मनका व्यापार है। दुख और इन्द्रियोंके विपय शब्द आदि फलमें गर्भित हो जाते हैं । जयन्तने कहा भी है-"प्रवृत्ति और दोपसे उत्पन्न सुख-दुख मुख्य फल हैं, तथा सुख-दुख रूप फलका साधन गौण है।" प्रेत्यभाव और अपवर्ग ये दोनों आत्माके ही परिणाम हैं, अतएव इन्हें आत्मासे भिन्न नहीं मानना चाहिये । अतएव नैयायिकों द्वारा मान्य वारह प्रकारका प्रमेय केवल वचनोंका आडम्बर मात्र है। अतएव "द्रव्य और पर्याय रूप वस्तु ही प्रमेय है" (द्रव्यपर्यायात्मकं वस्तु प्रमेयं), यही प्रमेयका लक्षण सर्वसंग्राहक होनेसे समीचीन है । इसी प्रकार प्रमाण और प्रमेयकी तरह संशय आदि चौदह पदार्थोंको भी तत्त्वाभास ही समझना चाहिये । ग्रंथके गौरवके भयसे यहाँ विस्तारसे नहीं लिखा । किसी अन्य ग्रंथकी सहायतासे उसे समझ लेना चाहिये।
इस प्रकार प्रमाण आदि सोलह पदार्थों के सामान्य रूपसे तत्त्वाभास सिद्ध हो जानेपर भी, यहाँ प्रकट कपट नाटकके सूत्रधार छल, जाति और निग्रहस्थानका ही खंडन किया जाता है। बोलनेवाले वादीके अर्थको
१. जयन्तन्यायमंजर्या । २.. प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकारे ।