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श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लोक १६ वस्थायां न्यक्षेणं तत्क्षयाभावात् । तत्रापि ह्यवशिष्टानामेव तेपां क्षयो न पुनस्तत्क्षण एव युगपत्सर्वेपाम् । इति सिद्धं गर्भादारभ्य प्रतिक्षणं मरणम् । इत्यलं प्रसङ्गेन ।
__ अथवापरथा व्याख्या । सौगतानां किलार्थेन ज्ञानं जन्यते । तच्च ज्ञानं तमेव स्वोत्पादकमर्थ गृह्णातीति । “नाकारणं विपयः" इति वचनात् । ततश्चार्थः कारणं ज्ञानं च कार्यमिति ।।
एतच्च न चारु । यतो यस्मिन् क्षणेऽर्थस्य स्वरूपसत्ता तस्मिन्नद्यापि ज्ञानं नोत्पद्यते, तस्य तदा स्वोत्पत्तिमात्रव्यग्रत्वात् । यत्र च क्षणे ज्ञानं समुत्पन्नं तत्रार्थोऽतीतः। पूर्वापरकालभावनियतश्च कार्यकारणभावः। क्षणातिरिक्तं चावस्थानं नास्ति । ततः कथं ज्ञानस्योत्पत्तिः, कारणस्य विलीनत्वात् । तद्विलये च ज्ञानस्य निर्विपयतानुपज्यते, कारणस्यैव युष्मन्मते तद्विपयत्वात् । निर्विपयं च ज्ञानमप्रमाणमेवाकाशकेशज्ञानवत् । ज्ञानसहभाविनश्चार्थक्षणस्य न ग्राह्यत्वम् , तस्याकारणत्वात् । अत आह न तुल्यकाल इत्यादि । ज्ञानार्थयोः फलहेतुभावः कार्यकारणभावस्तुल्यकालो न घटते, ज्ञानसहभाविनोऽर्थक्षणस्य ज्ञानानुत्पादकत्वात् , युगपद्धाविनोः कार्यकारणभावायोगात् । अथ प्राचोऽर्थक्षणस्य ज्ञानोत्पादकत्वं भविष्यति, तन्न । यत आह हेतौ इत्यादि। हेतावर्थरूपे ज्ञानकारणे विलीने क्षणिकत्वान्निरन्वयं विनप्टे न मरण कहते हैं, तो यह भी ठीक नहीं। क्योंकि अन्त अवस्थामें भी आयुके अवशिष्ट अंशोंका ही नाश होता है, एक ही क्षणमें आयुके सम्पूर्ण भागोंका नाश नहीं होता। अतएव गर्भके धारण करनेसे लेकर मृत्यु पर्यंत मनुष्यका मरण होता रहता है, यह निर्विवाद है ।
(३) पूर्वपक्ष-ज्ञान पदार्थसे उत्पन्न होकर उसी पदार्थको जानता है। कहा भी है "जो पदार्थ ज्ञानोत्पत्तिका कारण नहीं होता, वह ज्ञानका विपय भी नहीं होता।" अतएव पदार्थ कारण है और ज्ञान कार्य है।
(३) उत्तरपक्ष-यह ठीक नहीं। क्योंकि जिस क्षणमें पदार्थ स्वरूपसे विद्यमान रहता है, उस क्षणमें ज्ञान उत्पन्न नहीं हो सकता; उस समय वह अपनी उत्पत्तिमें व्यग्न रहता है। बौद्धोंके क्षणिकवादके अनुसार जब तक एक पदार्थ बनकर पूर्ण न हो जाय, उस समय तक वह ज्ञानकी उत्पत्ति नहीं कर सकता। तथा जिस क्षणमें ज्ञान उत्पन्न होता है, उस समय पदार्थ नष्ट हो जाता है (क्योंकि प्रत्येक पदार्थ क्षण-क्षणमें नष्ट होनेवाला है)। तथा क्रमसे पूर्व और उत्तर कालमें होनेवाले पदार्थों में ही कार्य-कारण भाव होता है। परन्तु बौद्ध मतमें कोई भी वस्तु क्षणमात्रसे अधिक नहीं ठहरती। अतएव ज्ञानकी उत्पत्तिके क्षणमें ज्ञानके कारण पदार्थके नाश हो जानेसे ज्ञानकी उत्पत्ति होनेके पहले ही ज्ञानका कारण पदार्थ नष्ट हो जाता है, परन्तु आप लोगोंके मतमें कारणको ही विपय माना है, इसलिये ज्ञानको निर्विपय मानना चाहिये। यह निविपय ज्ञान आकाशमें केश-ज्ञानकी तरह प्रमाण नहीं हो सकता। तथा यदि ज्ञान और पदार्थको सहभावी माना जाय, तो पदार्थ ज्ञानका विपय नहीं हो सकता, क्योंकि पदार्थ ज्ञानका कारण नहीं है। कारण कार्यसे पहले उत्पन्न होता है, अतः कारण कार्यका सहभावी नहीं होता। अतएव आपके सिद्धान्तके अनुसार पदार्थ ज्ञानका विषय (कारण) नहीं हो सकता । इसलिये हमने कहा है 'ज्ञान और पदार्थ में एक समयमें कार्य और कारण भाव नहीं बन सकता' (न तुल्यकाल: फलहेतुभावो)। इसलिए ज्ञानके साथ उत्पन्न होनेवाला पदार्थ ज्ञानको उत्पन्न नहीं कर सकता। कारण कि एक साथ उत्पन्न होनेवाली दो वस्तुओंमें कार्य-कारण सम्बन्ध नहीं होता। यदि कहो कि ज्ञानके पहले उत्पन्न होनेवाला पदार्थ ज्ञानको उत्पन्न करता है, तो यह ठीक नहीं। क्योंकि हमने पहले कहा है-'क्षणिक होनेसे पदार्थका निरन्वय विनाश होनेके कारण, नष्ट हुए पदार्थसे ज्ञानकी उत्पत्ति नहीं हो
१. साकल्येन ।