Book Title: Syadvada Manjari
Author(s): Jagdishchandra Jain
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 236
________________ श्रीमद्राजचन्द्रजेनशास्त्रमालायां [ अन्य. यो. व्य. श्लोक १९ अथ ताथागताः क्षणक्षयपक्षे सर्वव्यवहारानुपपत्तिं परैरुद्भावितामाकर्ण्य इत्थं प्रतिपादयन्ति—यत् सर्वपदार्थानां क्षणिकत्वेऽपि वासनाबललब्धजन्मना ऐक्याध्यवसायेन ऐहिका - मुष्मिकव्यवहारप्रवृत्तेः कृतप्रणाशादिदोषा निरवकाशा' एव इति । तदाकूतं परिहर्तुकामस्तत्कल्पितवासनायाः क्षणपरम्परातो भेदाभेदानुभयलक्षणे पक्षत्रयेऽप्यघटमानत्वं दर्शयन् स्वाभिप्रेतभेदाभेदस्याद्वादमकामयमानानपि तानङ्गीकारयितुमाह ૮૬ सा वासना सा क्षणसन्ततिश्च नाभेदभेदानुभयैर्घटेते । ततस्तटादर्शिशकुन्तपोतन्यायाच्चदुक्तानि परे श्रयन्तु ॥ १९ ॥ सा शाक्यपरिकल्पिता त्रुटितमुक्तावलीकल्पानां परस्परविशकलितानां क्षणानामन्योन्यानुस्यूतप्रत्ययजनिका एकसूत्रस्थानीया सन्तानापरपर्याया वासना । वासनेति पूर्वज्ञानजनितामुत्तरज्ञाने शक्तिमाहुः । सा च क्षणसन्ततिस्तद्दर्शनप्रसिद्धा प्रदीपकलिकावत् नवनवोत्पद्यमाना - परापरसदृशक्षणपरम्परा । एते द्वे अपि अभेदभेदानुभयैर्न घटेते ॥ न तावदभेदेन तादात्म्येन ते घटेते । तयोर्हि अभेदे वासना वा स्यात् क्षणपरम्परा वा, वौद्ध-- पदार्थोंके क्षणस्थायी होनेपर भी वासनासे उत्पन्न होनेवाले अभेद ज्ञानसे इस लोक और परलोक संबंधी व्यवहार चल सकता है, अतएव 'कृतकर्मप्रणाश' आदि दोष हमारे सिद्धांतमें नहीं आ सकते । जैन - आप लोग जिस वासनाको स्वीकार करते हैं, वह कल्पित वासना क्षणपरम्परासे भिन्न, अभिन्न, अथवा न भिन्न और न अभिन्न, ( अनुभय) किसी भी तरह सिद्ध नहीं होती । अतएव हमारे द्वारा अभिप्रेत स्याद्वाद के भेदाभेदको ही स्वीकार करना चाहिये श्लोकार्थ — वासना और क्षणसंतति परस्पर भिन्न, अभिन्न, और अनुभय— तीनों प्रकारसे किसी भी तरह सिद्ध नहीं होती । अतएव जिस प्रकार समुद्रमें, जहाजसे उड़ा हुआ पक्षो समुद्रका किनारा न देखकर पीछे जहाजपर ही लौट आता है, उसी तरह उपायान्तर न होनेसे हे भगवन् ! बौद्ध लोगोंको आपके ही सिद्धान्तोंका आश्रय लेना चाहिये । व्याख्यार्थ - जिसका अपर नाम संतान है, ऐसी बौद्धों द्वारा कल्पित वासना, त्रुटित मुक्तावलिके भिन्न-भिन्न मोतियोंके समान, परस्पर भिन्न क्षण एक दूसरेसे अनुस्यूत हुए हैं, इस प्रकारका ज्ञान उत्पन्न करनेवाली — एक सूत्रके समान होती है । पूर्व ज्ञानक्षणसे उत्तर ज्ञानक्षण में उत्पन्न की हुई शक्तिको वासना कहते हैं। दीपककी लौके समान नये नये उत्पन्न होनेवाले अपर अपर सदृश पूर्व और उत्तर क्षणोंकी परम्राको क्षणसंतति कहते हैं । ( जिस प्रकार दीपककी लौके प्रत्येक क्षण में बदलते रहने पर भी लौके पूर्व ओर उत्तर क्षणोंमें परस्पर सदृश ज्ञान होनेके कारण, यह वही लो है, ऐसा ज्ञान होता है; उसी तरह पदार्थोंके प्रत्येक क्षणमें बदलते रहनेपर भी पदार्थोंके पूर्व और उत्तर क्षणोंमें सदृश ज्ञान होने के कारण यह वही पदार्थ है, ऐसा ज्ञान होता है । इसे ही बौद्ध मतमें क्षणसंतति कहा है ।) यह वासना और क्षणसंतति परस्पर भिन्न, अभिन्न, अथवा अनुभय रूपसे किसी भी प्रकार सिद्ध नहीं होती । ( १ ) वासना ( संतति ) और क्षणसंततिको परस्पर अभिन्न मानना ठीक नहीं। क्योंकि वासना १. यथा वीजादिष्वात्मानमन्तरेणापि प्रतिनियमेन कार्यं तदुत्पत्तिश्च क्रमेण भवति, तथा प्रकृतेऽपि परलोकगामिनमेकं विनापि कार्यकारणभावस्य नियामकत्वात्प्रतिनियतमेव फलं । क्लेशकर्माभिसंस्कृतस्य संतानस्याविच्छेदेन प्रवर्तनात् परलोके फलप्रतिलम्भोऽभिधीयते । इति नाकृताभ्यागमो न कृतविप्रणाशो वाधकं । वोधिचर्यावतारपंजिका पृ. ४७३ । अत्र शान्तरक्षितकृततत्त्वसंग्रहे कर्मफलसम्वन्धपरीक्षानामप्रकरणम् अवलोकयितव्यम् ।

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