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अन्य. यो. व्य. श्लोक १८] स्याद्वादमञ्जरो
१८५ तदभावे च अनुमानस्यानुत्थानमित्युक्तम् प्रागेव । अपि च, स्मृतेरभावे निहितप्रत्युन्मार्गणप्रत्यर्पणादिव्यवहारा विशीयरन् ।
"इत्येकनवते कल्पे शक्त्या में पुरुषो हतः।।
तेन कर्मविपाकेन पादे विद्धोऽस्मि भिक्षवः ।।" इति वचनस्य का गतिः। एवमुत्पत्तिरुत्पादयति, स्थितिः स्थापयति, जरा जर्जरयति, विनाशो नाशयतीति चतुःक्षणिक वस्तु प्रतिजानाना अपि प्रतिक्षेप्याः। क्षणचतुष्कानन्तरमपि निहितप्रत्युन्मार्गणादिव्यवहाराणां दर्शनात् । तदेवमनेकदोषापातेऽपि यः क्षणभङ्गमभिप्रैति तस्य महत् साहसम् ।। इति काव्यार्थः ।। १८ ॥
स्मृतिके अभाव होनेपर अनुमान भी नहीं बन सकता, यह पहले ही कहा जा चुका है तथा स्मृतिके अभावमें धरोहर आदि रख कर भूल जाना, धरोहरको लौटानेकी याद न रहना आदि व्यवहारका भी लोप हो जायगा। तथा
"अबसे इक्यानवैवें भवमें मैंने एक पुरुषको बलात्कारसे मार डाला, उस कर्मके खोटेफ लसे मेरा पैर छिद गया है।"
आदि वचनोंके लिए भी कोई स्थान नहीं है। इस प्रकार उत्पत्ति, स्थिति, जरा और विनाश इन चार क्षण पर्यंत जो वस्तुकी स्थिति मानी है (क्षणिकवादका परिवर्तित रूप), वह भी नहीं बन सकती। क्योंकि चार क्षणोंके बाद भी धरोहर आदिको रखकर भूल जाने और उसे लौटानेकी याद न रहने आदिका व्यवहार देखा जाता है। इसलिए अनेक दोषोंके आनेपर भी क्षणभंगको मानना बौद्धोंका महान् साहस है । यह श्लोकका अर्थ है ॥१८॥
भावार्थ-इस श्लोकमें बौद्धोंके 'क्षणभंग' वादपर विचार किया गया है। जैन लोगोंका कहना है कि प्रत्येक वस्तु क्षणस्थायी माननेपर बौद्धोंके मतमें आत्मा कोई पृथक् पदार्थ नहीं बन सकता । तथा, आत्माके न माननेपर ( १ ) संसार नहीं बनता, क्योंकि क्षणिकवादियोंके मतमें पूर्व और अपर क्षणोंमें कोई संबंध न हो सकनेसे पूर्व जन्मके कर्मोंका जन्मांतरमें फल नहीं मिल सकता। बौद्ध लोग संतानको वस्तु मानते हैं। उनके मतानुसार संतानका एक क्षण दूसरे क्षणसे संबद्ध होता है, मरणके समय रहनेवाला ज्ञानक्षण भी दूसरे विचारसे संबद्ध होता है, इसीलिये संसारको परम्परा सिद्ध होती है। परन्तु यह ठीक नहीं । क्योंकि संतानक्षणोंका परस्पर संबंध करनेवाला कोई पदार्थ नहीं है, जिससे दोनों क्षणोंका परस्पर संबंध हो सके। (२) आत्माके न माननेपर मोक्ष भी सिद्ध नहीं होता। क्योंकि संसारी आत्माका अभाव होनेसे मोक्ष किसको मिलेगा । बौद्ध लोग सम्पूर्ण वासनाओंके नष्ट होजाने पर भावनाचतुष्टयसे होनेवाले विशुद्ध ज्ञानको मोक्ष कहते हैं। परन्तु क्षणिकवादियोंके मतमें कार्य-कारण भाव नहीं सिद्ध होता। तथा, अशुद्ध ज्ञानसे अशुद्ध ज्ञान ही उत्पन्न हो सकता है, विशुद्ध ज्ञान नहीं । तथा, जिस पुरुषके बंध हो, उसे ही मोक्ष मिलना चाहिये । परन्तु क्षणिकवादियोंके मतमें बंधके क्षणसे मोक्षका क्षण दूसरा है, अतएव बद्ध पुरुषको मोक्ष नहीं हो सकता । ( ३ ) अनात्मवादी बौद्धोंके मतमें स्मृतिज्ञान भी नहीं बन सकता । क्योंकि एक बुद्धिसे अनुभव किये हुए पदार्थोंका दूसरी बुद्धिसे स्मरण नहीं हो सकता। स्मृतिके स्थानमें संतानको एक अलग पदार्थ मान कर एक संतानका दूसरी संतानके साथ कार्य-कारण भाव माननेपर भी संतानक्षणोंकी परस्पर भिन्नता नहीं मिट सकती, क्योंकि बौद्ध मतमें सम्पूर्ण क्षण परस्पर भिन्न हैं।
१. लक्षणानि तथा जातिर्जरास्थितिरनित्यता। जाति जात्यादयस्तेषां तेऽष्टधर्मैकवृत्तयः ।
वसुबन्धुविरचिताभिधर्मकोशे २-४५,४६ ।