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श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां
[ अन्य. यो. व्य. श्लोक १७ वेत्यादौ शरीराश्रयतयाप्युपपत्तेः । किञ्च यद्ययमहङ्कारप्रत्यय आत्मगोचरः स्यात् तदा न कादाचित्कः स्यात् । आत्मनः सदा सन्निहितत्वात् । कादाचित्कं हि ज्ञानं, कादाचित्ककारणपूर्वकं दृष्टम् । यथा सौदामिनीज्ञानमिति । नाप्यनुमानेन, अव्यभिचारिलिङ्गाग्रहणात् । आगमानां च परस्परविरुद्धार्थवादिनां नास्त्येव प्रामाण्यम् । तथाहि । एकेन कथमपि कश्चिदर्थो व्यवस्थापितः, अभियुक्ततरेणापरेण स एवान्यथा व्यवस्थाप्यते । स्वयमव्यवस्थितप्रामाण्यानां च तेषां कथमन्यव्यवस्थापने सामर्थ्यम् । इति नास्ति प्रमाता ॥
प्रमेयं च वाह्योऽर्थः स चानन्तरमेव बाह्यार्थप्रतिक्षेपक्षणे निर्लोठितः । प्रमाणं च स्वपरावभासि ज्ञानम् । तच्च प्रमेयाभावे कस्य ग्राहकमस्तु निर्विपयत्वात् । किंच, एतत् अर्थ - समकालम्, तद्भिन्नकालं वा तद्ग्राहकं कल्प्येत ? आद्यपक्षे, त्रिभुवनवर्तिनोऽपि पदार्थास्तत्रावभासेंरन्, समकालत्वाविशेपात् । द्वितीये तु, निराकारम् साकारम् वा तत्स्यात् ? प्रथमे, प्रतिनियतपदार्थपरिच्छेदानुपपत्तिः । द्वितीये तु किमयमाकारो व्यतिरिक्तो अव्यतिरिक्तो वा ज्ञानात् ? अव्यतिरेके, ज्ञानमेवायम्, तथा च निराकारपक्षदोषः । व्यतिरेके, यद्ययं चिद्रूपस्तदानीमाकारोऽपि वेदकः स्यात् । तथा चायमपि निराकारः साकारो वा तद्वेको भवेत् ?
'मैं काला हूँ' इस प्रकारका ज्ञान शरीरमें भी होता है । तथा, यदि 'अहं प्रत्यय' से आत्माका ज्ञान होता है, तो यह 'अहं प्रत्यय' आत्मामें सदा होना चाहिये, कभी- कभी नहीं । क्योंकि आत्मा सदा विद्यमान है। ज्ञान सदा विद्यमान नहीं रहता, इसलिये वह कभी-कभी उत्पन्न होता है; बिजली - के ज्ञानकी तरह ज्ञान अनित्य कारणोंसे ही उत्पन्न होता है । अतएव आत्मामें सदा ही 'अहं प्रत्यय' होना चाहिये । अनुमानसे भी आत्मा सिद्ध नहीं होती । क्योंकि आत्माको ग्रहण करनेवाला कोई निर्दोष हेतु नहीं है । तथा, आगम परस्पर विरुद्ध अर्थ के प्रतिपादन करनेवाले हैं, इसलिये आगमसे भी आत्माका अस्तित्व सिद्ध नहीं हो सकता । तथाहि - जिस पदार्थको एक शास्त्र अमुक प्रकारसे प्रतिपादन करता है, उसी पदार्थको दूसरा दूसरी तरहसे कहता है । अतएव आगमके स्वयं अव्यवस्थित होनेके कारण आगमसे दूसरे तत्त्वोंकी व्यवस्था नहीं बन सकती । अतएव प्रमाता आत्माका अस्तित्व मानना ठीक नहीं है ।
( ख ) जिसे प्रमेय कहते हैं वह वाह्य अर्थ है । बाह्य अर्थका परिहार करते समय उसकी खंडन किया जा चुका है ।
( ग ) स्व और परके जाननेवाले ज्ञानको प्रमाण अर्थात् प्रमिति क्रिया का कारण, कहते हैं । प्रमेयके अभाव में प्रमाणभूत ज्ञानके विपयका अभाव हो जानेसे, वह प्रमाणभूत ज्ञान किसका ग्राहक होगा, क्योंकि उसके पास कोई विपय ही नहीं है । तथा, अर्थके अस्तित्वकालमें विद्यमान ज्ञान पदार्थको जानता है, अथवा जिस कालमें अर्थका सद्भाव होता है, उससे भिन्नकालमें प्रमाणभूत ज्ञान पदार्थको जानता है ? प्रथम पक्ष स्वीकार करनेपर तीनों लोकोंके पदार्थ ज्ञानमें प्रतिभासित होने चाहिये, क्योंकि ज्ञान सभी पदार्थोंके समकालीन है । द्वितीय पक्षमें, वह ज्ञान निराकार ( ज्ञेयाकार शून्य ) होता है या ज्ञेयाकार सहित ? यदि पदार्थके सद्भाव के भिन्नकालमें होनेवाला ज्ञान निराकार है तो प्रतिनियत पदार्थोंके ज्ञानकी सिद्धि न हो सकेगी। यदि पदार्थ के सद्भावकालसे भिन्नकालमें होनेवाला ज्ञान साकार ( पदार्थ आकारवाला ) है तो वह पदार्थका आकार ज्ञानसे भिन्न है या अभिन्न ? यदि पदार्थ के सद्भावकालसे भिन्नकालमें होनेवाले ज्ञानसे पदार्थोंका आकार भिन्न न हो तो यह पदार्थका आकार ज्ञानरूप ही होगा, ओर पदार्थका आकार ज्ञानरूप होनेसे निराकार पक्षमें जो दोष आता है, वही दोष यहाँ भी उपस्थित होगा; अर्थात् प्रतिनियत पदार्थके ज्ञानकी सिद्धि नहीं होगी। यदि पदार्थ के कालसे भिन्नकालमें होनेवाले ज्ञानसे पदार्थका आकार भिन्न है तो वह चिद्रूप है या अचिद्रूप ? यदि यह आकार चिद्रूप है तो वह पदार्थ के आकारका भी ज्ञाता होगा । तथा, पदार्थके आकारका ज्ञाता होनेपर, यह आकार निराकार अथवा साकार होतां हुआ