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श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लोक १७ "नासन्न सन्न सदसन्न चाप्यतुभयात्मकम् ।
चतुष्कोटिविनिर्मुक्तं तत्त्वं माध्यमिका विदुः" ।' इत्युन्मत्तभाषितम् ।।
___ किञ्च, इदं प्रमात्रादीनामवास्तवत्वं शून्यवादिना वस्तुवृत्त्या तावदेष्टव्यम् । तच्चासौ प्रमाणात् अभिमन्यते अप्रमाणाद्वा ? न तावदप्रमाणात् , तस्याकिञ्चित्करत्वात् । अथ प्रमाणात् , तन्न अवास्तवत्वग्राहकं प्रमाणं सांवृतमसांवृतम् वा स्यात् ? यदि सांवृतम्' कथं तस्मादवास्तवाद् वास्तवस्य शून्यवादस्य सिद्धिः। तथा तदसिद्धौ च वास्तव एव समस्तोऽपि प्रमात्रादिव्यवहारः प्राप्तः। अथ तद्ग्राहक प्रमाणं स्वयमसांवृतम् , तर्हि क्षीणा प्रमात्रादिव्यवहारावास्तवत्वप्रतिज्ञा, तेनैव व्यभिचारात् । तदेवं पक्षद्वयेऽपि “इतो व्याघ्र इतस्तटी" इति न्यायेन व्यक्त एव परमार्थतः स्वाभिमतसिद्धिविरोधः।। इति काव्यार्थः ॥१७॥ सिद्ध होते हैं। इसलिये
"जो न असत् हो, न सत् हो, न सत्-असत् हो, और न सत्-असत्के अभाव रूप हो, इस प्रकार माध्यमिक ( शून्यवादी ) लोगोंका चारों कोटियोंसे रहित तत्त्वको स्वीकार करना" केवल उन्मत्त पुरुषके प्रलापकी भांति है।
तथा, शून्यवादीको प्रमाता, प्रमेय आदिकी अवास्तविकता परमार्थतः इष्ट है। यह अवास्तविकता शून्यवादी प्रमाणसे सिद्ध करते हैं, अथवा अप्रमाणसे ? अप्रमाणसे प्रमाण आदिकी असत्यता सिद्ध नहीं की जा सकती, क्योंकि अप्रमाण अकिंचित्कर है। दूसरे पक्षमें, प्रमाण आदिको अवास्तव सिद्ध करनेवाला प्रमाण स्वयं सांवृत (असत्य) है, या असांवृत (सत्य) ? यदि प्रमाण असत्य है, तो अवास्तव प्रमाणसे वास्तव शून्यवादकी स्थापना नहीं की जा सकती। तथा, शन्यवादकी सिद्धि न होने पर संपूर्ण प्रमाता, प्रमेय आदि का व्यवहार वास्तव सिद्ध हो जाता है। यदि प्रमाता आदिको अवास्तविक सिद्ध करनेवाला प्रमाण स्वयं वास्तविक है, तो प्रमाता, प्रमेय, प्रमाण और प्रमितिके व्यवहारको तो आप असत्य कहते हैं, वह नहीं बन सकता। क्योंकि उस वास्तव प्रमाणके साथ व्यभिचार होनेका दोष आता है। अतएव 'एक तरफ व्याघ्र है, दूसरी ओर नदी' इस न्यायसे प्रमाण और अप्रमाण दोनों पक्षोंके स्वीकार करनेमें शून्यवादियोंके स्वाभिमत सिद्धिका विरोध वास्तवमें स्पष्ट ही है। यह श्लोकका अर्थ है ॥१७॥
भावार्थ-शून्यवादी-सब पदार्थ शून्य हैं, क्योंकि प्रमाता, प्रमेय, प्रमाण और प्रमिति अवस्तु हैं। (क) प्रमाता (आत्मा) इन्द्रियोंका विषय नहीं हो सकता, अतएव प्रत्यक्षसे आत्माकी सिद्धि नहीं होती। अनुमान भी आत्माको सिद्ध नहीं करता, क्योंकि किसी भी हेतुसे आत्माकी सिद्धि नहीं होती। आगम परस्पर विरोधी हैं, इसलिये आगम भी आत्माको सिद्ध नहीं कर सकता। (ख) प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाणसे बाह्य पदार्थोंकी सिद्धि नहीं हो सकती। अविद्याकी वासनासे ही बाह्य पदार्थोके अभावमें घट, पट आदि पदार्थों का ज्ञान होता है, अतएव प्रमेय भी कोई पदार्थ नहीं है। (ग) प्रमेयके अभाव
१. न स्वतो नापि परतो न द्वाभ्यां नाप्यहेतुतः। उत्पन्ना जातु विद्यन्ते भावाः क्वचन केचन ॥
माध्यमिककारिकायां। २. संवृतेर्लक्षणम्
अभूतं ख्यापयत्यर्थं भूतमावृत्य वर्तते । अविद्या जायमानेव कामलातंकवृत्तिवत्
बोधिचर्यावतारपञ्जिकायाम् ३५२