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अन्य. यो. व्य. श्लोक १८] स्याद्वादमञ्जरी
१८१ मरणकालभावि" इति भवपरम्परासिद्धये प्रमाणमुक्तम् , तद्व्यर्थम् ; चित्तक्षणानां निरवशेषनाशिनां चित्तान्तरप्रतिसंधानायोगात् । द्वयोरवस्थितयोहि प्रतिसंधानमुभयानुगामिना केनचित् क्रियते । यश्चानयोः प्रतिसंधाता, स तेन नाभ्युपगम्यते । स ह्यात्मान्वयी ॥
न च प्रतिसंधत्ते इत्यस्य जनयतीत्यर्थः, कार्य हेतुप्रसङ्गात् । तेन वादिनास्य हेतोः स्वभावहेतुत्वेनोक्तत्वात् । स्वभावहेतुश्च तादात्म्ये सति भवति । भिन्नकाल-भाविनोश्च चित्तचित्तान्तरयोः कुतस्तादात्म्यम् । युगपद्भाविनोश्च प्रतिसन्धेयप्रतिसन्धायकत्वाभावापत्तिः, युगपद्भावित्वेऽविशिष्टेऽपि किमत्र नियामकम् , यदेकः प्रतिसन्धायकोऽपरश्च प्रतिसन्धेय इति । अस्तु वा प्रतिसन्धानस्य जननमर्थः। सोऽप्यनुपपन्नः। तुल्यकालत्वे हेतुफलभावस्याभावात् । भिन्नकालत्वे च पूर्वचित्तक्षणस्य विनष्टत्वात् उत्तरचित्तक्षणः कथमुपादानमन्तरेणोत्पद्यताम् । इति यकिञ्चिदेतत् ॥
तथा प्रमोक्षभङ्गदोषः। प्रकर्षणापुनर्भावेन कर्मबन्धनाद् मोक्षो मुक्तिः प्रमोक्षः। तस्यापि भङ्गः प्राप्नोति । तन्मते तावदात्मैव नास्ति । कः प्रेत्य सुखीभवनाथ यतिष्यते । ज्ञानक्षणोऽपि संसारी कथमपरज्ञानक्षणसुखीभवनाय घटिष्यते । न हि दुःखी देवदत्तो यज्ञदत्तसुखाय चेष्टमानो दृष्टः । क्षणस्य तु दुःखं स्वरसनाशित्वात् तेनैव सार्धं दध्वंसे । सन्तानस्तु न वास्तवः कश्चित् । वास्तवत्वे तु आत्माभ्युपगमप्रसङ्गः॥ चित्तक्षणके साथ संबद्ध होता है। मरणकालमें जो उत्पन्न होता है, वह चित्तक्षण होता है। अतः वह चित्तक्षण उत्तर चित्तक्षणके साथ सम्बद्ध होता है" (यच्चित्तं तच्चित्तान्तरं प्रतिसंधत्ते यथेदानींतनं चित्तं, चित्तं च मरणकालभावि), अतएव संसारकी परम्परा सिद्ध होती है। जैन-यह अनुमान व्यर्थ है क्योंकि सम्पूर्ण रूपसे विनाशको प्राप्त होनेवाले चित्तक्षणोंका अन्य चित्तक्षणोंके साथ सम्बद्ध होना घटित नहीं होता। अवस्थित रहनेवाले-संपूर्णरूपसे विनष्ट न होनेवाले-दो पदार्थोका सम्बन्ध दोनोंमें अन्वित होनेवाले किसीके द्वारा हो घटित होता है। किन्तु दो चित्तक्षणोंमें जो कोई संबन्ध करानेवाला है, उसे क्षणिकवादियोंके मतमें स्वीकार नहीं किया गया । और दोनों चित्तक्षणोंमें जो अन्वित होता है वह आत्मा है।।
शंका-'यच्चितं तच्चित्तान्तरं प्रतिसंधत्ते' यहां 'प्रतिसंधत्ते' इस क्रियापदका अर्थ 'उत्पन्न करता है,' ऐसा नहीं है । क्योंकि ऐसा अर्थ करनेसे मोक्षाकरगुप्तके वचनका अर्थ हो जाता है-'जो चित्तक्षण होता है वह अन्य चित्तको उत्पन्न करता है। इससे पूर्वचित्त द्वारा उत्पन्न उत्तर चित्तक्षणके, पूर्व चित्तक्षण का कार्यहेतु बननेका प्रसंग उपस्थित हो जाता है। परन्तु बौद्धोंने पूर्व और अपर चित्तक्षणोंमें स्वभावहेतु माना है। तथा, स्वभावहेतु तादात्म्य संबंध होनेपर ही होता है। जैसे, यह वृक्ष है, सीसम होनेसे, यहां वृक्ष और सीसमका तादात्म्य होनेसे स्वभावहेतु अनुमान है। इसलिये भिन्न-भिन्न समयमें होनेवाले पूर्व और अपर चित्तक्षणोंमें स्वभावहेतु भी नहीं बन सकता। क्योंकि यदि पूर्व और अपर चित्तक्षणको एक ही समयमें होनेवाला माना जाय, तो उनमें प्रतिसन्धेय और प्रतिसंधायकका विभाग नहीं बन सकता । तथा, प्रतिसंधानका अर्थ उत्पन्न करना भी ठीक नहीं। क्योंकि यदि पूर्व और उत्तर क्षणोंको भिन्न समयवर्ती मानो, तो पूर्व चित्तक्षणके सर्वथा नाश हो जानेपर, उपादान कारणके विना, उत्तर क्षणकी उत्पत्ति नहीं हो सकती।
(४) तथा, मोक्षके अभाव होनेका दोष उपस्थित होता है। फिरसे सद्भूत न होने रूप कर्मोके बंधनसे मुक्त होना प्रमोक्ष है । इसके भी अभाव होनेका प्रसंग आ जाता है। क्योंकि बौद्ध मतमें जब आत्मा ही नहीं है तो परलोकमें सुखी होनेके लिये कौन प्रयत्न करेगा ? क्षणमात्रमें निरन्वय विनाशको प्राप्त होनेवाला संसारी ज्ञानक्षण भी अन्य ज्ञानक्षणके सुखी होनेके लिये प्रयत्न नहीं कर सकता। क्योंकि पूर्व और अपर ज्ञान क्षणोंमें कोई संबंध नहीं रह सकता । जैसे, दुखी हुआ देवदत्त यज्ञदत्तके सुखके लिए प्रयत्न करता हुआ नहीं देखा जाता। प्रत्येक ज्ञानक्षणका दुख भी उसी क्षणके साथ नष्ट हो जाता है। यदि सब ज्ञानक्षणोंमें सुख-दुख