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अन्य. यो. व्य. श्लोक १६ ] स्याद्वादमञ्जरी विधातृत्वात् । सुगतेन्द्रजालं सर्वमिदं विलूनशीर्णम् । पूर्व विलूनं पश्चात् शीर्णं विलूनशीर्णम् । यथा किञ्चित् तृणस्तम्बादि विलूनमेव शीर्यते विनश्यति, एवं तत्कल्पितमिदमिन्द्रजालं तृणप्रायं धारालयुक्तिशस्त्रिकया' छिन्नं सद्विशीर्यत इति । अथवा यथा निपुणेन्द्रजालिककल्पितमिन्द्रजालमवास्तवतत्तद्वस्त्वद्भुततोपदर्शनेन तथाविधं बुद्धिदुर्विदग्धं जनं विप्रतार्य पश्चादिन्द्रधनुरिव निरवयवं विलूनशीर्णतां कलयति, तथा सुगतपरिकल्पितं तत्तत्प्रमाणतत्तत्फलाभेदक्षणक्षयज्ञानाथहेतुकत्वज्ञानाद्वंताभ्युपगमादि सर्व प्रमाणानभिज्ञं लोक व्यामोहयमानमपि युक्त्या विचार्यमाणं विशरारुतामेव सेवत इति । अत्र च सुगतशब्द उपहासार्थः। सौगता हि शोभनं गतं ज्ञानमस्येति सुगतं इत्युशन्ति । ततश्चाहो तस्य शोभनज्ञानता, येनेत्थमयुक्तियुक्तमुक्तम् ॥ इति काव्यार्थः ॥१६॥
प्रकार बाजीगरका इन्द्रजाल मिथ्या होनेसे थोड़े समयके लिये अद्भुत-अद्भुत वस्तुओंका प्रदर्शन करके भोले लोगोंको ठग कर इन्द्रधनुषकी तरह विलीन हो जाता है, उसी प्रकार 'प्रमाण और फल अभिन्न है', 'सब पदार्थ क्षणिक हैं,' 'ज्ञान और पदार्थमें परस्पर अभेद है' आदि सिद्धान्तोंसे भोले प्राणियोंको व्यामोहित करनेवाले बुद्धके सिद्धान्त युक्तियोंसे जर्जरित हो जाते हैं । यह श्लोकका अर्थ है ॥
भावार्थ-इस कारिकामें बौद्धोंके चार सिद्धान्तोंपर विचार किया गया है । बौद्ध-(१) प्रमाण और प्रमिति अभिन्न हैं। क्योंकि ज्ञान ही प्रमाण और प्रमाणका फल है, कारण कि वह अधिगमरूप है। ज्ञानसे पदार्थ जाने जाते हैं, इसलिये ज्ञान प्रमाण है। तथा पदार्थोंको जाननेके अतिरिक्त ज्ञानका दूसरा कोई फल नहीं हो सकता, इसलिए ज्ञान ही प्रमाणका फल है। प्रमाण और प्रमितिमें प्रमाण कारण है, और प्रमाणका फल प्रमाणका कार्य है। जैन-(क) यदि प्रमाण और प्रमिति अभिन्न हैं, तो वे दोनों एक साथ उत्पन्न होने चाहिए। इसलिए प्रमाण और प्रमितिमें कार्य-कारण सम्बन्ध नहीं बन सकता। क्योंकि कारण सदा कार्यके पहले ही उत्पन्न होता है (ख) प्रमाण और प्रमितिको क्रमभावी मानना भी ठीक नहीं है। क्योंकि बौद्धोंके मतमें प्रत्येक वस्तु क्षण-क्षणमें नष्ट होनेवाली है। अतएव प्रमाणका निरन्वयविनाश होनेसे प्रमाणसे प्रमितिकी उत्पत्ति नहीं हो सकती। (ग) प्रमाण और प्रमितिमें कोई सम्बन्ध नहीं हो सकता, क्योंकि प्रमाण और प्रमिति दोनों क्षण-क्षणमें नष्ट होनेवाले हैं। तथा प्रमाण और प्रमितिमें रहनेवाले कार्य-कारण सम्बन्धका ज्ञान दो वस्तुओंके ज्ञान होनेपर ही हो सकता है।
सौत्रान्तिक बौद्ध-हम प्रमाण और प्रमितिमें व्यवस्थाप्य-व्यवस्थापक सम्बन्ध मानते हैं, कार्यकारण सम्बन्ध नहीं। ज्ञान पदार्थको जानते समय पदार्थके आकारको धारण करके पदार्थका ज्ञान करता है । वास्तवमें चक्षु आदि इन्द्रियोंसे पदार्थोंका ज्ञान नहीं होता। जिस समय ज्ञानमें अमुक पदार्थके आकारका अनुभव होता है, उस समय उस पदार्थका ज्ञान होता है। इसलिए प्रमाण प्रमितिको उत्पन्न नहीं करता, किन्तु वह प्रमितिकी व्यवस्था करता है। जिस समय ज्ञान नील घटके आकार होकर नील घटको जानता है, उस समय जानमें नील घटका सारूप्य व्यवस्थापक है, और घटका नीलरूप ज्ञान व्यवस्थाप्य है। पदार्थोंका जाननेवाला ज्ञान नील घटके आकारको धारण करके ही नील घटको जानता है। अतएव प्रमाण
और प्रमितिमें व्यवस्थाप्य-व्यवस्थापक सम्बन्ध स्वीकार करनेसे एक ही वस्तुमें प्रमाण और प्रमितिके माननेसे विरोध नहीं आता। जैन-(क) निरंश क्षणिक विज्ञानमें व्यवस्थाप्य-व्यवस्थापक सम्बन्ध नहीं बन सकता। क्योंकि व्यवस्थाप्य-व्यवस्थापक सम्बन्ध दो पदार्थों में ही रह सकता है। (ख) ज्ञानको अर्थाकार मानने में ज्ञानको जड़ प्रमेयके आकार माननेसे ज्ञानको भी जड़ मानना चाहिए। तथा, ज्ञानको पदार्थाकार मानने में 'यह नील पदार्थ है' ऐसा ज्ञान न होकर 'मैं नील हूँ' इस प्रकारका ज्ञान होना चाहिये । तथा जल-चन्द्रके
१ तीक्ष्णधारायुक्तशस्त्रिका । २ विशीर्णशीलता।