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श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लोक १६ अथास्ति तावदारोपनियमः। न च कारणविशेषमन्तरेण कार्यविशेषो घंटते । वाह्यश्चार्थो नास्ति । तेन वासनानामेव वैचित्र्यं तत्र हेतुरिति चेत् , तद्वासनावैचित्र्यं वोधाकारादन्यत् , अनन्यद्वा ? अनन्यञ्चेत् , बोधाकारस्यैकत्वात्कस्तासां परस्परतो विशेषः । अन्यच्चेत् , अर्थे कः प्रद्वेपः, येन सर्वलोकप्रतीतिरपस्यते ? तदेवं सिद्धो ज्ञानार्थयोर्भेदः ॥
तथा च प्रयोगः। विवादाध्यासितं नीलादि ज्ञानाद्वयतिरिक्त, विरुद्धधर्माध्यस्तत्वात् । विरुद्धधर्माध्यासश्च ज्ञानस्य शरीरान्तः, अर्थस्य च बहिः; ज्ञानस्यापरकाले, अर्थस्य च पूर्वकाले वृत्तिमत्त्वात् ; ज्ञानस्यात्मनः सकाशात् , अर्थस्य च स्वकारणेभ्य उत्पत्तेः। ज्ञानस्य प्रकाशरूपत्वात् , अर्थस्य च जडरूपत्वादिति । अतो न ज्ञानाद्वैतेऽभ्युपगम्यमाने बहिरनुभूयमानार्थप्रतीतिः कथमपि सङ्गतिमङ्गति । न च दृष्टमपह्नोतुं शक्यमिति ।। ___अत एवाह स्तुतिकारः-'न संविदद्वैतपथेऽर्थसंवित्' इति । सम्यगवैपरीत्येन विद्यतेऽवगम्यते वस्तुस्वरूपमनयेति संवित् । स्वसंवेदनपक्षे तु संवेदनं संवित् ज्ञानम् , तस्या अद्वैतम् , द्वयोर्भावो, द्विता, द्वितैव द्वैतं, प्रज्ञादित्वात् स्वार्थिकेऽणि'। न द्वैतमद्वैतम् ; बाह्यार्थप्रतिक्षेपादेकत्वं । संविदद्वैतं ज्ञानमेवैकं तात्त्विकं न बाह्योऽर्थ इत्यभ्युपगम्यत इत्यर्थः। तस्य पन्थाः मार्गः संविदद्वैतपथस्तस्मिन् ज्ञानाद्वैतवादपक्ष इति यावत् । किमित्याह । नार्थसंवित् । येयं बहिर्मुखतयार्थप्रतीतिः साक्षादनुभूयते सा न घटते इत्युपस्कारः। एतच्चानन्तरमेव भावितम् ।।
एवं च स्थिते सति किमित्याह । विलूनशीण सुगतेन्द्रजालम् इति । सुगतो मायापुत्रः । तस्य सम्बन्धि तेन परिकल्पितं क्षणक्षयादि वस्तुजातम् । इन्द्रजालमिवेन्द्रजालं, मतिव्यामोह
विज्ञानवादी-पदार्थक प्रतिनियत स्थानका निश्चय होता है। विशिष्ट कारणके विना विशिष्ट कार्यकी सिद्धि नहीं होती। और बाह्य पदार्थका अस्तित्त्व नहीं । अतएव पदार्थक प्रतिनियत स्थानके निश्चय करने में वासना-वैचित्र्य ही कारण है। जैन-हम पूछते हैं कि यह वासना-वैचित्र्य ज्ञानके आकारसे भिन्न है, अथवा अभिन्न ? यदि वासना वैचित्र्य ज्ञानके आकारसे अभिन्न है तो ज्ञानका आकार एकरूप होनेसे नानाविध वासनाओंमें परस्पर भेद कैसे हो सकता है ? यदि वासना-वैचित्र्य ज्ञानके आकारसे भिन्न है, तो ज्ञानसे बाह्य पदार्थोंका भेद मानने में ही क्या आपत्ति है ? अतएव ज्ञान और पदार्थको परस्पर भिन्न ही मानना चाहिये ।
प्रयोग निम्न प्रकार है-विवादाध्यासित नील आदि पदार्थ ज्ञानसे भिन्न हैं; क्योंकि ज्ञान पदार्थ विरुद्ध धर्मोसे यक्त है । ज्ञान शरीरके अन्दर होता है, और पदार्थ शरीरके बाहर । पदार्थदर्शनके उत्तरकालमें पदार्थज्ञानका सद्भाव होता है, तथा पदार्थज्ञानकी उत्पत्तिके पूर्वकालमें ज्ञानका विषय बननेवाले पदार्थका सद्भाव रहता है । ज्ञान आत्मासे उत्पन्न होता है, पदार्थ अपने-अपने कारणोंसे उत्पन्न होते हैं। ज्ञान प्रकाशरूप है, ज्ञेय पदार्थ जड़रूप हैं। अतएव ज्ञान और पदार्थ परस्पर विरुद्ध धर्मोंसे युक्त हैं। इसलिये ज्ञानाद्वैतके स्वीकार करनेपर बाह्यरूपसे अनुभव किये जानेवाले पदार्थोंका ज्ञान संगत नहीं हो सकता। तथा, प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाले बाह्य पदार्थोंका निषेध करना शक्य नहीं। ___अतएव स्तुतिकार हेमचन्द्र आचार्यने कहा है कि 'ज्ञानाद्वैतके स्वीकार करनेपर पदार्थोंका ज्ञान नहीं हो सकता' (न संविदद्वैतपथेऽर्थसंवित् )। जिससे यथार्थ रीतिसे वस्तुका ज्ञान हो, उसे ज्ञान ( संवित् ) कहते हैं। बाह्य पदार्थोंका निषेध करके केवल एक ज्ञानका अस्तित्व स्वीकार करना अद्वैत है। इस ज्ञानाद्वैतके माननेपर पदार्थोंको बाह्य रूपसे प्रतीति नहीं हो सकती।
___ अतएव 'सम्पूर्ण पदार्थ क्षणस्थायी हैं,' 'ज्ञान और पदार्थ परस्पर अभिन्न हैं' आदि मायापुत्र बुद्धके सिद्धान्त बुद्धिमें भ्रम उत्पन्न करनेवाले होनेके कारण इन्द्रजालकी तरह विशीर्ण हो जाते हैं। जिस
१ प्रज्ञादिभ्योऽण । हैमसूत्रे ७-२-१६५ ।