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श्रीमद्राजचन्द्र जेनशास्त्रमालायां
[ अन्य. यो. व्य. श्लोक १६
अथोत्तरार्द्धं व्याख्यातुमुपक्रम्यते । तत्र च बाह्यार्थनिरपेक्षं ज्ञानाद्वैतमेव ये बौद्धविशेषा मन्वते तेषां प्रतिक्षेपः । तन्मतं चेदम् । ग्राह्यग्राहकादिकलङ्कानङ्कितं निष्प्रपञ्चं ज्ञानमात्रं परमार्थसत् । बाह्यार्थस्तु विचारमेव न क्षमते । तथाहि । कोऽयं बाह्योऽर्थः ? किं परमाणुरूपः स्थूलावयविरूपो वा ? न तावत् परमाणुरूपः प्रमाणाभावात् । प्रमाणं हि प्रत्यक्षमनुमानं वा ? न तावत्प्रत्यक्षं तत्साधनबद्धकक्षम् । तद्धि योगिनां' स्यात् अस्मदादीनां वा ? नाद्यम्, अत्यन्तविप्रकृष्टतया श्रद्धामात्रगम्यत्वात् । न द्वितीयम्, अनुभवबाधितत्वात् । न हि वयमयं परमाणुरयं परमाणुरिति स्वप्नेऽपि प्रतीमः, स्तम्भोऽयं कुम्भोऽयमित्येवमेव नः सदैव संवेदनोदयात् । नाप्यनुमानेन तत्सिद्धिः, अणूनामतीन्द्रियत्वेन तैः सहाविनाभावस्य क्वापि लिङ्गे ग्रहीतुमशक्यत्वात् ॥
किञ्च, अमी नित्या अनित्या वा स्युः । नित्याश्चेत् क्रमेणार्थक्रियाकारिणो युगपद्वा ? न क्रमेण, स्वभावभेदेनानित्यत्वापत्तेः । न युगपत्, एकक्षण एव कृत्स्नार्थक्रियाकरणात् क्षणान्तरे तदभावादसत्त्वापत्तिः। अनित्याश्चेत्, क्षणिकाः कालान्तरस्थायिनो वा ? क्षणिकाश्चेत्, सहेतुका निर्हेतुका वा ? निर्हेतुकाश्चेत्, नित्यं सत्त्वमसत्त्वं वा स्यात्, निरपेक्षत्वात् । अपेक्षातो हि कादाचित्कत्वम् । सहेतुकाश्चेत्, किं तेषां स्थूलं किंचित् कारणं परमाणव
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( ४ ) ज्ञानाद्वैतवादी ( पूर्वपक्ष ) - ग्राह्य, ग्राहक आदिसे रहित निष्प्रपंच ज्ञान मात्र ही परमार्थसत् है, क्योंकि बाह्य पदार्थोंका अभाव है । हम पूछते हैं कि परमाणुओं के समूहको बाह्य पदार्थ कहते हैं, अथवा स्थूल अवयवरूप एक पिंडको ? यदि परमाणुओंके समूहको बाह्य अर्थ कहते हैं, तो यह ठीक नहीं । क्योंकि प्रत्यक्ष अथवा अनुमान प्रमाणसे परमाणुरूप बाह्य पदार्थों का ज्ञान नहीं होता । योगिप्रत्यक्ष अत्यन्त परोक्ष है, और वह केवल श्रद्धाका ही विषय है, इसलिये योगिप्रत्यक्षसे परमाणुरूप बाह्य पदार्थोंका ज्ञान नहीं होता । इन्द्रियप्रत्यक्षसे भी बाह्य पदार्थोंका ज्ञान नहीं होता, क्योंकि इन्द्रियप्रत्यक्षसे परमाणुरूप सूक्ष्म पदार्थों का ज्ञान नहीं हो सकता, उससे केवल स्तंभ ( खंभा ) और कुंभ ( घड़ा ) रूप स्थूल पदार्थों का ही ज्ञान हो सकता है । अनुमानसे भी परमाणुरूप बाह्य पदार्थोंका ज्ञान नहीं होता, क्योंकि परमाणु अतीन्द्रिय पदार्थ हैं, इसलिये परमाणुरूप साध्यका प्रत्यक्षसे ज्ञान न होनेके कारण, साध्यके अविनाभावी हेतुका भी ज्ञान नहीं हो सकता ।
तथा, परमाणु नित्य हैं, या अनित्य ? यदि नित्य हैं तो क्रमसे अर्थक्रिया करते हैं, अथवा एक साथ ? यदि परमाणु नित्य होकर क्रमसे अर्थक्रिया करते हैं, तो यह ठोक नहीं। क्योंकि परमाणुओंमें क्रमसे अर्थक्रिया माननेमें परमाणुओंमें स्वभावका भेद मानना पड़ेगा 1 तथा परमाणुओंमें स्वभाव-भेद मानने से परमाणुओंको नित्य नहीं कह सकते । परमाणु एक साथ भी अर्थक्रिया नहीं कर सकते । क्योंकि यदि परमाणु एक साथ समस्त अर्थक्रिया करने लगें, तो विश्वमें जो क्रम-क्रमसे परिवर्तन दृष्टिगोचर होता है, वह नहीं होना चाहिये । तथा समस्त अर्थक्रियाके एक ही समय में समाप्त हो जानेसे दूसरे क्षण में अर्थक्रियाका अभाव होगा, इसलिये परमाणुओंका अस्तित्व ही नष्ट हो जायगा । यदि परमाणु अनित्य हैं, तो वे क्षणिक हैं, अथवा एक क्षणके बाद भी रहते हैं ? यदि परमाणु क्षणिक हैं, तो वे किसी कारण से उत्पन्न हुए हैं ? या किसी कारणसे उत्पन्न नहीं हुए हैं ? यदि परमाणु किसी कारण से उत्पन्न नहीं हुए हैं तो उन परमाणुओंका या तो नित्यकाल अस्तित्व होगा ( विनश्वर न होनेसे वे क्षणिक नहीं होंगे ) ? अथवा नित्यकाल उनका अभाव होगा ( उत्पादक, उपादान और निमित्त कारणोंका सदा अभाव होनेसे उन परमाणुओंका सभी कालोंमें अभाव होगा ) ? क्योंकि निर्हेतुक पदार्थ उत्पत्ति के कारणोंकी अपेक्षा नहीं रखते । कादाचित्कत्व - अनित्यत्व — उत्पादक कारणोंकी अपेक्षा रखने ही होता है । ( तात्पर्य यह है कि परमाणुओंको अनित्य भी
१. भूतार्थभावनाप्रकर्षपर्यन्तजं योगिज्ञानं चेति - न्यायबिन्दी १-११.