________________
११६
श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लोक १३ यञ्च भाव्यम् । उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ।" "यदेजति, यन्नजति, यद् दूरे, यदन्तिके । यदन्तरस्य सर्वस्य यदुत सर्वस्यास्य बाह्यतः' इत्यादिः। "श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः अनुमन्तव्यः" इत्यादिवेदवाक्यैरपि तत्सिद्धेः । कृत्रिमेणापि आगमेन तस्यैव प्रतिपादनात् । उक्तं च
"सर्व वै खल्विदं ब्रह्म नेह नानाऽस्ति किञ्चन ।
आरामं तस्य पश्यन्ति न तत् पश्यति कश्चन" । इति प्रमाणतस्तस्यैव सिद्धेः । परमपुरुष एक एव तत्त्वम्, सकलभेदानां तद्विवर्तत्वात् । तथाहि । सर्वे भावा ब्रह्मविवर्ताः सत्त्वैकरूपेणान्वितत्वात् । यद् यद्र पेणान्वितं तत् तदात्मकमेव । यथा घटघटीशरावोदश्चनादयो मृद्र पेणैकेनान्विता मृद्विवर्ताः । सत्त्वैकरूपेणान्वितं च सकलं वस्तु । इति सिद्धं ब्रह्मविवर्तित्वं निखिलभेदानामिति ॥
__ तदेतत् सर्वं मदिरारसास्वादगद्गदोद्गदितमिवाभासते, विचारासहत्वात् । सर्व हि वस्तु प्रमाणसिद्धं न तु वाङ्मात्रेण । अद्वैतमते च प्रमाणमेव नास्ति, तत्सद्भावे द्वैतप्रसङ्गात् । अद्वैतसाधकस्य प्रमाणस्य द्वितीयस्य सद्भावात् । अथ मतम् लोकप्रत्यायनाय तदपेक्षया प्रमाणमप्यभ्युपगम्यते । तदसत् । तन्मते लोकस्यैवासम्भवात्, एकस्यैव नित्यनिरंशस्य परब्रह्मण एव सत्त्वात् ॥
_अथास्तु यथाकथञ्चित् प्रमाणमपि तत्किं प्रत्यक्षमनुमानमागमो वा तत्साधक प्रमाणमुररीक्रियते । न तावत् प्रत्यक्षम् । तस्य समस्तवस्तुजातगतभेदस्यैव प्रकाशकत्वात् । व्याप्त है और सबके बाह्य है, वह सब ब्रह्म ही है" आदि । तथा, "अतएव ऐसे ब्रह्मको सुनना, मनन करना, निरन्तर स्मरण करना, और पुनः पुनः मनन करना चाहिये," आदि वेदके वाक्योंसे ब्रह्मकी सिद्धि होती है। स्मृति आदि पौरुषेय आगम भी ब्रह्मकी सिद्धि करते हैं। कहा भी है
यह सब ब्रह्मका ही स्वरूप है, ब्रह्मको छोड़ कर नाना रूप कुछ नहीं है। ब्रह्मकी पर्यायोंको सब देखते है, परन्तु ब्रह्म किसीको दिखाई नहीं देता।
इस प्रकार परब्रह्मके प्रत्यक्ष, अनुमान और आगमसे सिद्ध होनेपर परब्रह्म ही एक तत्त्व सिद्ध होता है; दृश्यमान सम्पूर्ण भेद इस ब्रह्मकी ही पर्याय है। अतएव 'सम्पूर्ण पदार्थ ब्रह्मकी पर्याय है, क्योंकि संपूर्ण पदार्थ सत्तात्मक एक रूप से अन्वित है। जो जिस रूपसे अन्वित होता है, वह उसी रूप होता है जैसे घट, घटी, शराव आदि मिट्टीके बर्तन मिट्टीके एक स्वरूपसे अन्वित हैं, इसलिये सब मिट्टी की पर्याय हैं । सम्पूर्ण पदार्थ एक सत्ता स्वरूपसे अन्वित हैं, इसलिये सम्पूर्ण पदार्थ एक ब्रह्मकी ही पर्याय हैं।
जैन-यह कथन मद्यपायीके प्रलापके समान प्रतीत होता है, क्योंकि यह कथन विचार को सह्य नहीं है। सभी वस्तुओं की सिद्धि प्रमाणसे होती है, केवल कथनमात्रसे नहीं। तथा, अद्वैतवादियोंके मतमें कोई प्रमाण ही नहीं बन सकता, क्योंकि ब्रह्मसे भिन्न किसी प्रमाणके माननेपर द्वैत मानना पड़ता है। अद्वैतका साधक कोई अन्य प्रमाण नहीं है। यदि आप कहें कि लोगोंको समझानेके लिये उनकी अपेक्षासे प्रमाण स्वीकार किया जाता है। वास्तवमें एक ब्रह्म ही सत्य है, तो यह भी ठीक नहीं। क्योंकि अद्वैतवादियोंके मतमें एक नित्य निरंश परब्रह्म ही सत्य है, इसलिये उनके मतमें लोक ही संभव नहीं।
यदि अद्वैत मत में किसी प्रकार प्रमाणका सद्भाव मान भी लिया जाय, तो अद्वैत के साधक जिस प्रमाण को स्वीकार किया जाता है, वह प्रमाण प्रत्यक्ष रूप है, या अनुमान रूप है अथवा आगम रूप?
१. ऋग्वेदपुरुषसूक्ते । २. ईशावास्योपनिषदि । ३. बृहदारण्यक० उ० । युक्तिभिरनुचिन्तनम् मननं । श्रुतस्यार्थस्य नैरन्तर्येण दीर्घकालमनुसंधानम् निदिध्यासनं । ४. मैन्युपनिषदि । ५. बृहदारण्यक उ० ४.४.१९;. कठोपनिषदि ४.११ । ६. बृहदारण्यक उ०४.३.१४ ।