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श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लोक १५ विवेकख्यातिश्च पुरुषार्थः । तस्यां जातायां निवर्तते, कृतकार्यत्वात् ।
"रङ्गस्य दर्शयित्वा निवर्तते नर्तकी यथा नृत्यात् ।
पुरुषस्य तथात्मानं प्रकाश्य विनिवर्तते प्रकृतिः ॥ इति वचनादिति चेत् । नैवम् । तस्या अचेतनाया विमृश्यकारित्वाभावात् । यथेयं कृतेऽपि शब्दाद्युपलम्भे पुनस्तदर्थं प्रवर्तते, तथा विवेकख्यातौ कृतायामपि पुनस्तदर्थं प्रवर्तिष्यते। प्रवृत्तिलक्षणस्य स्वभावस्यानपेतत्वात् । नर्तकीदृष्टान्तस्तु स्वेष्टविघातकारी। यथा हि नर्तकी नृत्यं पारिषदेभ्यो दर्शयित्वा निवृत्तापि पुनस्तत्कुतूहलात् प्रवर्तते, तथा प्रकृतिरपि पुरुषायात्मानं दर्शयित्वा निवृत्तापि पुनः कथं न प्रवर्ततामिति । तस्मात् कृत्स्नकर्मक्षये पुरुपस्यैव मोक्ष इति प्रतिपत्तव्यम् ॥
एवमन्यासामपि तत्कल्पनानां तमोमोहमहामोहतामिस्रान्धतामिस्रभेदात् पञ्चधा अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशरूपो विपर्ययः। ब्राह्मप्राजापत्यसौम्येन्द्रगान्धर्वयक्षराक्षसपैशाचभेदादष्टविधो दैवः सर्गः ! पशुमृगपक्षिसरीसृपस्थावरभेदात् पञ्चविधस्तैर्यग्योनः । ब्राह्मणत्वाद्यवान्तरभेदाविवक्षया चैक विधो मानुषः । इति चतुर्दशधा भूतसर्गः। बाधिर्यकुण्ठतान्धत्वजड
प्रकृतिकी प्रवृत्ति केवल पुरुषार्थके लिये उत्पन्न होती है, और पुरुष और प्रकृतिमें भेद-दृष्टि होना ही पुरुपार्थ है। इस भेद-दृष्टिके उत्पन्न होनेपर प्रकृति कृतकृत्य होकर विश्राम लेती है । कहा भी है
"जिस प्रकार रंगभूमिमें अपना नृत्य दिखाकर नटी निवृत्त होती है उसी तरह प्रकृति पुरुषको अपना रूप दिखाकर निवृत्त होती है।"
समाधान-प्रकृति अचेतन है, अतएव वह विचारपूर्वक प्रवृत्ति नहीं कर सकती। तथा जिस प्रकार विषयका एक बार उपभोग करनेपर भी फिरसे उसी विषयके लिये प्रकृतिको प्रवृत्ति होती है ( क्योंकि प्रकृति प्रवृत्तिशील है), वैसे ही विवेकख्याति होनेपर भी फिरसे पुरुषमें प्रकृतिकी प्रवृत्ति होना चाहिये, क्योंकि प्रकृतिका स्वभाव प्रवृत्ति करनेका है। तथा, नटीका दृष्टांत उलटा आप लोगोंके सिद्धांतका घातक है। क्योंकि दर्शकोंको एक बार नृत्य दिखाकर चले जानेपर भी अच्छा नृत्य होनेसे दर्शक लोगोंके आग्रहसे नर्तको फिरसे अपना नाच दिखाने लगती है, वैसे ही पुरुषको अपना स्वरूप दिखाकर प्रकृतिके निवृत्त हो जानेपर भी प्रकृतिको फिरसे प्रवृत्ति करना चाहिये। अतएव सम्पूर्ण कर्मोंका क्षय होनेपर पुरुषको ही मोक्ष होता है, यह मानना चाहिये।
इसके अतिरिक्त, सांख्य लोगोंकी निम्न कल्पनायें भी विरुद्ध हैं : (क) अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष तथा अभिनिवेश रूप तम, मोह, महामोह, तामिस्र और अंधतामिस्र, यह पांच प्रकारका विपर्यय है । ( तम और मोहके आठ-आठ, महामोहके दस, तामिस्र और अंधतामिस्रके अठारह-अठारह भेद होनेसे यह विपर्यय कुल ६२ प्रकारका होता है)। (ख) ब्राह्म, प्राजापत्य, सौम्य, इन्द्र, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, पैशाच ये आठ प्रकारके देव; पशु, मृग, पक्षी, सर्प, स्थावर ये पाँच प्रकारके तिथंच ( अचेतन घट आदि भी स्थावरमें हो गर्भित होते
१. सांख्यकारिका ५९। २. सांख्यतत्त्वकौमुदी कारिका ४७ ।
३. अनित्याशुचिदुःखानात्मसु नित्यशुचिसुखात्मख्यातिरविद्या। दृग्दर्शनशक्त्योरेकात्मतेवास्मिता। सुखानुशयी रागः । दुःखानुशयी द्वेषः । स्वरसवाही विदुषोऽपि तथारूढोऽभिनिवेशः । पातंजलयोगसूत्रे २-५, ६,७,८,९। ४. घटादयस्त्वशरीरत्वेऽपि स्थावरा एव । इति वाचस्पतिमिश्रः ।
मनुष्यजातिरेकैव जातिनामोदयोद्भवा ।
वृत्तिभेदाद्धि तद्भदाः चातुर्विध्यमिहाश्नुते ॥ जिनसेनकृत-आदिपुराणे ३२-४६ ६. सांख्यकारिकागौडपादभाष्ये सांख्यतत्त्वकौमुद्यां च कारिका ५३ ।