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अन्य.यो. व्य. श्लोक १५] स्याद्वादमञ्जरी
१३९ व्यतिरेकेण प्रकृत्युपधानेऽप्यन्यथात्वानुपपत्तेः, अप्रच्युतप्राचीनरूपस्य च सुखदुःखादिभोगव्यपदेशानहत्वात् । तत्प्रच्यवे च प्राक्तनरूपत्यागेनोत्तररूपाध्यासिततया सक्रियत्वापत्तिः । स्फटिकादावपि तथा परिणामेनैव प्रतिबिम्बोदयसमर्थनात् , अन्यथा कथमन्धोपलादौ न प्रतिबिम्वः । तथापरिणामाभ्युपगमे च वलादायातं चिच्छक्तेः कर्तृत्वं साक्षाद्भोक्तृत्वं च ।।
अथ "अपरिणामिनी भोक्तृशक्तिरप्रतिसंक्रमा च परिणामिन्यर्थे प्रतिसंक्रान्ते च तद्वृत्तिमनुभवति" इति पतञ्जलिवचनादौपचारिक एवायं प्रतिसंक्रम इति चेत् , तर्हि "उपचारस्तत्त्वचिन्तायामनुपयोगी" इति प्रेक्षावतामनुपादेय एवायम् । तथा च प्रतिप्राणिप्रतीतं सुखदुःखादिसंवेदनं निराश्रयमेव स्यात् । न चेदं बुद्धरुपपन्नम् । तस्या जडत्वेनाभ्युपगमात् ।
___ अतएव जडा च बुद्धिः इत्यपि विरुद्धम् । न हि जडस्वरूपायां बुद्धौ विषयावसायः साध्यमानः साधीयस्तां दधाति । ननूक्तमचेतनापि बुद्धिश्चिच्छक्तिसान्निध्याच्चेतनावतीवावभासत इति । सत्यमुक्तम् अयुक्तं तूक्तम् । न हि चैतन्यवति पुरुषादौ प्रतिसंक्रान्ते दर्पणस्य चैतन्यापत्तिः। चैतन्याचैतन्ययोरपरावर्तिस्वभावत्वेन शक्रेणाप्यन्यथाकर्तुमशक्यत्वात् । किञ्च अचेतनापि चेतनावतीव प्रतिभासत इति इवशब्देनारोपो ध्वन्यते । न चारोपोऽर्थक्रियासमर्थः ।
प्रतिविम्बित होना मूर्त पदार्थका स्वभाव है। तथा, (चित्शक्तिका) मूर्त पदार्थके रससे परिणमनका अभाव होनेपर उसका ( बुद्धिमें ) प्रतिविम्बित होना भी युक्त नहीं । प्रकृतिरूप ( बुद्धिरस ) उपाधिमें भी-उपाधिके विषयमें भी-कथंचित् सक्रिय होनेके स्वभावके अभावमें, अन्यप्रकाररूपता अर्थात् चैतन्यशक्तिके प्रतिबिम्बसे युक्त होनेकी सिद्धिके अभावमें, प्राचीन-प्राक्तनरूपसे-प्रच्युत न हुआ उपाधि-सुख-दुःखादि भोक्तृसंज्ञाके योग्य न होनेसे, तथा प्राचीनरूपके त्यागसे, प्राक्तन रूपका त्याग करके, उत्तररूपसे अध्यासित होनेरूप क्रियारूप में परिणत होनेसे सक्रियत्वकी सिद्धि होती है। स्फटिक आदिके भी प्राक्तनरूपके त्यागपूर्वक उत्तररूपसे अध्यासित होनेरूप क्रियारूपमें परिणत होनेसे ही ( स्फटिकमें ) प्रतिविम्वके प्रादुर्भावका समर्थन किये जानेसे सक्रियत्वको सिद्धि होती है। यदि ऐसा न होता अर्थात् प्राक्तनरूपके त्याग और उत्तररूपके ग्रहणके विना स्फटिकमें प्रतिविम्वका प्रादुर्भाव होता तो अंध पाषाण आदिमें प्रतिबिम्बका प्रादुर्भाव क्यों न होता? तथा परिणामको स्वीकार करनेपर चितशक्तिका कर्तृत्व और साक्षात् भोक्तृत्व जबरन स्वीकार करना पड़ेगा।
शंका-"भोक्ता (पुरुष) की परिणाम और प्रतिबिंबसे रहित शक्तिमें परिणामी पदार्थके प्रतिबिंबित होने पर वह पदार्थजनित अवस्थाका अनुभव करती है"-पतंजलिके इस वचनके अनुसार प्रतिसंक्रमशून्य पुरुषमें होनेवाला प्रतिसंक्रम (प्रतिबिंबित होना) औपचारिक ही है। समाधान-"तत्त्वोंका निर्णय करने में उपचार अनुपयोगी होता है", इसलिये यह औपचारिक प्रतिसंक्रम बुद्धिमानोंको मान्य नहीं हो सकता। ऐसी अवस्थामें, अर्थात्, परिणामी पदार्थका प्रतिसंक्रम औपचारिक होनेसे प्रत्येक आत्मामें पाया जानेवाला सुखदुखका अनुभव निराधार ही होना चाहिये, क्योंकि वास्तवमें सुख-दुखका आत्माके साथ संबंध नहीं है । यदि कहो कि सुख-दुखका ज्ञान बुद्धिजन्य है तो यह भी ठीक नहीं। क्योंकि सांख्यमतमें बुद्धि जड़ मानी गई है।
(२) सुख, दुख आदिका अनुभव करनेवाली होने पर बुद्धिको जड़ मानना भी विरुद्ध है। क्योंकि यदि बुद्धिको जड़ माना जाय तो बुद्धिसे ज्ञेय पदार्थोंका ज्ञान नहीं हो सकता। शंका-बुद्धि अचेतन होकर भी चेतनाशक्तिके सम्बन्धसे चेतनायुक्त जैसी प्रतिभासित होती है। समाधान-यह सत्य है, किन्तु अयुक्त है। चैतन्ययुक्त पुरुष आदिके दर्पणमें प्रतिबिम्बित होनेसे दर्पणकी चैतन्यस्वरूपसे परिणति नहीं होती। चेतना और अचेतनाका स्वभाव अपरिवर्तनीय है, उसमें इन्द्र द्वारा भी परिवर्तन नहीं हो सकता । तथा,
१. पातञ्जलयोगसूत्रोपरि व्यासभाष्ये ४-२२।