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श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लोक १५ तदुपाधिप्रवर्तनामात्रमित्यन्ये । एवं फलतदभिलाषकर्मादयोऽपि वाच्याः। एतेषां निराकरणं सपूर्वोत्तरपक्षं न्यायकुमुदचन्द्रादेवसेयम् ।। इति काव्यार्थः ॥१४॥ ___ इदानीं सांख्याभिमतप्रकृतिपुरुपादितत्त्वानां विरोधावरुद्धत्वं ख्यापयन् , तद्वालिशताविलसितानामपरिमितत्वं दर्शयति
चिदर्थशून्या च जडा च बुद्धिः शब्दादितन्मात्रजमम्बरादि ।
न बन्धमोक्षौ पुरुषस्य चेति कियजडैनै ग्रथितं विरोधि ॥१५॥ प्रकारका बताया गया है। प्रभाकर लोग नियोगवादी हैं। भट्टमीमांसक नियोगवादका खंडन करते है।) कोई प्रेरणा आदिको, और कोई तिरस्कार पूर्वक प्रेरणा करनेको ही विधि मानते हैं। इसी तरह विधिके फल, अभिलाषा और कर्म आदि भी विधिवादियोंने भिन्न भिन्न स्वीकार किये हैं। इन सव मतोंका निरूपण और उनका खंडन प्रभाचन्द्रकृत न्यायकुमुदचन्द्रोदय नामक ग्रन्थमें देखना चाहिये । यह श्लोकका अर्थ है ॥१४॥
भावार्थ-इस श्लोकमें प्रत्येक वस्तुको सामान्य-विशेप और एक-अनेक प्रतिपादन करते हुए सामान्य एकान्तवादी, विशेष एकान्तवादी, तथा परस्पर भिन्न निरपेक्ष सामान्य-विशेप वादियोंकी समीक्षा की गई है। (१) अद्वैतवेदांती, मीमांसक और सांख्योंका मत है कि वस्तु सर्वथा सामान्य है, क्योंकि विशेप सामान्यसे भिन्न प्रतिभासित नहीं होते । (२) क्षणिकवादी बौद्धोंकी मान्यता है कि प्रत्येक वस्तु सर्वथा विशेपरूप है, क्योंकि विशेषको छोड़कर सामान्य कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता, और वस्तुका अर्थक्रियाकारित्व लक्षण भी विशेषमें ही घटित होता है। (३) न्यायवैशेषिकोंका कथन है कि सामान्य-विशेष परस्पर भिन्न और निरपेक्ष हैं, अतएव सामान्य और विशेषको एक न मानकर परस्पर भिन्न स्वीकार करना चाहिये ।
जेनसिद्धांतके अनुसार उक्त तीनों सिद्धांत कथंचित् सत्य हैं । वस्तुको सर्वथा-सामान्य माननेवाले वादी द्रव्यास्तिकनयकी अपेक्षासे, सर्वथा-विशेष माननेवाले वादी पर्यायास्तिकनयकी अपेक्षासे, तथा सामान्य-विशेषको परस्पर भिन्न और निरपेक्ष माननेवाले वादी नैगमनयकी अपेक्षासे सच्चे हैं। इसलिए सामान्य-विशेषको कथंचित् भिन्न-अभिन्न ही स्वीकार करना चाहिए। क्योंकि पदार्थोंका ज्ञान करते समय सामान्य और विशेष दोनोंका ही एक साथ ज्ञान होता है, विना सामान्यके विशेष, और विना विशेषके सामान्यका कहीं भी ज्ञान नहीं होता। जैसे गौके देखनेपर हमें अनुवृत्तिरूप गौका ज्ञान होता है, वैसे ही भैंस आदिकी व्यावृत्तिरूप विशेषका भी ज्ञान होता है। इसी तरह शबला गौ कहनेपर जैसे विशेषरूप शबलत्वका ज्ञान होता है, वैसे ही गोत्वरूप सामान्यका भी ज्ञान होता है। अतएव सामान्य-विशेष कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न होनेसे सामान्य और विशेष दोनों रूप ही हैं।
इसी प्रकार वाच्य ( अर्थकी ) तरह वाचक ( शब्द ) भी सामान्य-विशेषरूप है। (यहाँ मल्लिषेणने शब्द को पौद्गलिक सिद्ध करके उसे भी सामान्य-विशेषरूप सिद्ध किया है । ) तथा, प्रत्येक वस्तुको भाव और अभावरूप मानना चाहिये, क्योंकि यदि वस्तु सर्वथा अभावरूप हो, तो उसे सर्वात्मक माननी चाहिये, और ऐसी अवस्थामें उसका कोई भी स्वभाव नहीं मानना चाहिये। अतएव प्रत्येक वस्तुको अपने स्वरूपसे सत्, और पररूपसे असत् मानना चाहिये। अतएव प्रत्येक वस्तु सापेक्ष है; इसलिये वाच्य और वाचक दोनों सामान्य-विशेष और एक-अनेकरूप हैं।
अब सांख्योंके प्रकृति, पुरुष आदि तत्त्वोंका विरोध दिखलाते हुए उन लोगोंके मतका खंडन करते हैं
श्लोकार्थ-चैतन्यस्वरूप अर्थसे रहित बुद्धि जड़रूप है; शब्द आदि पांच तन्मात्राओंसे आकाश, पृथिवी, जल, अग्नि और वायु उत्पन्न होते हैं। पुरुषके न बंध होता है और न मोक्ष-ये सब सांख्य लोगोंकी विरुद्ध कल्पनायें हैं।
१. भट्टाकलङ्कदेवकृतलघीयस्त्रयग्रन्थटीकात्मकः प्रभाचन्द्रेण प्रणीतः ।