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श्रीमद्राजचन्द्रजनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लोक १० साधाद् निरवयवत्वाद् नित्यः इति । वैधाण प्रत्यवस्थानं वैधर्म्यसमा जातिर्भवति । अनित्यः शब्दः, कृतकत्वाद्, घटवदित्यत्रैव प्रयोगे, स एव प्रतिहेतुर्वैधर्येण प्रयुज्यते नित्यः शब्दो निरक्यवत्वात् । अनित्यं हि सावयवं दृष्टम् घटादीति । न चास्ति विशेषहेतुः घटसाधात् कृतक्रत्वादनित्यः शब्दः, न पुनस्तद्वैधाद् निरवयवत्वाद् नित्य इति । उत्कर्षापकपाभ्यां प्रत्यवस्थानम् उत्कर्पापकर्षसमे जाती भवतः । तत्रैव प्रयोगे, दृष्टान्तधर्म कश्चित् साध्यधर्मिण्यापादयन् उत्कर्षसमां जातिं प्रयुक्ते । यदि घटवत् कृतकत्वादनित्यः शब्दः घटवदेव मूर्तोऽपि भवतु, न चेद् मूर्तः, घटवदनित्योऽपि मा भूदिति शव्दे धर्मान्तरोत्कर्षमापादयति । अपकर्पस्तु घटः कृतकः सन् अश्रावणो दृष्टः, एवं शब्दोऽप्यस्तु, नो चेद् घटवदनित्योऽपि मा भूदिति शब्दे श्रावणत्वधर्ममपकर्षतीति । इत्येताश्चतस्रो दिङ्मात्रदर्शनार्थं जातय उक्ताः । एवं शेषा अपि विंशतिरक्षपादशास्त्रादवसेयाः। अत्र त्वनुपयोगित्वाद् न लिखिताः।
अनित्य है, जैसे घड़ा' । इसमें दोप देनेके लिये प्रतिवादी कहता है, 'यदि कृतक रूप धर्मसे शब्द और घड़ेमें समानता है, तो निरवयव रूप धर्मसे शब्द और आकाशमें भी समानता है, अतएव शब्द आकाशके समान नित्य होना चाहिये । यहाँ वादीद्वारा शब्दको अनित्य सिद्ध करनेमें कृतकत्व हेतुका प्रतिवादीने बिलकुल खण्डन नहीं किया । और केवल दृष्टान्तकी समानता दिखानेसे साध्यका खण्डन नहीं होता। उसके लिए हेतु देना चाहिए, या वादीके हेतुका खण्डन करना चाहिये । (२) वैधhके उपसंहार करनेपर वैधर्म्य दिखला कर खण्डन करना, वैधर्म्यसमा जाति है । जैसे, 'शब्द अनित्य है, कृतक होने से, घटकी तरह'। इसके खण्डन में प्रतिवादीका कथन है, 'शब्द नित्य है, निरवयव होनेसे, आकाशकी तरह' । यहाँ प्रतिवादीका कहना है कि यदि नित्य आकाशके वैधर्म्यसे शब्द अनित्य है, तो अनित्य घटके वैधय॑से शब्दको अनित्य मानना चाहिये । परन्तु यहां कोई ऐसा नियामक नहीं है कि घटके रूप साधर्म्यसे कृतक होनेके कारण शब्द नित्य नहीं हो। अतएव इससे वादीके हेतुका कोई खण्डन नहीं होता। ( ३ ) दृष्टांतके धर्मको साध्यमें मिला कर वादीके खण्डन करनेको उत्कर्षसमा जाति कहते हैं। जैसे, वादी ने कहा, 'शब्द अनित्य है, कृतक होनेसै, घटकी तरह'। इस अनुमानमें दोष देनेके लिये प्रतिवादी कहता है, 'जैसे घटकी तरह शब्द अनित्य है, वैसे ही उसे घटकी तरह मूर्त भी मानना चाहिये । यदि शब्द मूर्त नहीं है, तो वह घटकी तरह अनित्य भी नहीं है।' यहाँ वादी घटका दृष्टान्त देकर शब्दमें अनित्यत्व सिद्ध करना चाहता है, परन्तु प्रतिवादी घटके दूसरे धर्म मूर्तत्वको शब्दमें सिद्ध करके वादीका खण्डन करता है । (४) उत्कर्पसमाको उल्टी अपकर्षसमा जाति कही जाती है। साध्यधर्मीमें से दृष्टान्तमें नहीं रहनेवाले धर्मको निकाल कर वादीके प्रति विरुद्ध भापण करनेको अपकर्षसमा जाति कहते हैं। जैसे, 'शब्द अनित्य है, कृतक होनेसे, घटकी तरह' । इस पर प्रतिवादीका कथन है, 'जैसे, घट कृतक होनेसे श्रवणका विपय नहीं है, इसी तरह शब्दको भी श्रवणका विषय नहीं होना चाहिए। यदि शब्द अश्रावण नहीं है, तो वह घटकी तरह अनित्य भी नहीं हो सकता । यहाँ केवल चार ही जातियोंका दिग्दर्शन कराया गया है ।
[(५-६) "जिसका कथन किया जाता है, उसे वर्ण्य और जिसका कथन नहीं किया जाता, उसे अवर्ण्य कहते हैं। वर्ण्य या अवर्ण्यकी समानतासे जो असदुत्तर दिया जाता है, उसे वर्ण्यसमा या अवर्ण्यसमा कहते हैं। जैसे, यदि साध्यमें सिद्धिका अभाव है, तो दृष्टांतमें भी होना चाहिये (वर्ण्यसमा), और यदि दृष्टान्तमें सिद्धिका अभाव नहीं है, तो साध्यमें भी न होना चाहिये ( अवर्ण्यसमा ) । (७) दूसरे धर्मोके विकल्प उठा कर मिथ्या उत्तर देना, विकल्पसमा जाति है। जैसे, कृत्रिमता और गुरुत्वका सम्वन्ध ठीक ठीक नहीं मिलता, गुरुत्व और अनित्यत्वका नहीं मिलता, अनित्यत्व और मूर्तत्वका नहीं मिलता, अतएव अनित्यत्व और कृत्रिमताका भी सम्बन्ध न मानना चाहिये, जिससे कृत्रिमतासे शब्द अनित्य सिद्ध किया जा सके । (८) वादीने जो साध्य बनाया है, उसीके समान दृष्टान्त आदिको प्रतिपादन कर मिथ्या उत्तर देना, साध्यसमा जाति है । जैसे, यदि मिट्टीके ढेलेके समान आत्मा है, तो आत्माके समान मिट्टीके ढेलेको भी मानना चाहिये। आत्मामें 'क्रिया' साध्य (सिद्ध करने योग्य, न कि सिद्ध ) है, तो मिट्टीके ढेलेमें भी साध्य मानो। यदि ऐसा नहीं मानते हो तो आत्मा और