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श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लोक.१० गया, जिससे जातिवादीका वक्तव्य स्वयं खण्डित हो गया। दूसरी बात यह है कि कालभेद होनेसे या अभेद होनेसे अविनाभाव सम्बन्ध बिगड़ता नहीं है, यह बात पूर्वचर, उत्तरचर, सहचर, कार्य, कारण, आदि हेतुओंके स्वरूपसे स्पष्ट विदित हो जाती है। जब अविनाभाव सम्बन्ध नहीं बिगड़ता, तब हेतु, अहेतु कसे कहा जा सकता है ? कालको एकतासे साध्य-साधनमें सन्देह नहीं हो सकता, क्योंकि दो वस्तुओंके अविनाभावमें ही साध्य-साधनका निर्णय होता है । अथवा दोमेंसे जो असिद्ध हो वह साध्य, और जो सिद्ध हो, उसे हेतु मान लेनेसे संदेह मिट जाता है । (१७) अर्थापत्ति दिखलाकर मिथ्या दूषण देना, अर्थापत्तिसमा जाति है। जैसे, यदि अनित्यके साधर्म्य ( कृत्रिमता) से शब्द अनित्य है, तो इसका मतलब हुआ कि नित्य ( आकाश ) के साधर्म्य ( स्पर्श रहितता ) से नित्य है। यह उत्तर असत्य है, क्योंकि स्पर्श रहित होनेसे ही कोई नित्य कहलाने लगे, तो सुख वगैरह भी नित्य कहलायेंगे। ( १८) पक्ष और दृष्टान्तमें अविशेषता देख कर किसी अन्य धर्मसे सब जगह ( विपक्षमें भी ) अविशेषता दिखला कर साध्यका आरोप करना, अविशेषसमा जाति है। जैसे, शब्द और घटमें कृत्रिमतासे अविशेषता होनेसे अनित्यता है, वैसे ही सब पदार्थोंमें सत्त्व धर्मसे अविशेपता है, अतएव सभी (आकाशादि-विपक्ष भी ) को अनित्य होना चाहिये। यह असत्य उत्तर है, क्योंकि कृत्रिमताका अनित्यताके साथ अविनाभाव सम्बन्ध है, लेकिन सत्त्वका अनित्यताके साथ नहीं। (१९) साध्य और साध्यविरुद्ध, इन दोनोंके कारण दिखला कर मिथ्या दोष देना, उपपत्तिसमा जाति है। जैसे, यदि शब्दके अनित्यत्वमें कृत्रिमता कारण है तो उसके नित्यत्वमें स्पर्शरहितता कारण है । यहाँ जातिवादी अपने ही शब्दोंसे अपने कथनका विरोध करता है। जब उसने शब्दके अनित्यत्वका कारण मान लिया तो नित्यत्वका कारण कैसे मिल सकता है ? फिर स्पर्शरहितताकी नित्यत्वके साथ व्याप्ति नहीं है। (२०) निर्दिष्ट कारण (साध्यको सिद्धिका कारण-साधन ) के अभावमें साध्यकी उपलब्धि बताकर दोष देना, उपलब्धिसमा जाति है। जैसे, प्रयत्नके बाद पैदा होनेसे शब्दका अनित्यत्व प्रतिपादन करना । लेकिन ऐसे बहुतसे शब्द हैं जों प्रयत्नके बाद न होने पर भी अनित्य हैं; उदाहरणके लिए, मेघ गर्जना आदिमें प्रयत्नकी आवश्यकता नहीं है । यह दूषण मिथ्या है, क्योंकि साध्यके अभावमें साधनके अभावका नियम है, न कि साधनके अभावमें साध्यके अभावका । अग्निके अभावमें नियमसे धुंआ नहीं रहता, लेकिन धुंएके अभावमें नियमसे अग्निका अभाव नहीं कहा जा सकतता। (२१) उपलब्धिके अभावमें अनुपलब्धिका अभाव कथन कर दूषण देना, अनुपलब्धिसमा जाति है । जैसे, किसीने कहा कि उच्चारणके पहले शब्द नहीं था, क्योंकि उपलब्ध नहीं होता था। यदि कहा जाय कि उस समय शब्दपर आवरण था, इसलिए अनुपलब्ध था, तो उसका आवरण तो उपलब्ध होना चाहिये था । जैसे कपड़ेसे ढकी हुई कोई वस्तु भले ही दिखाई न दे लेकिन कपड़ा तो दिखाई देता है, उसी तरह शब्दका आवरण तो उपलब्ध होना चाहिये। इसके उत्तरमें जातिवादी कहता है, जैसे आवरण उपलब्ध नहीं होता, उसी तरह आवरणकी अनुपलब्धि ( अभाव ) भी तो उपलब्ध नहीं होती। यह उत्तर ठीक नहीं है, क्योंकि आवरणकी अनुपलब्धि नहीं होनेसे ही आवरणकी अनुपलब्धि उपलब्ध हो जाती है। (२२) एककी अनित्यतासे सबको अनित्य प्रतिपादन कर दूषण देना, अनित्यसमा जाति है। जैसे, यदि किसी धर्मकी समानतासे शब्दको अनित्य सिद्ध किया जाये, तो सत्त्वकी समानतासे सब वस्तुएँ अनित्य सिद्ध हो जायेंगी। यह उत्तर ठीक नहीं। क्योंकि वादी और प्रतिवादीके शब्दोंमें भी प्रतिज्ञा आदिकी समानता तो है ही, इसलिए जिस प्रकार प्रतिवादी (जातिका प्रयोग करनेवाला) के शब्दोंसे वादीका खण्डन होगा, उसी प्रकार प्रतिवादीका भी खण्डन हो जायगा। अतएव जहाँ जहाँ अविनाभाव हो, वहीं वहीं साध्यकी सिद्धि मानना चाहिए, न कि सब जगह । (२३) अनित्यत्वमें नित्यत्वका आरोप करके खण्डन करना, नित्यसमा जाति है । जैसे, शब्दको अनित्य सिद्ध करते हो, तो शब्दमें अनित्यत्व नित्य है, या अनित्य ? यदि अनित्यत्व नित्य है, तो शब्द भी नित्य कहलाया (धर्मके नित्य होनेपर धर्मीको नित्य मानना पड़ेगा)। यदि अनित्यत्व अनित्य है, तो शब्द नित्य कहलाया। यह असत्य उत्तर हैं, क्योंकि जब शब्दमें अनित्यत्व सिद्ध है, तो उसीका अभाव कैसे कहा जा सकता है। दूसरे, इस तरह कोई भी वस्तु अनित्य सिद्ध नहीं हो सकेगी। तीसरे अनित्यत्व एक धर्म है, यदि धर्ममें भी धर्मकी कल्पना की जायगी तो अनवस्था हो जायगी। (२४) कार्यको