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श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लोक ६ न हि कुलालो दण्डादि करोति । एवं कर्मापेक्षश्चेदीश्वरो जगत्कारणं स्यात् तर्हि कर्मणीश्वरत्वम् , ईश्वरोऽनीश्वरः स्यादिति ॥
__ तथा नित्यत्वमपि तस्य स्वगृह एव प्रणिगद्यमानं हृद्यम् । स खलु नित्यत्वेनैकरूपः सन् , त्रिभुवनसर्गस्वभावोऽतत्स्वभावो वा ? प्रथमविधायां जगन्निर्माणात् कदाचिदपि नोपरखेत । तदुपरमे तत्स्वभावत्वहानिः एवं च सर्गक्रियाया अपर्यवसानाद् एकस्यापि कार्यस्य न सृष्टिः। घटो हि स्वारम्भक्षणादारभ्य परिसमाप्तेरुपान्त्यक्षणं यावद् निश्चयनयाभिप्रायेण न घटव्यपदेशमासादयति । जलाहरणाद्यर्थक्रियायामसाधकतमत्वात् ॥
_अतत्स्वभावपक्षे तु न जातु जगन्ति सृजेत् तत्स्वभावायोगाद् गगनवत् । अपि च तस्यैकान्तनित्यस्वरूपत्वे सृष्टिवत् संहारोऽपि न घटते । नानारूपकार्य करणेऽनित्यत्वापत्तेः । स हि येव स्वभावेन जगन्ति सृजेत् तेनैव तानि संहरेत् , स्वभावान्तरेण वा ? तेनैव चेत् सृष्टिसंहारयोयोगपद्यप्रसङ्गः, स्वभावाभेदात् । एकस्वभावात् कारणादनेकस्वभावकार्योत्पत्तिविरोधात् । स्वभावान्तरेण चेद् नित्यत्वहानिः। स्वभावभेद एव हि लक्षणमनित्यतायाः। यथा पार्थिवशरीरस्याहारपरमाणुसहकृतस्य प्रत्यहमपूर्वापूर्वोत्पादेन स्वभावभेदादनित्यत्वम् । इष्टश्च
स्वीकार करना पडा ।) तथा, ईश्वर जीवोंके पुण्य-पापकी अपेक्षा रखता हुआ जगत्को बनाता है तो वह जिसकी अपेक्षा रखता है उसको नहीं बनाता। जैसे कुम्हार घटके बनानेमें दण्डकी सहायता लेता है, इसलिये वह दण्डको नहीं बनाता, उसी तरह यदि ईश्वर जगत्के बनानेमें जीवोंके पुण्य-पापकी अपेक्षा रखता है, तो वह पुण्य-पापकी सृष्टि नहीं करता है, इसलिये यदि ईश्वर जगत्के बनाने में कर्मोंकी अपेक्षा रखता है, तो वह कर्मोके बनानेवाला नहीं कहा जा सकता। अतएव ईश्वर अनीश्वर ( असमर्थ ) है, स्वतंत्र नहीं।
(५) नित्यत्व-तथा ईश्वर नित्य भी नहीं है। क्योंकि नित्य होनेसे एकरूपके धारक उस ईश्वरके त्रिभुवनकी रचना करनेका स्वभाव है, या बिना स्वभावके भी वह त्रिभुवनकी रचना करता है ? यदि ईश्वरका त्रिभुवनकी रचना करनेका स्वभाव है, तो वह रचनासे कभी विश्राम ही न लेगा। यदि विश्राम लेगा तो ईश्वरके स्वभावकी हानि होगी। इस प्रकार जगत्की रचनाका कभी अन्त न होगा, और फिर एक भी कार्यकी रचना न हो सकेगी। क्योंकि वास्तदमें घटकी रचनाके आरंभ होनेके प्रथम क्षणसे लगाकर घटको रचनाकी समाप्तिके अंतिम क्षण तक, निश्चयकी दृष्टिसे घट व्यवहार नहीं होता। कारण कि उत्पद्यमान घट जल लाना आदि प्रयोजनभूत क्रियाका साधकतम नहीं होता-जबतक घट बन कर तैयार न हो जाय, उस समय तक घटमें जल लाने आदिकी क्रिया नहीं हो सकती। ( भाव यह है कि यदि ईश्वर नित्य है. तो उसका जगत् बनानेका स्वभाव भी नित्य होना चाहिये । इसलिये उसे सदा जगतको बनाते ही रहना चाहिये । जगत्के इस अविराम निर्माणसे एक भी कार्यकी रचना समाप्त न हो सकेगी। तथा, जब तक किसी कार्यको रचना समाप्त न हो, उस समय तक हम ईश्वरको स्रण्टा नहीं कह सकते )।
यदि ईश्वरका जगत्के रचनेका स्वभाव नहीं है, तो ईश्वर कभी भी जगत्को नहीं बना सकता। जैसे आकाशका स्वभाव जगत्को बनानेका नहीं है, वैसे ही ईश्वरका स्वभाव भी जगत्को बनानेका न रहेगा । तथा, ईश्वरको एकान्त-नित्य माननेपर सृष्टिकी तरह संहार भी न बन सकेगा। क्योंकि यदि ईश्वर सष्टि और संहार आदि अनेक कार्योको करेगा, तो वह अनित्य हो जायगा। तथा, जिस स्वभावसे ईश्वर सृष्टिको रचना करता है, उसी स्वभावसे वह सृष्टिका संहार करता है, अवथा दूसरे स्वभावसे ? यदि ईश्वर उसी स्वभावसे संहार करता है, तो सृष्टि और संहार एककालीन हो जायेंगे, क्योंकि ईश्वरके स्वभावमें भेद नहीं है। एक स्वभावरूप कारणसे अनेक स्वभावरूप कार्योंकी उत्पत्ति नही हो सकती। यदि कहो कि जिस स्वभावसे ईश्वर सृष्टिको बनाता है, उस स्वभावके अतिरिक्त