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अन्य. यो. व्य. श्लोक ८] स्याद्वादमञ्जरी नात्मनो जडस्वरूपता संगच्छते । तदसङ्गतौ च चैतन्यमौपाधिकमात्मनोऽन्यदिति वाङ्मात्रम् ॥
तथा यदपि न संविदानन्दमयी च मुक्तिरिति व्यवस्थापनाय अनुमानमवादि सन्तानत्वादिति । तत्राभिधीयते । ननु किमिदं सन्तानत्वं स्वतन्त्रमपरापरपदार्थोत्पत्तिमात्रं वा, एकाश्रयापरापरोत्पत्तिर्वा ? तत्राद्यः पक्षः सव्यभिचारः। अपरापरेषामुत्पादकानां घटपटकटादीनां सन्तानत्वेऽप्यत्यन्तमनुच्छिद्यमानत्वात् । अथ द्वितीयः पक्षः, तर्हि तादृशं सन्तानत्वं प्रदीपे नास्तीति साधनविकलो दृष्टान्तः। परमाणुपाकजरूपादिभिश्च व्यभिचारी हेतुः । तथाविधसन्तानत्वस्य तत्र सद्भावेऽप्यत्यन्तोच्छेदाभावात् । अपि च सन्तानत्वमपि भविष्यति अत्यन्तानुच्छेदश्च भविष्यति विपर्यये बाधकप्रमाणाभावात् । इति संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वादप्यनैकान्तिकोऽयम् । किञ्च, स्याद्वादवादिनां नास्ति क्वचिदत्यन्तमुच्छेदः, द्रव्यरूपतया दोष आनेसे प्रकृत ज्ञानका ज्ञान कैसे हो सकता है ? इसलिये 'मैं ज्ञानवान हूँ ऐसी प्रतीति किसी भी तरह आत्मामें न हो सकेगी। अतएव आत्माको जड़ स्वीकार करना ठीक नहीं है। तथा आत्माके जड़ न सिद्ध होनेपर आत्माके ज्ञानको उपाधिजन्य मानना भी केवल कथन मात्र है।
(३) मुक्ति ज्ञानमय और आनन्दमय नहीं है, यह सिद्ध करनेके लिये आप लोगोंने जो सन्तानत्व हेतु दिया है, वह भी ठीक नहीं है। क्योंकि यह सन्तानत्व क्या है? क्या वह भिन्न-भिन्न स्वतन्त्र पदार्थोंकी उत्पत्ति मात्र है, अथवा एक पदार्थरूप आश्रयमें भिन्न-भिन्न परिणामोंकी उत्पत्ति मात्र ( एकाश्रयापरापरोत्पत्ति ) है ? पहला पक्ष सदोष है कारण कि भिन्न-भिन्न उत्पादक घट, पट, कट आदि पदार्थोंका सन्तानत्व विद्यमान होनेपर भी उनका आत्यन्तिक उच्छेद ( नाश ) नहीं देखा जाता ( वैशेषिक मतमें जो जो सन्तान होता है उसका आत्यन्तिक रूपमें विनाश होता है )। यदि दूसरा पक्ष-अर्थात् एक पदार्थ रूप आश्रयमें भिन्न-भिन्न परिणामोंकी उत्पत्ति सन्तान है-स्वीकार किया जाये तो एकाश्रयापरापरोत्पत्ति रूप सन्तानत्व प्रदीप दृष्टान्तमें घटित न होनेसे प्रदीपका दृष्टान्त साधनविकल है । (प्रदीपकी सन्तानका एक आश्रय नहीं है, क्योंकि पूर्व अग्निकी ज्वाला रूप दीपक पूर्व अग्निकी ज्वालाके नष्ट होनेके क्षणमें नष्ट हो जाता है, इसलिये दीपकका दृष्टान्त साधनसे शून्य है।) तथा, एकाश्रयापरापरोत्पत्ति लक्षण सन्तानत्वका परमाणुपाकज रूप ( अग्निके द्वारा परमाणुमें उत्पन्न किया हुआ रूप ) आदिमें सद्भाव होनेपर भी परमाणुओंके पाकजरूप आदिका आत्यन्तिक नाश न होनेसे परमाणुओंके साथ सन्तानत्व हेतु व्यभिचारी है (परमाणुपाकज रूपादि का आत्यन्तिक नाश न होनेसे वह विपक्ष है, अतः उसमें उक्त हेतुका सद्भाव होनेसे वह हेतु व्यभिचारी है। वैशेषिक लोग 'पीलुपाक' सिद्धान्तको मानते हैं। उनके मतमें जिस समय कच्चा घड़ा अग्निमें पकानेके लिये रक्खा जाता है, उस समय यह कच्चा घडा नष्ट होकर परमाण रूप हो जाता है। उसके बाद अग्निके संयोगसे परमाणुओंमें लाल रंग उत्पन्न होता है। ये परमाणु एकत्र होकर पक्के घड़ेके रूपमें बदलते हैं। यह परमाणुपाकज प्रक्रिया अत्यन्त शीघ्रतासे होती है, और नौ क्षणों में समाप्त हो जाती है। जैन लोगोंका कहना है, कि अग्निके द्वारा उत्पन्न किये हुए परमाणुमें रूप-सन्तान होनेपर भी उसका अत्यन्त उच्छेद नहीं होता, इसलिये उक्त हेतु व्यभिचारी है। क्योंकि कच्चे घड़ेके अग्निमें रखनेसे जब उस घटका परमाणुपर्यन्त विभाग होता है, तब उन परमाणुओंमें पूर्व घटकी रूप-सन्तान बदलकर दूसरे रूपमें उत्पन्न होती है, इसलिये यद्यपि पूर्व और अपर सन्तान परमाणुरूप एक आश्रयमें रहती है तो भी सन्तानका अत्यन्त नाश नहीं होता।) तथा, सन्तानत्वके रहनेपर भी आत्यन्तिक नाश रह सकता है, इसमें किसी बाधक प्रमाणका अभाव है। इस प्रकार विपक्षव्यावृत्ति सन्दिग्ध होनेसे यह हेतु अनैकान्तिक भी है। ( अतएव 'मुक्तिमें बुद्धि आदि गुणोंका अत्यन्त उच्छेद हो जाता है, क्योंकि बुद्धि आदि सन्तान हैं। इस अनुमानमें सन्तानत्व हेतु विपक्ष घटादिमें उच्छेद्यत्व साध्यके अभाव अनुच्छेद्यत्वके साथ रहता है, इसलिये सन्दिग्ध विपक्षव्यावृत्ति होनेसे अनैकान्तिक हेत्वाभास है।) तथा, स्याद्वादियोंके किसी भी पदार्थका अत्यन्त उच्छेद नहीं होता, क्योंकि द्रव्य