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स्याद्वादमञ्जरी
"अनेकानि सहस्राणि कुमारब्रह्मचारिणाम् । दिवं गतानि विप्राणामकृत्वा कुलसन्ततिम्" " ।
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अन्य. यो. व्य. श्लोक ६ ]
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इत्यादि । कियन्तो वा दधिभाषभोजनात् कृपणा विवेच्यन्ते । तदेवमागमोऽपि न तस्य सर्वज्ञतां वक्ति । किञ्च, सर्वज्ञः सन्नसौ चराचरं चेद् विरचयति, तदा जगदुपप्लवकरणवैरिणः पश्चादपि कर्तव्यनिग्रहान् सुरवैरिणः एतदधिक्षेपकारिणश्चास्मदादीन् किमर्थं सृजति इति, तन्नायं सर्वज्ञः ।
तथा स्ववशत्वं - स्वातन्त्र्यं । तदपि तस्य न क्षोदक्षमम् । स हि यदि नाम स्वाधीनः सन् विश्वं विधत्ते, परमकारुणिकश्च त्वया वर्ण्यते, तत् कथं सुखितदुःखिताद्यवस्थाभेदवृन्दस्थपुटितं घटयति भुवनम् एकान्तशर्म संपत्कान्तमेव तु किं न निर्मिमीते ? अथ जन्मान्तरोपा - जिततत्तत्तदीयशुभाशुभकर्मप्रेरितः सन् तथा करोरीति, दत्तस्तर्हि स्ववशत्वाय जलाञ्जलिः ॥
कर्मजन्ये च त्रिभुवनवैचित्र्ये शिपिविष्टहेतुकविष्टप' सृष्टिकल्पनायाः कष्ठैकफलत्वात् अस्मन्मतमेवाङ्गीकृतं प्रेक्षावता । तथा चायातोऽयं “ घटकुटयां प्रभातम् ” इति न्यायः । किन, प्राणिनां धर्माधर्मावपेक्षमाणश्चेदयं सृजति, प्राप्तं तर्हि यदयमपेक्षते तन्न करोतीति । समान है" आदि वचनोंसे चोरीका निषेध करके, "यदि कोई ब्राह्मण हठसे या छलसे दूसरेके द्रव्यको हरण करता है, तो भी उसे चोरीका दोष नहीं लगता, क्योंकि जगत्को सर्वसंपत्ति ब्राह्मणों को ही दी गयी है; ब्राह्मणोंकी दुर्बलतासे शूद्र लोग इस संपत्तिका उपभोग करते हैं । इसलिये यदि ब्राह्मण दूसरेके धनको छीनता है, तो भी वह अपने ही घनको लेता है, अपने ही का उपभोग करता है, अपना ही पहनता है ओर अपना ही देता है" आदि वाक्योंका उल्लेख पूर्वापरविरोधको सूचित करता है। इसीप्रकार "पुत्ररहितको गति नहीं होती" कहकर,
हजारों कुमार ब्रह्मचारी ब्राह्मण अपने कुलकी संततिको उत्पन्न न करके स्वर्ग गये हैं ।"
आदि वाक्योंका कथन आगमके पूर्वापरविरोधको स्पष्टरूपसे प्रगट करता है । दही और उड़द भोजनसे कितने कृपणोंको सन्तुष्ट किया जाये ? इसलिये आगमसे भी ईश्वरकी सर्वज्ञता सिद्ध नहीं होती । और कहाँतक कहा जाये, यदि सर्वज्ञ ईश्वर इस स्थावर-जंगमरूप जगत्को बनाता है, तो वह जगत् में उपद्रव करनेवाले, जिनका निग्रह करना आवश्यक है ऐसे दानवों को, तथा ईश्वरपर आक्षेप करनेवाले हम जैसे लोगों को क्यों बनाता ? इससे मालूम होता है कि ईश्वर सर्वज्ञ नहीं है ।
( ४ ) स्वतंत्र - तथा स्ववशत्वका अर्थ है स्वातन्त्र्य । ईश्वर स्वतंत्र भी नहीं है । यदि ईश्वर स्वाधीन होकर जगत्को रचता है, और वह परम दयालु है, तो वह सर्वथा सुख-सम्पदाओंसे परिपूर्ण जगत्को न बनाकर सुख-दुःखरूप जगत्का क्यों सर्जन करता है ? यदि कहो कि जीवोंके जन्मान्तरमें उपार्जन किये हुए शुभ-अशुभ कर्मोंसे प्रेरित ईश्वर जगत्को बनाता है, तो फिर ईश्वरके स्वाधीनत्वका ही लोप हो जाता है ।
तथा, संसारकी विचित्रता को कर्मजन्य स्वीकार करनेपर सृष्टिको ईश्वरजन्य मानना केवल कष्टरूप ही है । इससे अच्छा तो आप हमारा हो मत स्वीकार कर लें। तथा हमारे मतको स्वीकार करनेपर आपको "घटकुट्यां प्रभातम् ” न्यायका प्रसंग होगा । ( अर्थात् जैसे कोई मनुष्य महसूली सामानका महसूल न देनेके विचारसे रास्ते मे आनेवाले चुंगीघरको छोड़कर किसी दूसरे रास्तेसे शहरके भीतर जानेके लिये रातभर इधरउधर चक्कर मारकर प्रातःकाल फिरसे उसी चुंगीघरपर जा पहुँचता है ( घटकुट्यां प्रभातम् ), उसी प्रकार आप लोगोंने ईश्वरको जगत्का नियन्ता सिद्ध करनेमें बहुत कुछ प्रयत्न किया, पर आखिर में हमारा ही मत
१. आपस्तं वसूत्रे । २. स्ववशत्वं नष्टमित्यर्थः । ३ महेश्वरः ४ विश्वं ५. उद्देश्यासिद्धियंत्र प्रतीयते तत्रायं उपयुज्यते । न्यायार्थः कश्चित् शाकटिको मध्ये मार्ग राजदेयं द्रव्यं दातुमनिच्छन्मार्गान्तरं समासादयति परं रात्री अष्टमार्गः प्रभाते राजग्राह्यद्रव्यग्राहिकुटीस विघावेवागच्छति । तेन तदुद्देश्यं न सिध्यतीति ।