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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लोक १ क्षयाविर्भूतानन्तचतुष्क'सम्पद्रूपया वर्धमानम् । यद्यपि श्रीवर्धमानस्य परमेश्वरस्यानन्तचतुष्कसम्पत्तेरुत्पत्त्यनन्तरं सर्वकालं तुल्यत्वाच्चयापचयौ न स्तः, तथापि निरपचयत्वेन शाश्वतिकावस्थानयोगाद्वर्धमानत्वमुपचर्यते । यद्यपि च श्रीवर्धमानविशेषणेनानन्तचतुष्कान्त वित्वेनानन्तविज्ञानत्वमपि सिद्धम् , तथाप्यनन्तविज्ञानस्यैव परोपकारसाधकतमत्वाद्, भगवत्प्रवृत्तेश्च परोपकारैकनिवन्धनत्वाद्, अनन्तविज्ञानत्वं शेषानन्तत्रयात् पृथग निर्धार्याचार्येणोक्तम् ।।
ननु यथा जगन्नाथस्यानन्तविज्ञानं परार्थ, तथाऽनन्तदर्शनस्यापि केवलदर्शनापरपर्यायस्य पारार्थ्यमव्याहतमेव । केवलज्ञानकेवलदर्शनाभ्यामेव हि स्वामी क्रमप्रवृत्तिभ्यामुपलब्ध सामान्यविशेषात्मकं पदार्थसाथ परेभ्यः प्ररूपयति । तत्किमर्थं तन्नोपात्तम् ? इति चेत् , उच्यते । विज्ञानशब्देन तस्यापि संग्रहाददोषः, ज्ञानमात्राया' उभयत्रापि समानत्वात् । य एव हि अभ्यन्तरीकृतसमता ख्यधर्मा विषमताधर्मविशिष्टा ज्ञानेन गम्यन्तेऽर्थाः, त एव ह्यभ्यन्तरीकृत विषमताधर्माः समताधर्मविशिष्टा दर्शनेन गम्यन्ते; जीवस्वाभाव्यात् । सामान्यप्रधानमुपसर्जनीकृत विशेषमर्थग्रहणं दर्शनमुच्यते। तथा प्रधानविशेषमुपसर्जनीकृतसामान्यं च ज्ञानमिति ॥
___तथा यत एव जिनम्, अत एवातीतदोपम् । रागादिजेतृत्वाद्धि जिनः । न चाजिनस्यातीतदोषता। तथा यत एवाप्तमुख्यम्, अत एवाबाध्यसिद्धान्तम् । आप्तो हि प्रत्ययित उच्यते । तत आप्तेषु मुख्यं श्रेष्ठमाप्तमुख्यम् । आप्तमुख्यत्वं च प्रभोरविसंवादिवचनतया विश्वविश्वासभूमित्वात् । अत एवाबाध्यसिद्धान्तम् । न हि यथावज्ज्ञानावलोकितवस्तुवादी वृद्धिंगत है, अतएव अनन्तविज्ञानके धारक हैं । यद्यपि वर्धमानस्वामीके अनन्तचतुष्टय रूप लक्ष्मी सर्वदा एक समान रहती है, अतएव उसमें घटना-बढना नहीं होता, फिर भी उम लक्ष्मीके सदा एक समान रहनेके कारण उसमें वर्धमानताका उपचारसे प्रतिपादन किया गया है। तथा, यद्यपि श्रीवर्धमान विशेषणसे अनन्तविज्ञान अनन्तचतुष्टयमें गर्भित हो जाता है, फिर भी अनन्तविज्ञानसे ही जीवोंका परोपकार होता है, और परोपकारके लिए ही भगवान्को प्रवृत्ति होती है, इसलिए अनन्तविज्ञानको अनन्तदर्शन, अनन्तचारित्र और अनन्तवीर्य इन तीनोंसे पृथक् कहा है।
शंका-जिस प्रकार भगवान्का अनन्तज्ञान परोपकारके लिए कहा जाता है, उसी तरह अनन्तदर्शन-केवलदर्शन-भी परोपकारके लिए ही होता है। क्योंकि क्रमसे होनेवाले केवलज्ञान और केवलदर्शनसे जाने हुए सामान्य-विशेष पदार्थोंको ही भगवान् दूसरोंको प्रतिपादित करते हैं। फिर, यहाँ अनन्तदर्शनका उल्लेख क्यों नहीं किया है ? समाधान-अनन्तज्ञानमें ज्ञान शब्दसे दर्शनका भी सूचन होता है, क्योंकि केवलज्ञान और केवलदर्शन दोनोंमें ज्ञानको मात्रा समान है। कारण कि जो पदार्थ सामान्य धर्मोंको गौण करके विशेष धर्मों सहित ज्ञानसे जाने जाते हैं, वे ही पदार्थ विशेष धर्मोको गौणतापूर्वक सामान्य धर्मों सहित दर्शनसे जाने जाते है। क्योंकि ज्ञान और दर्शन दोनों ही जीवके स्वभाव है। सामान्यकी मख्यतापर्वक विशेषको गौण करके पदार्थके जाननेको दर्शन कहते हैं। तथा विशेषको मुख्यतापूर्वक सामान्यको गौण करके किसी वस्तुके जाननेको ज्ञान कहते हैं।
अतएव भगवान् जिन है, इसी कारण दोषोंसे रहित हैं। रागादि जीतनेके कारण उन्हें जिन कहा गया है। जो जिन नहीं हैं, वे दोषोंसे रहित नहीं हैं। भगवान् आप्तोंमें मुख्य हैं, इसलिए उनका सिद्धान्त बाधारहित है। जो प्रतोति (विश्वास) के योग्य है, उसे आप्त कहते हैं। जो आप्तोंमें प्रधान अर्थात् श्रेष्ठ हो वह आप्तमुख्य है। भगवान् के वचनोंमें कोई विसंवाद न होनेसे तथा सब प्राणियोंकी विश्वासभूमि होनेसे
१. (१) अनन्तज्ञान (२) अनन्तदर्शन (३) अनन्तचारित्र (४) अनन्तवीर्य इति चतुष्कम् । २. ज्ञानेयत्तायाः । ३. समता-सामान्याख्यधर्मः । ४. उपसर्जनं-गोणम् ।