________________
श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लोक ५ न च वाच्यं तैजसाः परमाणवः कथं तमस्त्वेन परिणमन्त इति । पुद्गलानां तत्तत्सामग्रीसहकृतानां विसदृशकार्योत्पादकत्वस्यापि दर्शनात् । दृष्टो ह्याइँन्धनसंयोगवशाद् भास्वररूपस्यापि वढेरभास्वररूपधूमरूपकार्योत्पादः। इति सिद्धो नित्यानित्यः प्रदीपः। यदापि निर्वाणादर्वाग्देदीप्यमानो दीपस्तदापि नवनवपर्यायोत्पादविनाशभाक्त्वात् प्रदीपत्वान्वयाच नित्यानित्य एव ॥ ___एवं व्योमाप्युत्पादव्ययध्रौव्यात्मकत्वाद् नित्यानित्यमेव । तथाहि । अवगाहकानां जीवपुद्गलानामवगाहदानोपग्रह एव तल्लक्षणम् । "अवकाशदमाकाशम्" इति वचनात् । यदा चावगाहका जीवपुद्गलाः प्रयोगतो विस्रसातो वा एकस्मान्नभ प्रदेशात् प्रदेशान्तरमुपसर्पन्त तदा तस्य व्योम्नस्तैरवगाहकैः सममेकस्मिन् प्रदेशे विभागः उत्तरस्मिंश्च प्रदेशे संयोगः । संयोगविभागौ च परस्परं विरुद्धौ धौं । तद्भेदे चावश्यं धर्मिणो भेदः । तथा चाहुः"अयमेव हि भेदो भेदहेतुर्वा यद्विरुद्धधर्माध्यासः कारणभेदश्चेति। ततश्च तदाकाशं पूर्वसंयोगविनाशलक्षणपरिणामापत्त्या विनष्टम् , उत्तर संयोगोत्पादाख्यपरिणामानुभवाच्चोत्पन्नम् । उभयत्राकाशद्रव्यस्यानुगतत्वाच्चोत्पादव्यययोरेकाधिकरणत्वम् ॥ नहीं है, वह अप्रतिघाति है, उसमें स्पर्श नहीं और उसका विभाग नहीं हो सकता, इसलिए अन्धकार पौद्गलिक नहीं कहा जा सकता। जैनदर्शन उक्त हेतुओंका प्रदीप-प्रभाके दृष्टान्तसे खण्डन करता है। जैनदर्शनके अनुसार अन्धकार और दोपकको प्रभा पर्यायरूपसे कोई अन्तर नहीं। इसलिए यदि वैशेषिक लोग दीपककी प्रभाको पौद्गलिक मानते है, तो उन्हें अन्धकारको भी पुद्गलको पर्याय मानना चाहिए। क्योंकि प्रकाशकी भांति अन्धकार भी द्रव्यको पर्याय है, फिर दोनोंमें असमानता क्यों ?)
दीपकके तेज-परमाणु तमरूपमें कैसे परिणत हो सकते हैं, यह शंका भी निर्मूल है । क्योंकि पुद्गलोंकी अमुक सामग्रीका सहकार मिलनेपर विसदृश कार्योंकी भी उत्पत्ति होती है। उदाहरणके लिए, प्रकाशमान अग्निसे, गीले इंधनके सहयोगसे अप्रकाशमान धूमकी उत्पत्ति होती है । (इसलिए यह नियम नहीं है कि तेजके परमाणुओंसे तेजरूप कार्यकी ही उत्पत्ति हो, अन्धकाररूप कार्यकी नहीं; क्योंकि तेजरूप अग्निसे भी अन्धकाररूप धूमकी उत्पत्ति देखी जाती है। इसलिए सिद्ध होता है कि दीपककी पर्यायमें परिणत तेजके परमाणु तेल आदिके क्षय हो जानेसे ही अन्धकाररूप पर्यायान्तरको धारण करते हैं। वास्तवमें द्रव्यकी अपेक्षा दीपक नित्य है, केवल पर्यायको अपेक्षासे ही वह अनित्य कहा जा सकता है। ) तथा दीपकके बुझनेसे पहले देदीप्यमान दीपक अपनी नयी-नयी पर्यायोंके उत्पन्न और नाश होनेको अपेक्षा अनित्य है, परन्तु इन पर्यायोंके बदलते रहनेपर भी हमें यह भान होता रहता है कि एक ही दीपककी ये असंख्य पर्याय हैं, इसलिए दीपक निय है । अतः दीपकका नित्यानित्यत्व सिद्ध होता है।
इसी प्रकार आकाश भी उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यरूप होनेसे नित्य और अनित्य दोनों है ( देखिए परिशिष्ट [क])। जीव और पुद्गलोंको अवकाश-दान देना ( स्थान देना) ही आकाशका लक्षण है। कहा भी है "अवकाश देनेवालेको आकाश कहते है।" जब आकाशमें रहनेवाले जीव और पुद्गल किसीकी प्रेरणासे अथवा अपने स्वभावसे आकाशके एक प्रदेशसे दूसरे प्रदेशमें जाते हैं,
१. उपग्रहः-उपकार इति तत्त्वार्थभाष्ये । २. उत्तराध्ययनसूत्रे अध्ययने २८ गाथा ९। अत्र वृत्ती महोपाध्यायश्रीमद्भावविजयगणिकृतायामि
दमुपलभ्यते । ३. पुरुषशक्त्या । ४. स्वभावेन । ५. वस्तूनि द्विविधानि लक्षणभेदात्कारणभदाच्च । घटो जलाहरणादिगुणवान् पटश्च शीतत्राणादि
गुणवान् । तथा घटस्य कारणं मृत्पिण्डादि । पटस्य कारणं तन्त्वादि ।