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सूक्तिमुक्तावली का इव विरक्ता कुपिता रुष्टा कांता इव स्त्रो इव यथा विरक्ता श्री भत्तः सङ्ग त्यजति तथेत्यर्थः । पुनः उदयः अभ्युदयः प्रतापैश्वया। दिवृद्धिस्तस्याभ्यणं समीपं न मुंचति न त्यजति क इच सुहृदिय मित्र इव । अतोऽहंतां पूजा कार्या । अरूं च
भो मत्र्यप्राणिन् । एवं ज्ञात्वा मनसि विवेकमानीय श्रीजिनपूजा कर्तव्या। कुर्वतां च सतां यत्पुण्यमुत्पद्यते तत्पुण्यप्रसादादुत्तरोत्तरमांगलिक्यमाला विस्तरन्तु ॥ ११ ॥
अर्थ--जो पुरुष श्री वीतराग जिनराज प्रभू की पूजा करते हैं उनके आतङ्क अर्थान् रोग कोपायमान हये के समान कभी भी सन्मुख नहीं आता है अर्थात वे कभी भी अपने सामने रोग को आया हुआ नहीं देखते हैं। वीतराग प्रभू के पूजक पुरुष सदैव स्वस्थ नीरोग रहते हैं, दरिद्रता चकित हुये पुरुष की तरह दिन प्रति दिन दूर ही से नाश को प्राप्त हो जाती है अर्थात उनके दरिद्रता कभी नहीं आती, सदैव लक्ष्मी से भरपूर भण्डार रहते हैं, कुगति-अपने पति से विरक्त हुई स्त्री की तरह संग छोड़ कर चली जाती है अर्थात् वीतराग के पूजक---दुर्गति नरक तिथंच कभी भी प्राप्त नहीं करते किन्तु मरकर सुगति में पैदा होते हैं जहाँ उन्हें आत्मकल्याण के अनेक साधन मिलते हैं। तथा उनके महान माग्यरूपी सूर्य का उदय होता है जो उनका कभी भी मित्रके समान साय नहीं छोड़ता किन्तु सदा साथ रहता है जिससे वे भव भव में सुखी रहते हैं। ऐसा जिनेन्द्र पूजन का अद्भुत फल जान कर प्रतिदिन जिनेन्द्र की पूजन करना चाहिए।
पुनः श्रीजिनपूनायाः माहात्म्यमाह