Book Title: Suktimuktavali
Author(s): Somprabhacharya, Ajitsagarsuri
Publisher: Shanti Vir Digambar Jain Sansthan

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Page 134
________________ सूक्तिमुक्तावली हरिणी छन्दः प्रसरति यथा कीर्तिर्दिक्षु क्षपाकरसीदरा5म्युदयजननी याति स्फीर्ति यथा गुणसंततिः । कलयति यथा वृद्धिं धर्मः कुकर्महतिक्षमः । कुशलसुलभे न्याये कार्य तथा पथि वर्तनं ॥ ९६ || व्याख्या - न्याये न्यायोपपन्ने पथि मार्गे तथा प्रवर्तनं कार्यं प्रवर्त्तिः कार्या यथा चतुर्षु दिक्षु क्षपाकर सोदरा चन्द्रकिरणवदुज्ज्वला कीर्तिः प्रसरति कुरति विस्तरवि । पुनर्यथा अभ्युदयजननी उदयकारिका गुण संततिः गुणश्र णिः स्फीतिं याति विस्तारं व्रजति । पुनर्यथा कुकर्महतो पापहनने क्षमः समर्थो घर्मो वृद्धिं कलयति वृद्धिं प्राप्नोति । तथा न्याये पथि न्यायमार्गे प्रवर्तनं कार्यं । कथंभूते न्याये पथि कुशलैश्चतुरपुरुषैः सुलभः सुप्रापः सुखेन लभ्यस्तस्मिन् ॥ ३६ ॥ अर्थ - हे भव्य पुरुष ! जैसे चन्द्रमा की चांदनी के समान निर्मल कीर्ति दशों दिशाओं में फैले, जैसे स्वर्गादि सुखप्रद गुणों के समूह स्कुरायमान हों, और जैसे खोटे कर्मों का नाश करने में समर्थ धर्म वृद्धि को प्राप्त हो इस प्रकार कल्याण है सुलभ जिसमें, ऐसे न्याय मार्ग में प्रवर्तन करना चाहिये । मात्रार्थ - प्रत्येक पुरुष को ऐसे न्याय मार्ग का अनुसर करना चाहिये जिससे दशों दिशाओं में उसकी धवल कीर्ति फैले, दोष सन्तति दूर होकर आत्मा में सम्यक्त्व आदि गुण प्रगट हों, धर्मकी वृद्धि एवं प्रभावना प्रगट हो। ऐसा आचार्य श्री का उपदेश है जिसे पालन करना एवं अपना जीवन तद्रूप बनाना मनुष्य मात्र का कर्तव्य है । १२७

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