Book Title: Suktimuktavali
Author(s): Somprabhacharya, Ajitsagarsuri
Publisher: Shanti Vir Digambar Jain Sansthan

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Page 132
________________ सूक्तिमुक्तावली शिखरिणीछन्दः त्रिसंध्यं देवार्चा विरचय चयं प्रापय यशः । श्रियः पात्रे वापं जनय नयमार्ग नय मनः ।। स्मरकोधाधारीन्दलय कलय प्राणिषु दयां । जिनोक्तं सिद्धान्तं शृणु घृणु जवान्मुक्तिकमलां ।।९४|| व्याख्या-त्रिसन्ध्यं त्रिकाले प्रभाते मध्याहे सायं च देवा श्रीधीतरागपूजा विरचय कुरु । पुनः यशः कीर्तिचयं वृद्धि प्रापय । प्रियो लक्ष्म्याः पात्रे सुपात्रे वापं जनः । पुनमनः वित्त मयमार्ग न्यायमार्ग प्रति नय। पुनः स्मरकोधाधारीन् कामक्रोधमानमायालोभापीन् परीन् शत्रून् दलय खंडय । पुनः प्राणिषु जीवेषु दयां कलय कुरु । पुनः जिनोक्त अहरप्रणीतं सिद्धान्तं सूत्र' शृणु । एतानि कुत्या जवात् बेगान मुक्तिकमल शिवश्रियं घृणु वरय || ६४ ॥ अर्थ-हे भव्य ! प्रातःकाळ मध्याह्नकाल और सायंकाल इन तीन कालों में वीतरागदेव की पूजा करो, यशसमूह [ कीर्ति को ] प्राप्त करो, पात्रों को दान देकर लक्ष्मी का बीज बोयो, मन को न्यायमार्ग में लगाओ, कामक्रोधादि बैरियों को विध्वंस करो, सब प्राणियों पर दया करो, वीतराग देवका कहा हुआ सिद्धांत सुनो और शीघ्र ही मुक्ति रूपी लक्ष्मी का वरण करो। भावार्थ- आचार्य उपदेश देते हैं कि हे माई । अनन्त काल से कठिनता से प्राप्त किये गये इस मनुष्य भत्र को पाकर ऊपर कहे गये कार्यों को करो ताकि मोक्ष लक्ष्मी तुम्हें शीघ्र ही प्राप्त हो। लि

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