Book Title: Suktimuktavali
Author(s): Somprabhacharya, Ajitsagarsuri
Publisher: Shanti Vir Digambar Jain Sansthan

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Page 133
________________ १२६ सूक्तिमुक्तावली शार्दूलविक्रीडित छन्दः कृत्वार्हस्पदपूजनं यतिजनं नत्वा विदित्वागमं । fear inमधर्मकर्मठधियां पात्रेषु दत्वा धनं ॥ हित्वा गत्वा पद्धतिमुतमकमजुषां जित्वान्तरपरिवर्ज । पञ्चनमस्त्रियां कुरु करक्रोडस्थमिष्टं सुखं ॥९५॥ व्याख्या - भो श्राद्ध ! एतानि कृत्वा इष्ट वांछितं सुखं कर फोहरवं हस्तोत्संग करप्राप्यं कुरु । किं कृत्वा अर्हत्पदपूजनं वीतरागधरणपूजां कृत्वां । पुनर्वतिजनं साधुजनं नत्वा पुनरागमं सिद्धान्तं विदित्वा शात्वा श्रश्वा । पुनः अधर्मकर्मठधियां पापासतबुद्धीनां संग संसर्गं त्यक्त्वा परित्यज्य | पुनः पात्रेषु निजं धनं वित्त दत्वा । पुनः उत्तमक्रमजुषां उत्तम मार्ग से विनां पद्धतिं मार्ग प्रति गत्वा अनुश्रिस्य आंतरारित्रजं अंतरंगारिषड्वर्ग आभ्यन्तरं वैरिसमूहं जित्वा । पुनः पंचनमस्तियां नमस्कार मंत्र स्मृत्वा ध्यात्वा इष्टसुखं करप्राप्यं कुरु विधेहि ॥ ६५ ॥ अर्थ - हे भव्यात्मन् ! अरिहन्त देव के चरण कमलों की पूजा करके, आचार्य उपाध्याय साधुजनों को नमस्कार करके, जिनभाषित शास्त्रों को जान करके, निरम्बर अधर्म कार्य में रत रहने बाले दुष्ट पुरुषों की संगति छोड़ करके, पात्रों में दान देकर उत्तम आचरण के धारी सत्पुरुषों के मार्ग का अनुकरण करके, अन्तरङ्ग के रागद्वेष कामकोधावि शत्रुओं को जीत करके और 'गमो अरहंताराम्' इत्यादि पंच नमस्कार मन्त्र का जाप करके इष्ठ सुख मोक्ष के सुख को अपने हस्त के मध्य प्राप्त करो।

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