Book Title: Suktimuktavali
Author(s): Somprabhacharya, Ajitsagarsuri
Publisher: Shanti Vir Digambar Jain Sansthan

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Page 138
________________ सूक्तिमुक्तावली. अमितताका भाडार्य अमितानि ने कितना उत्तम प्रतिपादन किया है : मुर्खापवादासनेन धर्म, मुश्चन्ति सन्तो न धुधार्चनीयम । ततो हि दोषः परमाणुमात्रो, धर्मभ्युदासे गिरिराजतुल्यम् ॥ भाशय यह है कि अनानियों द्वारा अपवाद किये जाने पर पर्व पीड़ित किये जाने पर भी सज्जन मुमुचु पुरुष अपने लक्ष्यभूत धर्म को कभी नहीं छोड़ते क्योंकि वर्तमान समयका दुःख तो परमाणु मात्र है जो कि नहीं के बराबर है किन्तु परके अपवादादि से धर्म को छोड देने में सुमेरु पर्वत तुल्य नक निगोद के दुःखों को भोगना पड़ता है जिसमें असंख्यात अनन्त भव दुःखों में ही व्यतीत होते हैं। इसलिये धर्म मार्ग में सदा कटिबद्ध हद रहना चाहिये । और भी अभिवगति आचार्य ने कहा है : सर्षेऽपि भावाः सुखकारिणोऽमी। ___ भवन्ति धर्मेण विना न पुसाम ॥ तिष्ठन्ति वृक्षाः फलपुष्पयुक्ताः । कार्य कियन्तं खलु मूलहीनाः ॥ संसार में जितने पदार्थ सुखकर प्रतीत होते हैं या सुखदाई देले जाते हैं इन सब का एक मात्र कारण धर्म सेवन ही है, धर्म मेवन के फल से ही सष मुख के साधन सुलभता से उपलब्ध होते हैं एवं सहा.सुखकर सामग्री का समागम बना रहता है। बिना

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