Book Title: Suktimuktavali
Author(s): Somprabhacharya, Ajitsagarsuri
Publisher: Shanti Vir Digambar Jain Sansthan

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Page 141
________________ १३४ सूक्तिमुक्तावली मधुकरसमता भ्रमरतुल्यतां श्रमजत् अप्रापत । पूर्व अजितदेवाचार्यस्तत्पट्ट विजयसिंहाचार्यास्तस्पट्टे सोमप्रभाचाचीरतेनेयं सिंदूरकरनामसूक्तिमुक्तावली व्यरचि रुता ॥ १० ॥ खोमप्रभसूरिणा विरचिता सूक्तिमुक्तावली समाप्ता । अर्थ-जो भजितदेव आचार्य के पट्टरूपी नदयाचल पर सूर्य समान विजयसिंह भाचार्य के चरण रूपी कमलों में भ्रमर की समता करता था ( अर्थात चरण कमलों का सेवक था ) उस सोमप्रभ आचार्य ने यह सूक्तिमुक्तावली ( उत्तम वचन रूप मोतियों की माला ) नामक ग्रन्थ रचा। नोट- इति श्रीसिंदूरप्रकराख्यस्य व्याख्यायां वर्षकीतिभिः सूरिभि विहितायां सामाऊमोऽजगि समाप्तोऽयं प्रन्थः । १. प्रत्येक प्रकरण की समाप्ति पर यह पुष्पिका वाक्य है। १०६ पृष्टः का यह ८१ वाँ श्लोक है• पाने 'धर्मनिधन्धनं तदितरे, श्रेष्ठ दयाल्यापकं । मित्रे प्रीतिविवर्धन रिपुजने, वैरापहारक्षम ।। भूत्ये भक्तिमरावई नरपती सन्मानसंपादकं । भट्टादौ सुयशस्कर वितरणं, न क्वाप्यहो निष्फलं ॥८॥ इति दान प्रक्रमः १. धर्मस्य कारणं २. अपात्रे ३, दानं विहितं इत्त सत् ।

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