Book Title: Suktimuktavali
Author(s): Somprabhacharya, Ajitsagarsuri
Publisher: Shanti Vir Digambar Jain Sansthan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसोमप्रभाचार्यविरचित सूक्तिमुक्तावली E संस्कृतटीकाकार : चार अ श्रीहर्ष की तिरि: 134 पूचिन्त्य प्रज्ञाश धारक दुवा कुनि १. प्रविधि सामः जी महा सम्पादक : परमपूज्य १०८ श्री अजितसागरजी महाराज सायक प्रकाशक : श्री शांति वीर दि० जैन संस्थान शांति वीर नगर, श्रीमहावीरजी Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राद्य वक्तव्य दिवंगत आचार्य प्रवर श्री १०८ श्री शिवसागरजी महाराज के सुशिष्य वर्तमान संघनायक परमपूज्य आचार्यकल्प १०८ श्री श्रुतसागरजी संघस्थ १०८ श्री अजितसागरजी महाराज निरन्तर ज्ञानाराधना में तल्लोन रहते हैं। उन्हें सुभाषित श्लोकों का संकलन बहुत प्रिय है इसीके फलस्वरूप उनके द्वारा संकलित सुभाषित मज्जरी के दो भाग और सुभाषितावली ये तीन अन्य प्रकाशित हो चुके हैं । सत्पश्चात १०८ श्री अजितसागरजी महाराज का ध्यान सूक्तिमुक्तावली जिसका दूसरा नाम सिन्दूरप्रकर पर गया। यह लघु काय प्रन्य होते हुये भी बहुत ही लोकप्रिय नीति काव्य है, अपनी सरस और सरल रचना के द्वारा संस्कृत साहित्य में बहुत प्रसिद्ध है। इसमें एक सौ सुभाषिन श्लोकों का संग्रह है, जिसमें धर्मोपदेश, तौीकर भक्ति, जिनमतभक्ति, गुरुभक्ति, संघक्ति, पंच पापों का त्याग, चतुः कषायके दोषों का कथन, गुणिजन सङ्गति, इन्द्रियदमान, दानफल, तपाफल इत्यादि अनेक विषयों पर हृदयमादी वर्णन है। यह रचना सरल, सरस तथा सुबोध है। इन्हीं श्लोकों के आधार पर हिन्दी जैन कषि श्री बनारसीदासजी द्वारा हिन्दी पद्यानुवाद भी रचे गये हैं। जो कई वर्ष पूर्व मूलसहित प्रकाशित हो चुका है। इस मूल प्रन्थ के कग भी सोमप्रभाघार्य हैं। ये अपने समय के सुप्रतिष्ठित विद्वान थे, धर्म शास्त्रों का तलस्पर्शी अध्ययन किया था, तर्क शास्त्र में ये बहुत पटु थे, काव्य रचना में भी इनकी अच्छी गति थी, व्यास्थानकला में ये अति निपुण थे। प्रस्तुत प्रन्थ की संस्कृत टीका के रचरिता श्री हर्षकीर्ति सूनि हैं। आप वैद्यक, ज्योतिष छन्द, व्याकरण और काम्य आदि अनेक Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयों के सुप्रसिद्ध विद्वान थे । अतः प्रस्तुत प्रन्थ को परम पूज्य १०८ श्री अजितसागरजी महाराज द्वारा जन साधारण जीवों के सदुपयोगी जान सम्पादन कर पाठकों के प्रस्तुत किया जा रहा है । आशा है पाठकगण इससे यथार्थ लाभ उठावेंगे। इसके प्रकाशन में श्री नंदलालजी मांगीलालजी पोस्ट डोमापुर ( नागालेण्ड ) निवासी ने आर्थिक सहयोग देकर अपनी चषचल लक्ष्मी का सदुपयोग किया है, एतदथ उन्हें शतशः धन्यवाद है । न. लाइमल अधिष्ठाता श्री शांतिवीर गुरुकुल, श्री महावीरजी अथ समर्थयति ? सोमप्रभाचार्यममा च यन्न पुंसां तमः पङ्कमपाकरोति । तदप्यमुष्मिन्नुपदेशलेशे निशम्यमानेऽनिशमेति नाशं ॥ ९९ ॥ व्याख्या - सोमप्रभा चन्द्रकान्तिश्च पुन अर्थमभा अर्यमा सूर्यो भा प्रभा सूर्यप्रभाऽपि पुंसां ( जीवानां ) यत्तमःपङ्क अन्धकारकर्दमं न अपाकरोति न दूरीकरोति । तदपि तादृशमपि समः पङ्क' श्रज्ञानपापं भमुष्मिन् उपदेशलेशे ( धर्मोपदेशलपेपि ) निशम्यमाने श्रयमाणे सति अनिशं निरन्तर नाशं चयं पति बाति । एतच्छुवरणाचमः अज्ञानं पापं च याति । अत्र सोमप्रभाचार्य इति प्रन्थकृता वनामापि सूचितं ॥ ६६ ॥ इति पाठान्तरम् । 2 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनस्तुतिः त्रिभुवनगुरो ! जिनेश्वर परमानन्दैककारणं कुरुष्व । मयि किङ्करेऽत्र करुणां यथा तथा जायते मुक्तिः ॥१॥ निर्विष्णोऽहं नितरामईन् बहुदुःखया भवस्थित्या । अपुनर्भवाय भवहर कुरु करुणामत्र, मयि दीने ||२|| उद्भर मां पतितमतो विषमाद्भवकूपतः कृपां कृत्वा । अहेन्नलमुद्धरणे त्वमसीति पुनः पुनर्वच्मि ॥३॥ स्वं कारुणिका स्वामी स्वमेव शरणं जिनेश तेनाऽहम् । मोहरिपुदलितमानं पूत्करणं तत्र पुरः कुर्वे ॥४॥ प्रामपतेरपि करुणा परेण केसाप्युपद्रुते पुंसि । जगतां प्रभो! नकिं तव जिन मयि खलु कर्मभिः प्रहते ॥५।। अपहर मम जन्म दयां कृत्वा चेत्येकवचसि वक्तव्यं । तेनाविदग्ध इति मे देव बभूव प्रलापित्वम् ॥६॥ तब जिन चरणाजयुगं करुणामृतशीतलं यावत् । संसारतापतप्तः करोमि हृदि तावदेव सुखी ॥७॥ जगदेकशरण ! भगवन् ! नौमि श्रीपचनन्दितगुणोध । कि बहुना कुरु करुणामत्र जने शरणमापन्ने ||८|| Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनारसी विलास में प्रकाशित सूक्तिमुक्तावली में निम्न पांच श्लोक विशेष पाये आते हैं : वाञ्छा सज्जन संगमे गुरुजने प्रीतिर्गुरोर्नम्रता, विद्याया व्यसनं स्वयोषितिर तिर्लोका पचादाद्भयं । भक्तिश्चाईति शक्तिरात्मदमने संसर्गमुक्तिः खले, यस्यैताः परिणामसुन्दरकलाः श्लाध्यः स एव क्षितौ || १ || निन्दां सुश्च रामामृतेन हृदयं स्वं मिश्च ऋण क्रुधं, सन्तोषं भज लोभमुत्सृज जनेष्वात्मप्रशंसां त्यज । मार्गा वर्ड कर्म वर्जन सार्मिकेष्वर्जय श्रेयो धारय त वारय मदं स्वं संसृतेस्तारय || २ || आलस्यं त्यज संश्रयोद्यममलं सेवस्व पादौ गुरोः दुष्पापानि वचांसि कृत्यमखिलं जानीकत्यं तथा । देवं पूजय संघमर्चय कृपामन्योपकारं तपोदानं सत्यवचो भवद्भयमयं पंथा ऋजुः सद्गतेः ॥ ३ ॥ यदि वहति हि दंडं नग्नमुण्डं जटां वा, यदि वसति गुहायां वृक्षमूले शिलायां । यदि पठति पुराणं वेदसिद्धांततत्त्वं, यदि हृदय शुद्धं सर्वमेतन किंचित् ॥ ४ ॥ ॥ यथा न सीदन्ति गुरूपदेशा यथा च न स्युः विशुनप्रवेशाः । यथा च धर्मः समुपैति वृद्धिं प्रवर्तनीयं च तथा भवद्भिः || Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयसूची कमर्सम्या विषयनाम मङ्गलाचरणम् धर्मोपदेशप्रक्रमः उपदेशद्वार प्रकमः तीर्थकरभक्तिप्राक्रमः गुरुभक्तिप्रक्रमः जिनमतभक्तिवक्रमः संघभक्तिप्रकमः भहिंसाप्रक्रमः सत्यप्रक्रमः अस्तेयप्रक्रमः मानवप्रकमा परिग्रहश्यागप्रक्रमः कोषजयप्रक्रमः मानजयरक्रमः मायात्यागक्रमः लोमत्यागप्रक्रमः सौजन्यप्रक्रमः गुणिसङ्गतिप्रक्रमः इन्द्रियजयप्रक्रमः लक्ष्मीस्वभावप्रक्रमः Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संख्या क्रम संख्या विषय दानप्रक्रमः तपःप्रक्रमः भावनाप्रकमः ११२ राग्यप्रकाम: सामान्योपदेशप्रक्रमः प्रशस्तिः पञ्चपरमेष्ठिस्तुतिः आचार्यकल्प श्रीश्रतसागरस्तुतिः १३६ सूक्तमुक्तावल्यां प्रयुक्तछन्दानां विवरणं क्रमाङ्क छन्द नाम शार्दूलविक्रीडित इन्द्रवना मन्दाकान्ता शिखरिणी वंशस्थ मालिनी हरिशी वसन्ततिलका पेन्द्रवना पृथ्वी स्रग्धरा कुल १.० Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीतरागाय नमः श्री सोमप्रभाचार्य विरचिता ) सूक्तिमुक्तावली $ ( वर्ष कीर्तिमूरिकृत व्याख्यासहिता ) [ मङ्गलाचरणं ] श्रीमत्पार्श्वजिनं नत्वां स्वावसायस्य कारकं । सयः संस्मृतिमात्रेण प्रत्यूहव्यूहवारकं ॥ १ ॥ श्रीचन्द्रकीर्त्तिसूरीणां सद्गुरूणप्रसादतः । सिन्दूरप्रकरव्याख्या, क्रियते हर्षकीर्तिना || २ || युग्मं अथ प्रन्थकर्ता आदी इष्टदेवताचरणरमरणरूप मंगळाचरणपूर्वकं श्रोतृन् प्रति आशीर्वादवृत्तमाह 1 ( शार्दूलविक्रीडित छन्दः ) सिन्दूरप्रकरस्तपः करिशिरःकोडे कषायाटवी दावाच्चिनिचयः प्रबोध दिवसमारंभसूर्योदयः । Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली मुक्तिस्त्रीकुचकुंभकुंकुमरसः श्रेयस्तरोः पल्लव प्रोल्लासः क्रमयो खद्युतिभरः पार्श्वप्रभोःपातु वः ।।१।। व्याख्या-पाचप्रभोः श्रीपानाथस्य कमयोश्चरणयो नखद्य तिभरः नखकांतिसमूहो वो युष्मान् पातु अवतु रक्षतु। कषभूतो नखद्य विभरः सपःकरिशिरको सिदूरप्रकरः तप एव करी हस्ती तस्य शिरःक्रोसोमस्तकमध्यभागःकुम्भस्थलं तत्र सिंदूरप्रकरः सिन्दूरपुर कुकुमसहशा नखा तिभरस्य रक्तस्वात् । सिन्दूरप्रकरोपमः पुनः कयंभूतः कपायादषी दायाधिर्निचयः कषायाः । क्रोधमानमायालोभास्त एव अदवी अरण्यं वनं तस्याः दायाचिनि- ' चयः वासनिया मदतु यः : कुन कार्यभूसः प्रशोषदिवसप्रारंभसूर्योदयः प्रबोधो ज्ञान स एव दिवसो दिनं तस्य प्रारभे उदये सूर्योदयसमानः । पुनः कथंभूतः मुक्तिस्वीकुचकुम्भ कुमरस: मुक्तिरेव स्त्री तस्याः कुचाषेत्र फुभौ तत्र फुकुमरस: काश्मीरजन्म द्रवलेपतुल्यः । मुक्तिस्त्रीववनककु कुमरसः इति वा पाठः । पुनः कयंभूतः अयस्तरो.पल्लवप्रोल्लास: श्रेयः कल्याणमेव सरु वृक्षस्तस्य पल्लवानां नूतन पत्राणां प्रोल्लास: उद्गमः। ईरशः पार्श्वप्रभोः क्रमयोश्चरणयोर्नख लिभरो वो युष्मान् पातु रक्षतु। नखद्य तिभरस्य रक्तवर्णस्वात् । रक्ता एवोपमा। भो भव्यप्राणिन ! एवं ज्ञात्वा मनसि विवेकमानीय श्रीपार्श्वनाथस्य चरणकमलो एव सेव्यो। सेवमानानां यत्पुण्यमुत्पद्यते तत्पुण्यप्रसापात उत्तरोत्तरमांगलिक्यमाल विस्तरन्तु ॥ १॥ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली अर्य--पार्श्वप्रभु के चरणों की नख की कान्ति का समूह तुम्हारी रक्षा करे यह आचार्य का सबके लिये आशीर्वाद है। वह नख कान्ति समुह कैसा है उसका उत्प्रेक्षालंकार रूप उपमा में वर्णन किया गया है: __ भगवान के द्वारा किया गया जो तप [ उप्रतपस्या ] वही हुआ हाथी, उस हाथी के मस्तक में लगे हुये सिन्दूर का समूह ही है. मानों, कषाय रूपी बनी को भस्म करने के लिये दावानल ही है मानों, ज्ञान रूपी दिन का प्रारम्भ सूर्य का सदय ही है मानों (क्योंकि सूर्य उदय होते समय लाल होता है और भगवान के नख भी लाल हैं) मुक्ति स्त्री के स्तन कमश की केशर ही है मानों, कल्याण रूपी वृक्ष की कूपल का हर्षोल्लास है मानों, इसप्रकार पार्य प्रभु का नख-कान्ति-समूह तुम्हारी तथा हम सब की रक्षा करे। अय कविः सज्जनपुरुषान् प्रति स्वविज्ञप्तिमाहसन्तः सन्तु मम प्रसन्नमनसो वाचां विचारोद्यता: सूतेऽम्मः कमलानि तत्परिमलं वाता वितन्वंति यत् । किंवाभ्यर्थनयानय यदि गुणोऽस्त्यासां ततस्ते स्वयं कारः प्रथनं न चेदथ यशःप्रत्यर्थिना तेन किं ॥२॥ व्याख्या-सन्त: सज्जना मम प्रसन्नमनसः संतु ममोपरि प्रसन्नचित्ता भवंतु किंविशिष्टाः संतः पाचां विचारोद्यताः वाचा कविवाणीनां विचारे सदसद्विचारे उद्यताः सावधानाः। इयं कविवाणी समीचीना इयं असमीचीना इति विचारज्ञाः । यत् Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली यस्मात् कारणात अम्भः पानीयं कमलानि सूते उम्पादयति पर तत्परिमलं तेषां कमलाना आमोदं वासा वायवो वितन्वति विस्तारयन्ति । तथा एनं अथं रचयिष्यामि परं ग्रन्यस्य विस्तारणं सजनाः करिष्यन्ति यतः पद्मानि बोधयत्यक"। काव्यानि कुरुते कविः तत्सौरमं नभस्वंतः सन्तस्तन्वन्ति तद्गुणान् । वा अथवा अनया मम मे अभ्यर्थनया सतामने प्रार्थनया किं अपि तु न किमपि कुतः यदि चेस भासां मम वाणीनां मध्ये गुणोऽस्ति ततस्तदा ते सन्तः स्वयमेव प्रथनं विस्तारं कर्तारः करिष्यन्ति यदि अस्मिनशास्त्र कश्चिद् गुणोभविष्यति तदा सन्तः स्वयमेव ममाभ्यर्थनया विनैव विस्तार करिष्यन्ति । अथ यदि चेत आसां मम वाणीनां मध्ये गुणो नास्ति तवा तेन प्रथनेन विस्तारणेन किं अपितु न किमपि । कथंभूतेन तेन प्रथनेन विस्तारणेन यशःप्रत्यर्थिना यशसः प्रत्यर्थि शत्रुभूतं यत्तत् यशःप्रत्यर्थि सेन यशःप्रत्यर्थिना यशसो विनाशकेन निर्गुणस्य विस्तारणेन अयश एव भवतीत्यर्थः ।। २ ।। अर्थ-निर्मल चिस वाले ससुरुष मेरे वचनों के विचार में लामवान् हो । जैसे जल कमलों को उत्पन्न करता है परन्तु पवन ( वायु ) मनको सुगन्ध को फैलाता है। कमलों की प्रार्थना से पवन सुगन्ध को नहीं विस्तृत करता परन्तु अपने स्वभाव से ही विस्तृत करता है उसी प्रकार यदि मेरे वचनों में गुण (पाहता का अंश ) है तो प्रार्थना से क्या लाभ और यदि गुण विद्यमान नहीं हैं तो भी प्रार्थना कर क्या साध्य है। भावाथ-इस श्लोक में भाचार्य ने अपनी लघुता एवं बड़े आचार्यों की महत्ता प्रगट की है कि-सत्पुरुष स्वभाव से ही गुण Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली पाही होते हैं दूसरों के दोषों को ग्रहण कमी नहीं करते । आचार्य कहते हैं कि हम इस काव्य प्रन्थ का निर्माण कर रहे हैं सो पूर्व भाचार्यों की परम्परा से कर रहे हैं, अपनी बुद्धि से नहीं। इस हेतु ( कारण ) से इम कर्त्ता नहीं हैं। केवल भक्ति के अनुराग से ग्रन्थ रचना की है। अतः प्रमाद यश से कहीं पर भूल चूक हो तो सज्जन पुरुष विचार कर शुद्ध करलें। क्योंकि उनका स्वभाव ही ऐसा होता है जो गुण प्रहण ही करते हैं दोषों पर दृश्रिपात नहीं करते तो पेसी दशा में उनसे प्रार्थना करने से क्या प्रयोजन ? क्योंकि यदि हमारे वचनों में गुण होंगे तो वे सामन पुरुष विस्तार ही करेंगे और यदि दोष होंगे तो दोषों को दूर कर विस्तार करेंगे। जैसे जख कमलों को उत्पन्न करता है परन्तु पवन गन्ध को फैलाता है क्योंकि पवन का खभाव यही है। इसी प्रकार प्रन्थकर्ता को यदि यश नहीं तो यशविस्तार की प्रार्थना करने से क्या प्रयोजन है ? यदि यश है तो भी प्रार्थना करने से क्या प्रयोजन १ अतः सज्जन पुरुष मुझे बालक समझ कर अनुग्रह बुद्धि कर शुद्ध करेंगे ही। इस प्रकार प्रत्यकार ने अपनी लघुता प्रदर्शित की है। अथ विहितसकलसुरासुरसेवाय देवाधिदेवस्य श्रीवीसरागस्यागमानुसारेण भन्यानां हितहेतवे धम्मोपदेशमाइ इन्द्रवन्नाछन्दः वित्रर्मसंसाधनमन्तरेण, पशोरिवायुर्विफलं नरस्य । तत्रापि धर्म प्रवरं वदंति, न तं विना यद्भवतोऽर्थकामौ ।।३।। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली व्याख्या-मो भव्याः त्रिवर्गसंसाधनमंतरेण नरस्य आयुः पशोरिव विफलं ज्ञेयम् । धर्मार्थकाममोक्षाश्चत्वारः पुरुषार्थाश्चतुर्व- . गस्तेिषां मध्ये साम्प्रतं अस्मिन् भरतक्षेत्रे मोक्षः साधयितुं न शस्यः । अतः कारणात शेषास्त्रिवर्गाः धर्मार्थकामरूपास्तेषां त्रिवर्गाणां संसाधनं उपार्जनमन्तरेण विना नरस्य मनुष्यस्य आयुः श्रीवितं पशोरिव विफलं निष्फल वृथत्यर्थः । थेन नरेण धमाकामानां साधनमुपा नं न क्रियते तस्य जीवितं पशोरिव छागदेरिव वृथा निष्फलं । तथा चोरू। धर्मार्थकाममोक्षाणां, यस्यैकोऽपि न विद्यते । अजागलस्तनस्येव निःफलं तस्य जीवितम् ॥१॥ इति ! ते अयोपि किं सहशाः वा किनिदन्तमित्याह तत्रापि त्रिवर्गपि धर्म प्रवरं वदति श्रेष्ठ कथयन्ति । कुतः यत् यस्मात् कारणात् तं धर्म विना अर्थकामो न भवतः । येन पुरुषेण पूर्वमन्मनि पर्मः कृतो भवति तस्यैवानार्थकामौ भवतः नान्यस्य । यदुरा कि जंपिणेन बहुणा जं जं दीसइ समच्छ जियलोए । इंदियमणोभिरामं तं तं धम्मफलं सव्वं ॥३॥ अतः कारणात् त्रिवर्णो धर्म एव श्रेष्ठः । भो भव्यप्राणिन् ! एवं ज्ञात्वा मनसि विवेकमानीय श्रीसर्वज्ञप्रणीतो धर्म एवं आचररणीयः । धर्ममापरता सतां यत्पुण्यमुत्पद्यते तत्पुण्यप्रसादात् सत्तरोत्तर मांगलिक्यमाला आविर्मयतु विस्तरंतु ॥ ३ ॥ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली अर्थ-धर्म, अर्थ, काम इन तीन पुरुषार्थों के साधन बिना मनुष्य की आयु पशु-समान है और उनमें धर्मं पुरुषार्थ सबसे मुख्य है। क्योंकि धर्म के बिना अर्थ - पुरुषार्थ और काम पुरुषार्थ की सिद्धि नहीं होती । - अथ नरभवस्य दुर्लभत्वमाह यः प्राप्य दुष्प्राप्यमिदं नरत्वं धर्मं न यत्नेन करोति मूढः । क्लेशप्रबन्धेन स लब्धमधौ, चिन्तामणि पातयति प्रमादात् ॥४॥ व्याख्या - यो मूढो मूर्खः इदं दुष्प्राप्यं नरत्वं प्राप्य यत्नेन उद्यभेन धर्मं न करोति स क्लेशप्रबन्धेन लब्धं चिन्तामणि रत्नं प्रमादात् आलस्यात् अध समुद्रे पातयति । यो मूर्खः पुमान् दुःखेन महस्क ेन प्राप्यं । 'चोर' पास'ं' जूबा' रमणार' सुमणि' 'चक्कं वा । कुम्मं जुग मणुयलंभे " ।। १० परमाणु दस दिता ब० पू० ३६७ t इत्यादि दशभिर्हप्रान्तैः । एवं दुर्लभं नरत्वं मनुष्यजन्म प्राप्य लब्ध्वा यत्नेन सावधानतया श्रीवीतरागप्रणीतं धर्मं न करोति उत्प्रेक्षते । सः पुमान् क्लेशप्रवन्धेन महता कष्टेन अतिप्रयासेन लब्धं प्रत्यक्ष प्राप्तं चिंतामणिरनं प्रमादाद् अन्य समुद्र पातमति । अत्र ब्राह्मण रस्नीपदेव्या एवं चिंतामणिरत्नं समुद्र पातनसम्बन्धो वाध्यः | भो भव्यमाखिम् । एवं ज्ञास्या मनसि विवेकमानीय मनेन धर्म एव कायैः । Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली धर्म च कुर्वतां सतां यत्पुण्यमुत्पद्यते तत्पुण्यप्रसादादुत्तरोत्तरमाणलिक्यमाला पिस्तरन्तु ॥ ४॥ अर्थ-जो अज्ञानी कठिनता से प्राप्त होने वाले इस मनुष्य पर्याय को पाकर भी सर्वज्ञ वीतराग प्रणीत धर्म को यत्न से ( सावधान होकर ) सेवन नहीं करता वह अज्ञानी कष्टों से प्राप्त किये हुए चितामणि रत्न को प्रमाद से समन में फेंकता है। भावार्थ-मनुष्य भव की प्राप्ति विशेष पुण्योदय से होती हैं। प्रद्धापूर्वक वीतराग वेष, जिनागम एवं निर्गन्ध गुरुओं की भक्ति करना ही इस मनुष्य जन्म की सफलता प्राप्त करना है। जो ऐसा न करके सांसारिक विषय वासनाओं में लिप्त होकर मर्निश ( रातदिन ) व्यतीत करते हैं वे अज्ञानी हैं, वे मानों बड़े परिश्रम से प्राप्त चिन्तामरिण रनको पाकर समुद्र में फेंकते हैं। इसलिये धर्म साधन कर मनुष्य जन्म सफल करना योग्य है। आगे इसी कथन को दृष्टान्त द्वारा हद करते हैं अथ मनुष्यभयस्य सर्वोत्कृष्टत्वमाह मन्दाक्रान्ताछन्दः स्वर्णस्थाले क्षिपति स रजः पादशौचं विधत्ते, पीयूषेण प्रवरकरिणं वाहपत्येन्धभारम् ।। चिन्तारत्नं विकिरति कराद्वायसोडायनार्थम्, यो दुष्प्राप्यं गमयति मुधा मय॑जन्म प्रमसः ॥५) Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली व्याख्या--य: पुमान् प्रमत्तः सन् प्रमारस्य वशं गतः सन् शं परितः सन् विपाशालिकमा मापातः सन् दुष्प्रापं चतुरशीतिलक्ष जीवयोनिपु भ्रमता जोवेन दु.खेन महता कष्टेन प्राप्यं यत् मयंजन्म मनुष्यभवं नत् मुधा वृथा श्रीजिनधर्म विना निष्फलं गमति । स पुमान् स्वर्णस्याले रजो धूलि कचरादि क्षिपति स्वर्णस्थालतुस्थं मर्त्य जन्म रजःसदृशाः प्रमादाः । पुनः स पुमान् पीयूषेण अमृतेन कृत्वा पादशौचं चरणप्रक्षालनं विधरो करोति । पीयूषस्य विन्दुमात्रपानेनाऽजरामरत्वं स्यात् तत् पादप्रशालनार्थं वृथा गमयतीत्ययुक्त । पुनः स पुमान् प्रवरकरिणं प्रधानदस्तिनं ऐन्धभार कासमूहं वायति यस्मिन् गजे द्वारे बद्धे सति शोभा भवति तेन इन्धनानयनमयुक्त । पुनः स पुमान वायसोडायनार्थ काकस्य उड्डायननिमित्त चिंतामणिरत्नं करा हस्ताद् त्रिकिरति विक्षिपति यया मनोवांछितार्थायकस्य चिन्तामणिरत्नस्य काकस्य उडायनाय विक्षेपणमयुक्त तया धर्मसाधकेन मयंजन्मना प्रमादसेवनमयुक्तं । भो भव्यप्राणिन् । एवं ज्ञास्या मनसि विषेकमानीय प्रमादं त्यक्त्वा धर्मेण कृत्वा मनुष्यजन्म सफल कार्य धर्ममाचरतां सतां यत्पुण्यमुत्पद्यते तत्पुण्यप्रसादादुसरोत्तरमाङ्गलिक्यमाला विस्तरन्तु ॥५॥ अर्थ-जो प्रमादी पुरुष दुर्लभ मनुष्य जन्म को पाकर व्यर्थ ही विषय कषाय सेवन, विकथा श्रवण, जूआ खेलना आदि में गमाता है वह मानों सोने के थाल में धूल भरता है अर्थात् सुवर्ण थाल में दूध दही धी मिनी आदि सुन्दर स्वादिष्ट भोजन करना चाहिये था किन्तु मुर्ख बस स्वर्ण थाल में धूल भरने का कार्य Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० सूक्तिमुक्तावली श्र करता है । अथवा वह अमृत को पाकर उसे पैर धोने के काम में लाता है, अथवा महान् हाथी को पाकर उससे ईन्धन ढोने का काम करता है, या वह मूर्ख आदमी कौवे को बढ़ाने के लिये चिन्तामणि रत्न को फेंकता है 1 ) ये तु असाराणां विषयाणां कृते धर्मम् स्वजन्ति ते मूढा एवेत्याह- शाहू विक्रीडित छन्दः ते धच रतरुं वपन्ति भुवने प्रोन्मूल्य कल्पद्रमं चिन्तारत्नमवास्य काचशकलं स्वीकुर्वते ते जड़ाः । विक्रीय द्विरदं गिरीन्द्रसदृशं क्रीणन्ति ते रासभं ये लब्धं परिहृत्य धर्ममधमा धावन्ति भोगाशया ॥ ६ ॥ व्याख्या – ये अधमाः मूर्खाः पुरुषाः लब्धं प्राप्तं धर्म परिहृत्य त्यक्त्वा भोगाशया विषयवाच्या धावन्ति विषयार्थी प्रवर्ततं ते नरा भवने स्वगृद्दे ओोद्गतमुत्पन्न कल्पवृक्षं प्रोन्मूल्य स्वाय धतूर वृक्षं वपन्ति आरोपयन्ति पुनस्ते जहा: मूर्खाः चिन्तामणिरत्नमपास्य त्यक्त्वा दूरीकृत्य काचशकलं काचरखएडं स्वीकुर्वते गृहन्ति पुनस्ते जढा गिरीन्द्रसदृशं पर्वतप्रायकार्यं तवं द्विरवं हस्तिनं विकीय रासभं गर्दभं कीन्ति मूल्येन गृह्णन्ति । अथ कल्पवृक्षसदृशो धर्मः धन रसदृशा भोगाः एवं सर्वत्रोपनयः । मो भव्यप्राणिन् ! एवं ज्ञात्वा ५ मनसि विवेकमानीय कल्पवृक्ष चिन्तामणिसदृशः श्रीधर्म एवाराध्यः धर्ममाराधयतां सतां यत्पुण्यमुत्पद्यते तत् पुण्यप्रसादादुत्तरोत्तर मांगलिक्यमाला विस्तरन्तु || ६ || Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " सूक्तिमुक्तावली ११ अर्थ- जो नीच पुरुष पवित्र एवं कल्याणकारी वीतराग धर्म को पाकर भोगों की आशा से उसे छोड़ कर अन्य संसार के कामों में दौढ धूप लगाते हैं अर्थात् विषय भोगों में मग्न हो जाते हैं वे बुद्धि महल में लगे हुए कल्पवृक्ष को उखाड़ कर धतूरे के पेड़ को बोते हैं, चिन्तामणि रत्न को दूर फेंक कर कांच का टुकड़ा स्वीकार करते हैं, पर्वत सदृश ऊंचे हाथी को बेच कर गधे को खरीदते हैं। अथ नरभवस्य धर्मसामप्रचाश्च दुर्लमस्त्रमाहशिखरिणी छन्दः अपारे संसारे कथमपि समासाद्य नृभवं न धर्मं यः कुर्यादिपरः। बढन् पारावारे प्रवरमपहाय प्रवहणं स मुख्यो मूर्खाणामुपलमुपलब्धुं प्रयतते ॥ ७ ॥ व्याख्या - त्रः पुमान् विषयसुखतृष्णातर छितः सन् विषया कामभोगानां शब्द रूपरसस्पर्शगन्धानां सुखस्य तृष्णा बांच्छा तया तरलितो व्याहितो व्याकुलीकृतः सन् अपारे अनंते संसारे कथमपि महता कष्टेन नृभवं मनुष्यजन्म समासाद्य प्राप्य घम्मं न कुर्यात् न करोति स पुमान् पारावारे समुद्र व दन् निमज्जन् प्रत्ररमुत्तमं प्रवहणं पोतं अपाय त्यक्त्या तरणार्थमुपलं पाषाणं उपलब्धु गृहीतुं प्रयतते यत्नं करोति उद्यमं करोति कथंभूतः स मूर्खाणां मुख्यः मूर्खेषु वृद्धमूर्खः । अत्र संसारः समुद्रः धर्मः प्रवहणं, विषया: पाषाणसदृशाः इत्युपनयः । भो भव्यप्राणिन् । इति ་ त्वा मनसि Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली विवेकमानीय संसारसमुद्रतारकः श्रीधर्म एवाराध्यः आरामवतां च तत्पुण्यप्रसादादुत्तरोत्तरमाङ्गलिक्यमाला १२ सतां यत्पुण्यमुत्पद्यते विस्तरन्तु ॥ ७ ॥ अर्थ - इस अपार संसार में कठिनता से प्राप्त किये गये मनुष्य भव को पाकर जो व्यक्ति इन्द्रिय विषयों के सुख की तृष्णा में आसक्त - सना हुआ सर्वज्ञ वीतराग प्रणीत जिनधर्म को पालन नहीं करता वह मूर्खों में मुख्य कहा जाता है । वह समुद्र में डूबते हुये महान् जहाज को छोड़ कर पत्थर की शिला को पकड़ने का प्रयत्न करता है । अस्मिन शास्त्रे एतान्युपवेशद्वाराणि कथयिष्यन्ते इत्युपदेशद्वारेण वृत्तमाह शार्दूलविक्रीडित छन्द: भक्ति तीर्थकरे गुरौं जनमते संघ च हिंसानृतस्याब्रह्मपरिग्रहाद्युपरमं क्रोधावरीणां जयं । सौजन्यं गुणिसंगमिन्द्रियदमं दानं तपोभावनां वैराग्यं च कुरुष्व निर्वृतिपदे यद्यस्ति गन्तुं मनः ||८|| व्याख्या - भो भव्यप्राणिन् । यदि रात्र निर्वृत्तिपये मोक्ष स्थाने गन्तु मनोऽस्ति तदा त्वं तीर्थाकरे श्रीवीतरागे भक्ति पूजां कुरुष्व । पुनर्गुरौ धर्मोपदेशके मति कुरु । पुनर्जिनमते जिनशासने भक्ति कुरु । पुनस्चतुर्विधसंधे साधुसाध्वीरूपे संघे भक्तिं कुरु । पुनः हिंसाऽनृतस्तेथाऽब्रह्मपरिमहाद्य परमं कुरु । हिंसा जीवषघः प्राणाति Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली पावः । अमृतं असत्यं मृपावादः । स्तेयं चौथ्य अवसादानं अदत्तपर , वस्तुग्रहणं । अब्रह्म मैथुनं स्त्रीसेवा । परिमहोधनधान्यादि दशविधः । एभ्यः परमं निवर्तनं कुरुष्व | पुनः क्रोधायरीणां जयं क्रोधमानमा. यालोभरूपशत्रणां जयं कुरुष्व । पुनः सौजन्यं सुजनभावं सर्पजीवेषु. मैत्रीभावं कुरुष्व । पुन: गुणिसन गुणिनां गुणवतां मनुष्याणां सङ्ग सङ्गति कुरुष्व । पुनः इन्द्रियदर्म पंचेन्द्रियाणां दमनं कुरुष्व । पुनः दानं सुपात्रादिपंचप्रकारं कुरुष्य । पुनस्तपोऽनशनमूनोदावि बाह्य अभ्यन्तरं च द्वादशविधं कुरुष्व । पुनर्भावनां शुभचित्तभावं कुरुष्व । पुनराग्यं संसाराद् भोगादिभ्यश्च विरक्तभावं कुरुष्व । एतानि मोक्षपददायकानि ज्ञात्वा सम्यकप्रकारेणाराधनीयानि | आराधयता सतां यत्पुण्यमुत्पद्यते ना पुण्यप्रगदानगरमांगलिमामाहा विस्तरन्तु ॥ ८॥ अर्थ-हे भव्य जीव : संसार के दुःखों से छूट कर मोक्षपद प्राप्त करने के लिये यदि तेरे मन में इच्छा है तो आचार्यों का उपदेश धारण कर । वह यह है-४६ गुण सहित, १६ दोष रहित तीर्थकर देव की भक्ति कर, २४ प्रकार परिग्रह रहित निर्धन्य गुरुषों की भक्ति कर, दयामई जिनधर्म और चार प्रकार के संघ (मुनि, आर्यिका, भावक, प्राविका ) की भक्ति कर, हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह इन पांच पापों का त्याम कर, क्रोधादि शत्रुओं को जीत, तपा सब के साथ सजनता का व्यवहार, गुणी पुरुषों की संगति, पांच इन्द्रियों को वश में कर और चार प्रकार का दान, बारह प्रकार का तप एवं संसार भरीर मोगों से विरक्तसाधारण Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली कर । ऐसा करने से तेरा संसार परिभ्रमण दूर होगा और आत्मीक अनंत सुख को भोगेगा। अथ यथोडे शस्तथैव निर्देश इति वचनादनुक्रमेण द्वारारिण विवृणोति । तत्र प्रथम चतुर्भिवतः श्रीतीर्थकरभक्तिपूजाद्वारमाह शार्दूलविक्रीडित छन्दः पापं लुम्पति दुर्गति दलयति व्यापादयत्यापदं पुण्यं संचिनुते श्रियं वितनुते पुष्णाति नीरोगा । सौभाग्यं विदधाति पल्लवयति प्रीतिं प्रसूते यशः स्वर्ग यच्छति नितिं च रचयत्यर्चाऽहतां निर्मिता ।।९।। ___व्याख्या--भो भव्यः ! अहंतां जिनानां पूना निर्मिता कृता सती पाएं लुम्पति दूरीकरोति । पुनः दुर्गति नरकादि दुष्टगति दलयति वायति निवारयति । पुनः आप कष्ट व्यापादयति विनाशयति । पुनः पुण्यं धर्म संचिनुते वृद्धि प्रापयति । पुनः श्रियं लक्ष्मी वितनुते विस्तारयति । पुनः नीरोगतां शरीरे आरोग्य पुष्णाति पोषयति । पुनः सौभाग्यं सर्वजनेषु श्लाघनीयतां विदधाति करोति । पुनः प्रीति पल्लषयति उत्पादयति । पुनः यशः प्रसूते यशो विस्तारयति । पुनः स्वर्ग त्रिदिवं देवपदवीं यच्छति ददाति । पुनः निर्वृति मुक्ति रचयति ददाति । भो भव्यप्राणिन् ! एवं ज्ञात्वा मनसि विवेकमानीय सम्य. क्त्वनिमलविधायिनी इहलोके परलोके च सर्वसौख्यदायिनी श्रीजिनपूजा कार्या । तत् कुर्वतां सतां यत्पुण्यमुत्पद्यते तत्पुण्यप्रसादादुसरोत्तरमांगलिक्य माला विस्तरन्तु ॥ ५ ॥ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली अर्य-खो भव्यात्मा श्रीअरहन्त बीसराग प्रभू को भाव . मक्ति से (घद प्रज्ञा पूर्वक ) पूजन करते हैं उनके जन्म जन्म के संचित पापों का लोप ( नाश ) हो जाता है, दुर्गति का नाश होता है, धापत्तियां दूर हो जाती हैं, पुण्य का भण्डार भर आता है, इन्द्रादि पद की लक्ष्मी प्राप्त होती है, शरीर निरोग रहता है, सौभाग्य बढ़ता है, सबसे श्रीति बढ़ती है अर्थात उसे सब प्यार करते हैंसब चाहते हैं, संसार में उनकी कोति फैलती है, स्वों का निवास मिलता है और तो क्या 1 मुक्तिपद की भी प्राप्ति होती है। ) पुनः श्रीजिनपूजाफलमाह शार्दूलविक्रीडितछन्दः स्वस्तस्य गृहांगणं सहचरी साम्राज्यलक्ष्मीः शुभा सौभाग्यादिगुणावलिविलसति स्वैरं वपुर्वेश्मनि | संसार: सुतरः शिवं करतलकोडे लुठल्यञ्जसा, या श्रद्धाभरभाजनं जिनपतेः पूर्जा विधचे जनः ॥१०॥ ___ व्याख्या-यो जनः श्रद्धाभरभाजनं सन् श्रद्धा रुचिस्वस्याः भरः प्रचुरता तस्या भाजनं त्यानं माजनशब्दस्याऽजहल्लिंगत्वात नपुंसकत्वं शुभभावनायुक्तः सन् जिनपतेः श्रीवीतरागदेवस्य पूजा विघको करोति तस्य जनस्य स्वर्गो देवलोको गृहांगणं गृहत्यांगणयनिकटो भवति । पुनः शुभा मनोरमा साम्राज्यलक्ष्मी राज्यऋद्धिस्तस्थ सहपरी सावर्तिनी भवति । पुनर्वपुर्येश्मनि बपुरेव शरीरमेव वेश्म गृह तरिमन् सौभाग्यधैय्यौदार्थचातुर्यादिगुणानां भावलिः श्रेखि: Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली स्वैरं स्वेच्छया विलसति भागत्य बिलासं क्रीडां करोति तितीत्यर्थः पुनः संसार सुखेन तीयते इति सुतरः सुखेन तरीतुं शक्यो भवति । पुनः शिगं मोक्षं अन्नसा शीघ्र तस्य करतलकोडे हसतलमध्ये लुठति हरतगोचरो भवतीत्यर्थः । अतोऽहतां पूजा कार्या। तत्रातिश्चसुविधाः नामस्थापनाद्रव्यमावभेदात् । णामजिणा जिणणामा उपजिरणा तह य ताह पहिमाओ। जिणा जिणजीवा भावजिणा समवसरणत्या ।। इति भो भव्यप्राणिन् । एवं ज्ञात्वा मनसि विवेकमानीय अर्हतां पूजा कार्या 1 तस्कुर्वतां च सतां यस्पुण्यमुत्पद्यते तत्पुण्यप्रसादादुत्तरोत्तरमांगलिक्यमालिका विस्तरन्तु ॥ १० ॥ ___ अर्थ-श्रद्धा का भाजन जो पुरुष श्री जिनेन्द्रदेव की पूजा करता है, स्वर्ग उसके घर के आंगन के समान है, चक्रवर्ती इन्द्र धरणेन्द्र की लक्ष्मी उसकी दासी हो जाती है, सौभाग्य आदि गुण उसके शरीर रूपी घर में स्वच्छन्द क्रीडा ( विलास ) करते हैं, विकट संसार उसके द्वारा आसानी से पार करने योग्य हो जाता है, और तो क्या ? निश्चय से उसके हाथों के मध्य मोक्ष का सुख लोटता है अर्थात शीघ्र ही निर्मल मोक्ष पद प्राप्त कर लेता है। विशेष---जैसे किसी बर्तन ( पात्र ) में कोई वस्तु रखी जाती है उसी प्रकार जो पुरुष अपने हृदय में वीतराग देव की श्रद्धा भर लेता है तो उसको तत्काल सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। नदीश्व द्वीप की पूजन में उल्लेख है कि उन भकृत्रिम चैत्यालयस्थ वीसरा Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली प्रतिमाओं के दर्शन पूजन से सम्बग्दर्शन का धारी देव हो जाता है मनुष्यों का तो वहां आवागमन ही नहीं है। मनुष्यों तिर्यंचों के भी वीतरागदेव के दर्शन पूजन से सम्यक्त्व का आविर्भाव (उत्पत्ति ) हो जाता है ऐसा शास्त्रों में ( सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक आदि में ) कथन है । कहा है। : जिने भक्तिर्जिने भक्ति, र्जिने भक्तिर्दिने दिने । सम्यक्तमेव संसार बारणं मोक्षकारणम् ॥ अर्थात् जिनेन्द्र वीतराग देवकी भक्ति सम्यक्त्व की उत्पत्ति में प्रधान कारण है और सम्यक्त्व संसार का छेदक तथा मुक्तिका कारक है उससे अन्य सांसारिक संपत्ति तो सहज ही मिल जाती है। पूजायाः प्रभावमाइ शिखरिणी छन्दः कदाचिन्नातङ्कः कुपित इव पश्यत्यभिमुखम् विदूरे दारिद्र्य चकितमिव नश्यत्यनुदिनम् । विरक्ता कान्तेव त्यजति कुगतिः सङ्गमुदयो न मुञ्चत्यभ्यर्णं सुहृदिव जिनाच रचयतः || ११|| व्याख्या - जिनाची श्रीवीतरागस्य पूजां रचयतः कुर्वतः पुरुषस्य आतंको भयं कदाचित अभिमुखं सम्मुखं न पश्यति न विलोकयत क इव कुपित इव यथा कश्चित् कुपितो रुष्टो भवति । स यथा तस्य सम्मुखं न पश्यति । तथेत्यर्थः । पुनः दारिद्रयं दरिद्रत्वं अनुदिनं निरन्तरं तस्य दूरे नश्यति दूरे याति । किमिव चकितमित्र भयभीतमिव | पुनर्नरकादिकुगतिस्तस्य सङ्ग समीपं स्वजति मुखति Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ सूक्तिमुक्तावली का इव विरक्ता कुपिता रुष्टा कांता इव स्त्रो इव यथा विरक्ता श्री भत्तः सङ्ग त्यजति तथेत्यर्थः । पुनः उदयः अभ्युदयः प्रतापैश्वया। दिवृद्धिस्तस्याभ्यणं समीपं न मुंचति न त्यजति क इच सुहृदिय मित्र इव । अतोऽहंतां पूजा कार्या । अरूं च भो मत्र्यप्राणिन् । एवं ज्ञात्वा मनसि विवेकमानीय श्रीजिनपूजा कर्तव्या। कुर्वतां च सतां यत्पुण्यमुत्पद्यते तत्पुण्यप्रसादादुत्तरोत्तरमांगलिक्यमाला विस्तरन्तु ॥ ११ ॥ अर्थ--जो पुरुष श्री वीतराग जिनराज प्रभू की पूजा करते हैं उनके आतङ्क अर्थान् रोग कोपायमान हये के समान कभी भी सन्मुख नहीं आता है अर्थात वे कभी भी अपने सामने रोग को आया हुआ नहीं देखते हैं। वीतराग प्रभू के पूजक पुरुष सदैव स्वस्थ नीरोग रहते हैं, दरिद्रता चकित हुये पुरुष की तरह दिन प्रति दिन दूर ही से नाश को प्राप्त हो जाती है अर्थात उनके दरिद्रता कभी नहीं आती, सदैव लक्ष्मी से भरपूर भण्डार रहते हैं, कुगति-अपने पति से विरक्त हुई स्त्री की तरह संग छोड़ कर चली जाती है अर्थात् वीतराग के पूजक---दुर्गति नरक तिथंच कभी भी प्राप्त नहीं करते किन्तु मरकर सुगति में पैदा होते हैं जहाँ उन्हें आत्मकल्याण के अनेक साधन मिलते हैं। तथा उनके महान माग्यरूपी सूर्य का उदय होता है जो उनका कभी भी मित्रके समान साय नहीं छोड़ता किन्तु सदा साथ रहता है जिससे वे भव भव में सुखी रहते हैं। ऐसा जिनेन्द्र पूजन का अद्भुत फल जान कर प्रतिदिन जिनेन्द्र की पूजन करना चाहिए। पुनः श्रीजिनपूनायाः माहात्म्यमाह Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ सूक्तिमुक्तावली शार्दूलविक्रीडित छन्दः यः पुष्पैर्जिनमर्चति स्मितसुरखी लोचनैः सोऽर्च्यते यस्तं वन्दत एकशस्त्रिजगता सोऽहर्निशं वंद्यते । यस्तं स्तौति परत्र वयदमनस्तोमेन स स्तूयते यस्तं ध्यायति क्लृप्तकर्मनिधनः स ध्यायते योगिभिः ॥ १२ ॥ व्याख्या - यः पुरुषः पुष्पैः कृत्वा जिनं श्रीवीतरागं अर्चति पूजयति स पुरुषः स्मितसुरत्रीलोचनैः अयंते पूज्यते । स्मितानि विकसितानि यानि सुरखीणां देवाङ्गनानां लोचनानि नेत्राणि तैः देवलोके देवत्वेनोत्पन्नः सदेवांगनाभि विकसित नेत्रः अर्च्छते पूज्यते सरागं अवलोक्यते इत्यर्थः । पुनर्यः पुमान् एकशः एकवारं तं श्रीजिनदेवं वन्दते स अहर्निशं दिवारात्री त्रिजगता त्रिभुवनेन वंद्यते । यो जिनं वन्दते स त्रिजगद्वयो भवतीत्यर्थः । पुनर्यः पुमान् तं श्रीजिनं स्तीति स्तोत्र: वर्णयति स पुमान् परत्र परलोके वृत्रदमनस्तोमेन वृत्रदमनानां इन्द्राणां स्तोमेन समूहेन स्तूयते गुणस्तुत्या कृत्वा वयते । पुनः यः तं श्रीषिनं ध्यायति पिण्डस्थपदस्थरूपस्यरूपातीतभेदेहं दये ध्यानगोचरं करोति स पुमान् योगिभिः योगीश्वरैः महामुनिमियांयते ध्यानगोचरः क्रियते । कथंभूतः स क्लृप्तकर्म्मनिधनः क्लृप्तं रचितं कृतं अकर्मणां निधनं विनाशेो येन स क्लृप्तकर्मनिधनः सिद्धाबस्थां प्राप्तः इत्यर्थः । पूजाविधिस्तुतिः । अनेन विधिना श्रीजिनपूजा कार्या । अत्र श्रीसिंदूरप्रकराख्योपदेशशास्त्रे भीजिनपूजाधिकारं यावदय संबंधो व्याख्यातोऽस्ति ततोऽप्रे यः संबोधो भविष्यति स वर्तमानयोगेन ज्ञायते ॥ १२ ॥ 1 Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली अर्थ- जो भव्य पुरुष पुष्पों से जिनेन्द्रदेव की पूजा करता है वह मन्द हास्ययुक्त देवाङ्गनाओंके कमलों द्वारा पूजा जाता है, जो पुष एकनार जिनेन्द्रदेव को वन्दना करता है वह तीन लोक द्वारा सदा वन्दनीक होता है, और जो जिनेन्द्र देवको स्तुति करता है उसकी परभव में इन्द्रों द्वारा स्तुति की जाती है। जो जिनेंद्र देवका ध्यान करता है वह मठों कर्मों का नाश कर देता है और तब सिद्ध परमेष्ठी हो जानेके कारण योगियों द्वारा ध्यान करने योग्य हो जाता है । २० इति पूजायाः प्रकरणं समाप्तम् । अथ चतुर्भिर्वृत्तै गुरुभक्तिद्वार माइ वंशस्य छन्दः अवद्यमुक्ते पथि यः प्रवर्तते Addressनं च निःस्पृहः । स एव सेव्यः स्वहितैषिणा गुरुः स्वयं तरंस्तारयितुं क्षमः परम् ।। १३ ।। | व्याख्या - आत्महितवांछकेन पुरुषेण स एव गुरुः सेव्यः सः कः यः अवयमुक्ते पापवर्जिते सत्ये पथि धर्ममार्गे स्वयं प्रचलते च पुनः अन्यजनं श्रन्यलोकं शुद्धमार्गे प्रवर्तयति । यो गुरुः निस्पृहः परिमहादिवांच्छारहितः सन् पुनर्यः स्वयं संसारसमुद्र तरन् सन् परं अन्यं तारयितुं क्षमः समर्थः । गृणाति तवमिति गुरुः । तत्रोपदेशकः शुद्धप्ररूपक इत्यर्थः । Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली सा भट्ठो भट्ठो दंसण भटुस्स एरिथ निव्वाणं । सिति चरण रहिआ दंसणा रहिआ न सिति ॥ भो भव्यप्राणिन् एवं ज्ञात्वा मनसि बिवेकमानीय शुद्धप्ररूपको जिनाज्ञाराधको गुरुः सेव्यः । तत्सेवमानानां यत्पुण्यमुत्पद्यते तगुण्यप्रसादादुत्तरोत्तरमांगलिक्यमाला विस्तरन्तु || १३ || अर्थ- जो पापरहित मुक्ति के मार्ग में प्रवृत्ति करते हैं तथा वा रहित होकर अन्य भव्य जीवों को मोक्षमार्ग में लगाते हैं। अपना हित चाहने वाले व्यक्ति द्वारा ऐसे ही गुरु सेवन करने योग्य हैं। ऐसे ही निर्मान्य गुरु संसार समुद्र से आप तिरते हैं और दूसरों को भी संसार समुद्र से पार करने में समर्थ होते हैं। C कापरिया आरंभ रहित विगम्बर जैन साधु ही - सेवा एवं श्रद्धा के योग्य हैं। अन्य भेपी कुलिंगी सेवन करने योग्य नहीं, वे संसार में पत्थर की नौका के समान स्वयं डूबने वाले और दूसरों को डुबाने वाले हैं। अथ पुनरपि गुरुसेवायाः फलमाह - मालिनी छन्दः विलयति सुगतिकुगतिमार्गौ कुबोधं पुण्यपापे गुरुर्यो अवगमयति कृत्याकृत्य भेदं भवजलनिधिपोतस्तं विना नास्ति कश्चित् ॥ १४ ॥ बोधयत्यागमार्थं व्यनक्ति । व्याख्या--भो भव्याप्तं गुरु विना अन्यः कश्चित् भवजह - निधिपोतः प्रवहणं नास्ति भव एव संसार एवं जलनिधिः । समुद्रस्तत्र Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ सूक्तिमुक्तावली प्रवहं संसारसमुद्रतारणे प्रवहणसमानो गुरु स्तं गुरु विनान्यः कश्चिनास्ति । यो गुरुः कुत्रोधं कुत्सितज्ञानं मिध्यात्वं विदलयति । पुनर्यो गुरु रागमार्थ सिद्धान्तानां अर्थं योधयति ज्ञापयति । पुनर्यो गुरुः पुण्यपापे पुण्यं च पापं च पुण्यपापं ते धर्माधम द्वे अपि व्यनक्ति प्रकटयति । इवं पुण्यं इदं पापमिति । कथंभूते पुण्यपापे सुगतिकुगतिमार्गी सुगतिश्च कुगतिश्च सुगतिकुगतो नयो मार्गी पुण्यं देवनरादिसुगतिमार्गः पापं नरकतिक रूप कुगतिमार्गः । पुनर्यो गुरुः कृत्याकृस्यभेदं अवगमयति कर्तुं योग्यं कृत्यमयोग्यं अकृत्यं कृत्यं च अकृत्यं च कृत्याकृत्येतयोर्भेदो बिवेको विचारस्तं ज्ञापयति भो भव्यमाखिन् । इति ज्ञात्वा मनसि विषेकमानीय संसारसमुद्रतारणाय प्रवद्दण्समान: श्रीगुरोः सेवा कार्या । गुरोः सेवां कुर्वतां च सतां यत्पुण्यमुत्पद्यते तत्पुण्यप्रभावादुत्तरोत्तर मांगलिक्यमाला विस्तरन्तु || १४ || अर्थ - जो मिथ्याज्ञान को दूर करते हैं, आगम-सत् सिद्धांत के अर्थ का भले प्रकार प्रतिपादन करते हैं ( ज्ञान कराते हैं ) सुगति कुगति के कारण पुण्य पाप को प्रगट करते हैं, कर्तव्य कर्तव्य के भेद का ज्ञान कराते हैं वे ही गुरु संसार समुद्र से पार होने के लिये जहाज के समान हैं अन्य कोई भी पार करने में समर्थ नहीं है ऐसे ही दिगम्बर वीतराग साधु स्तुति और सेवा करने योग्य हैं अन्य भेषी स्तुति सेवा करने योग्य नहीं हैं। पुनर्गुरुसेवायाः फलमाह - शिखरिपोछन्दः पिता माता भ्राता प्रियसहचरी सूनुनिवहः सुहुत्स्वामी माद्यत्करिमटरथाश्वः परिकरः । € Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली निमज्जन्त जन्तु नरकहर रक्षितुमलं गुरोर्धर्माधर्मप्रकटनपरास्कोऽपि न परः ।।१।। व्याख्या - नरककुहरे नरकविवरमध्ये निमज्जन्तं ब्रहन्तं पतन्तं सन्त जन्तुं जीवं गुरोरन्यः कोपिरक्षितुं अलं न कश्चिदपि त्रातुं समयों न । कधी पिता जनको रक्षितु नालं माता जननी नाल भ्राता सहोदरो नाल प्रिया अत्यन्तं बल्लमा सहचरी स्त्री रक्षितु नार्म । सूनुमिवहः पुत्रगणोपि रक्षितुं नाल सुहन्मित्रमपि नालं न समर्थः । स्वामी नायकोऽपि नाले किंभूतः स्वामी माद्यत्करिभटरथाश्वः मार द्यतोमदोन्मत्ताः करिणो गजाः भटाः सुभटाः स्थाः स्यन्दनाः अश्वाश्च यस्य सः पर्व बलवानपि स्वामी रक्षितुं नालं । पुनः परिकरः प्रभूतसेवकादिवर्गोपि नरके पतन्तं रक्षितुमलं न समयों न । किन्तु एको गुरुरेव नरके पतन्तं जीनं रक्षितुं समर्थः गुरोः परः कोपि नरके पतन्तं जीनं रक्षितुं समर्थो न। किविशिष्टाद्गुरोः धर्माधर्मप्रकट नपगद् धर्म श्च अधमश्च धर्माधर्मी पुण्यपापे तयोः प्रकटने प्रकाशने परस्तत्परो यः सः तस्मात् । गुरुः धर्माधर्मी द्वापि दर्शयति ततश्च यः प्राणी धर्ममंगीकरोति स नरके न पतति किंतु सुगतिभाग भवति मो भव्यप्राणिन् ! एवं ज्ञात्वा मनसि विवेकमानीय मरकपतनाद्रक्षणाय समर्थोगुरुरेव सेव्यः सेवमानानां च यत्पुण्यमुत्पद्यते तत्पुण्यप्रसादादुचरोत्तरमांगलिक्यमाला विस्तरन्तु ॥ १५ ॥ अर्थ.--धर्म अधर्म को प्रगट करने में तत्पर ऐसे गुरु से अन्य कोई भी पिता माता, भाई, स्त्री, पुत्रसमूह मित्र स्वामी, Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ सूक्तिमुक्तावली मदोन्मत्त हाथी, योद्धा, रथ, घोड़े आदि परिकर नरक के विलों [विवर ] में पढ़ते हुए (डूच ने हुये ) प्राणी को रक्षा करने में समर्थ नहीं है। __ भावार्थ---नरक रूपी समुद्र में डूबते हुए प्राणी को माता पिता आदि कोई भी निकालने में समर्थ नहीं है, एक श्रीगुरु ही समर्थ हैं ऐसा जानकर श्रीदिगम्बर जैनगुरु का ही आश्रय लेना कार्यकारी है। अथ गुरोः आज्ञामाहात्म्यमाह शार्दूलविक्रीडित छन्दः (किं ध्यानेन भवत्यशेषविषय, त्यागैस्तपोभिः कृi पूर्ण भावनयालमिन्द्रियदमैः पर्याप्तमाप्तागमः । किंत्वेकं भवनाशनं कुरु गुरुप्रीत्या गुरोः शासनं सर्वे येन विना विनाथबलवन् स्वार्थाय नालंगुणाः ॥१६॥ व्याख्या-भो भव्याः गुरोः शासनं गुरोः पानां विना चेत भ्यानं कृतं तर्हि तेन घ्यालेन किं अपितु न किमपि फलं । पुन: अशेषविषयस्यागै भवतु पूर्ण जातसमरतविषयानां परिहारेणापि न किमपि फलां । पुनः श्रशेषतपोभिः कृतं गुरोः आज्ञा विना । षष्पाष्टमवशमा युपवासादिपक्षक्षपणमासक्षपणसिंहतिःकोडितादिभिस्तपोभिः कृतं सम्पूर्ण जातं अर्थान्न किमपि । पुनर्भावनया शुभभावेनापि पूर्ण जातं । पुनः इन्द्रियदमैः पंचेंद्रियाणां दमनैः कृत्वा बलं पूर्ण जातं । पुनः आप्तागमः सूत्रसिद्धान्तपठनैरपि पर्याप्त पूर्ण जातं तईि कि किंतु गुरुप्रीत्या गरिष्ठवात्सल्येन अघिकादरेण एकं गुरोः शासन आज्ञों कुरु । गुरोरेवाज्ञां शुद्धा पालय किंभूतं गुरोः शासनेन आनया Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली त्रिना सर्वेपि गुणाः पूर्वोक्ता ध्यानादयः स्वार्थाय स्वल्पफलसाधनाय अलं न समर्था न किंतु निष्फला इत्यर्थः । किंवत विनाथबलवत् निर्नायक सैभ्यवत् । यथा राजारहितसेना शत्रु' जेतुं न समर्था भवति तथा गुरुसेवां विना सगँ वृथा भवति गुरोः नुष्ठानादिकं स निष्फलं । एवं ज्ञात्वा गुरोः आज्ञासहितं सर्ग कर्तव्यं | भो भव्यप्राणिन् ! एवं ज्ञात्वा मनसि विवेकमानीय गुरुसेवा कर्तव्या कुर्वतां च सतां यत्पुण्यमुत्पद्यते तत्पुण्यप्रसादादुत्तरोत्तर मांगलिक्यमाला विस्तरन्तु ॥ १६ ॥ 然 - - ध्यान करने से क्या प्रयोजन १ समस्त इन्द्रिय विषयों के त्याग से क्या ? तप करने से क्या १ मंत्री प्रमोद आदि भावनाओं से क्या १ इन्द्रियों के वश में करने से क्या लाभ १ भाप्त आगम से भी क्या साध्य | कुछ भी नहीं, किन्तु गुरु की प्रीति से संसार का उच्छेद करने वाला मात्र एक गुरु का शासन ही है अर्थात गुरु की आज्ञा बिना सम्पूर्ण गुण-स्वामी रहित सेनाकी तरह स्वार्थ (मोक्ष) साधन में समर्थ नहीं हैं। भावार्थ जैसे सेनापति के बिना सेना युद्ध काय में विजय प्राप्त नहीं कर सकती इसी प्रकार गुरु की आज्ञा बिना समस्त गुण मोक्ष साधक नहीं हो सकते। माह - इति गुरुप्रक्रमः । मथ चतुर्भिर्वृतैर्जिनमतस्य जिनो सिद्धान्तस्य च माहात्म्य Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली शिखरिणीछन्दः न देवं नावं न शुभस्मे मुलं न धर्म नाधम न गुणपरिणद्धं न विगुणं । न कृत्यं नाकृत्यं न हितमाहित नापि निपुणं विलोकन्ते लोका जिनवचनचनुविरहिताः ॥१७॥ व्याख्या-जिनवचनचक्षुविरहिताः जिनवचनमेव चक्षु नेत्रं सेन रहिताः सन्तः लोका जीवाः एतानि वस्तूनि न विलोकन्ते न पश्यन्ति न जानन्ति इत्यर्थः। किं न बिलोकन्ते देवं सर्वझं जितरागादिरियादिलक्षणोपेतं न विलोकन्ते । पुनः शुभगुरु सुगुरु शुद्धप्ररूपकं गुरु न जानन्ति । पुनः कुगुरु पंचाचाररहित मुत्सूत्रप्ररूपकं न जानति। पुनः धर्म अधर्म च न जानेति धर्माधर्मयोरंतरं नविंदसीत्यर्थः । पुनः गुणपरिणखं गुणैः परिपूर्ण गुणवन्तं पुनः विगुणं गुणरहित निर्गुणं च न जानन्ति गुणवन्तं निगुणं च सदृशमेव पश्यति । पुनः कृत्यं करणीयं कर्तुं योग्य वस्तु न जानति । पुनः अकृत्यं कर्तुमनुचितं अयोग्यं न जानन्ति । कृत्याकस्यविधेकं न जानन्तीत्यर्थः। पुननिपुणं सचातुर्य च सम्यक् यथा स्यात्तथा आत्मनो हितं सुखकारण न जानन्ति । पुनः अहितं च अशुभकारणं च न जानन्ति जिनवचनश्रवणं विना शुभाशुभयोरन्तरं न जानन्ति । एवं झात्वा श्रीजिनप्रणीतसिद्धान्तानां श्रवणं कर्तव्यं । कुर्वतां च सता यत्पुण्यमुत्पद्यते तत्पुण्यप्रसादादुत्तरोचरमांगलिक्यमाला विस्तरन्तु ॥ १५ ॥ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली अर्थ-सा गोरा के मद ( पसार शर्मित वचन लपी नेत्रों से रहित पुरुष देव अदेव को नहीं देखते हैं, सुगुरु कुगुरु को नहीं देखते, धर्म अधर्म को नहीं देखते, गुणवान निर्गुण को नहीं देखो, करने योग्य और न करने योग्य कार्य को नहीं देखते, और हित अहित को भी अच्छी तरह नहीं देखते अर्थात जो सर्वज्ञ वीतराग प्रणीत जैन शास्त्रों को रुचि ( श्रद्धा ) पूर्वक सुनते और पढ़ते हैं उन्हें भले बुरे का ज्ञान अच्छी तरह होता है अतः गृहकार्य छोड़कर भी जैन शास्त्रों का अभ्यास करना चाहिये । शार्दूलविक्रीद्वितछन्दः मानुष्यं विफलं वदंति हृदयं व्यर्थ पृथा श्रोत्रयो निर्माणं गुणदोषभेदकलनां तेषामसंभाविनीम् । दुर्वारं नरकान्धकूपपतनं मुक्तिं बुधा दुर्लभां सार्वज्ञः समयो दयारसमयो येषां न कर्णातिथिः ।।१८॥ व्याख्या-सार्वज्ञः सर्वज्ञप्रणीत: श्रीवीतरागदेवेन भाषितः समयः आगमो येषां पुरुषाणां कर्णातिथिः कर्णगोचरो न नातो ये न श्वत: बुधाः पंडितास्तेषां मनुष्याणां मानुष्यं मनुष्यजन्म विफलं निष्फलं वदन्ति । लब्धमप्यलब्धं कथयन्ति । तेषां हृदयं चित्त व्यर्थ निरर्थकं शून्य पदन्ति । पुनः तेषांभोत्रयोः कर्णयोः निर्माणं करणं वृथा निष्फलं वदन्ति । पुनस्तेषां गुणानां दोषाणां च यो भेदोऽन्तरं तस्य कलना विचारणा असंभाविनी अर्थात् दुर्लभो वदन्ति । पुनः नरकमेव अंधकूपस्तृणवल्लीपिसामाच्छादितः कृपस्तत्र पतनं दुर्वार Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली वारयितुमशक्यं कथयन्ति । पुनस्तेषां मुक्ति दुर्लभां कथयन्ति । जिनागमश्रवणं विना मुक्तिं मोक्षं न प्राप्नुवन्ति । अतः श्रीजिनागमश्रवणमेव कर्तव्यं भाव विनापि श्रतं हिताय भवति । यथा द्वषेपि बोधकत्रचः श्रवं विधाय, स्याद्रौहिणे इव जन्तुरुदारलाभः । क्वाथोप्यप्रियोपि सरुजां सुखदोरविर्वा संतापको पिजगदंभृतां हिताय प्रतिज्ञावा जिनवचनस्य श्रवशां कर्तव्यं कुर्वतां । व सतां यस्पुण्यमुपद्यते तत्पुण्यप्रसादादुत्तरोत्तर मांगलिक्यमाला विस्तरन्तु ॥ १८ ॥ अर्थ - दयामयी सर्वत्र प्रणीत सिद्धान्त जिन जीवों के कानों के अतिथि नहीं बने हैं अर्थात् जो वीतराग प्ररणीत शास्त्रों को नहीं सुनते हैं उन मनुष्यों का मनुष्य जन्म पाना विफल है, हृदय व्यर्थ है, कानों का पाना वृथा है, गुण दोष के भेद ज्ञानकी विचार शक्ति उनके असंभव है, नरक रूपी अन्धकूप | कुये ] का पतन उनके लिये दुर्वार है अर्थात् ऐसे पापी जीव नरक में अवश्य जाते हैं और मुक्ति पद की प्राप्ति तो ऐसे जीवों को अत्यन्त दुर्लभ है ऐसा विद्वान् ज्ञानी पुरुष कहते हैं । २८ शार्दूलविक्रीडित छन्दः पीयूषं चिषवज्जलं ज्वलनवचं जस्तमः स्तोमवत् मित्रं शात्रववत्स्रजं भुजगवच्चितामणि लोष्ठवत् । ज्योत्स्नां ग्रीष्मजधर्मवत्स मनुते कारुण्यपण्यापणं जैनेन्द्रं मतमन्यदर्शनसमं यो दुर्मति मन्यते ।। १९ ।। व्याख्या - यो दुर्मतिः मूर्खः पुमान् जैनेन्द्र मतं श्रीजिनशासनं अन्यदर्शनसमं मन्यदर्शनः बौद्धनैयायिकसांख्यवैशेषिक Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली मनीयादिभिः समं सदृशं मन्यते गणयति स मूर्खः पीयूषं अमृतं विषवत् विषेण तुल्यं मनुते गणयत्ति । पुनर्जलं परमशीतलं पानीयं चलनवत् अग्नितुल्यं गणयति । पुनः तेजः उधोतं समास्तोमवत् अन्धकारपुर जवत् मनुते पुनर्मित्रं सखार्य शात्रववत् अस्मिदृशं मनुते जानाति । पुन: लज पुष्पमाला भुजंगवत्सर्पतुल्यं गणयति । पुनः स चिंतामणिरत्नं लोश्वत् पाषाणसदृशं गणयति । पुनः स ज्योत्स्नां कौमुदी चन्द्रकांति ग्रीष्मनधर्मवत उष्णकाल आलपवत् मनुते । अत्र पीयूषादिसमं जिनदर्शनं विषादिसदृशान्यन्यदर्शनानोत्युपनयः। किं भूतं जैनेन्द्र मतं कारुण्यपण्यापणं दयारूपक्रयाणकस्यह। एवं मस्खा श्रीजिनमतमेवानीकर्तव्यं । कुर्वतां च सतां यत्पुण्यमुत्पद्यते तत्पुण्यप्रसादादुत्तरोत्तरमांगलिमयमाला विस्तरन्तु ॥ १६ ॥ अर्थ-जो दुबुद्धि जैनेन्द्र दर्शन (मत) को अन्य मिध्या दर्शनों के समान समझता है वह अमृत को विष तुल्य, जल को अग्नि-समान, प्रकाश को अन्धकार के समूह तुल्य, मित्र को शत्रु समान, पुष्पमाला को सर्प समान चिन्तामणि रत्न को पत्थर तुल्य चन्द्रमा की ठंडी चांदनी को प्रीष्म ऋतु की गर्म धूप-समान गर्म समझता है। शादूलविक्रीडितछन्दः धर्म जागरयत्ययं विषटयत्युत्थापयत्युत्पथं भित्तेमत्सरमुच्छिनति कुनयं मथ्नाति मिथ्यामति । वैराग्यं वितनोति पुष्यति कृपा सृष्णाति तृष्णां च यत् तज्जैन मतमर्चति प्रथयति ध्यायत्यधीते कृती ॥२०॥ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली व्याख्याती पंडितः यज्जैनेन्द्र मतं श्रीजिनशासनं जिनोक्तवचनं अचंति पूजयति । पुः: २८सि विनात पुन मिति चिन्तयति । पुन: अधीते पठति तत् स धर्म जागरयति धमस्य जागरणं दीपनं करोति । पुनः अघं पापं विषटयति दूरी करोति । पुनः उत्पथं उन्मार्ग अनाचारं उत्यापति निवारयति । पुनर्मत्सरं गुणिषु द्वेषभावं भिन्ते भेदयति । पुनः कुनयं कुत्सितनयं अन्यायं पुच्छित्ति उन्मूलयति पुन: मिथ्यामति मध्नाति कूटधुद्धिं विलोक्य दूरीकरोति । पुनर्वैराग्यं तनोति विस्तारयति । पुनः कृपा दयों पुष्यति पोषयति । पुनस्सृष्णा स्पृहां लोमं मुष्णाति निराकरोति अर्थात येन जिनमतमाराधितं नेन एतानि वस्तूनि निकतानि इत्यर्थः । भो भव्यप्राणिन् । इति नास्त्रा मनसि विवेकमानीय श्रीजिनमत्तप्रशीतसिद्धान्तं च सम्यगाराधनीयं । आराधयतां च सतां यत्पुण्यमुत्पद्यते तत्पुण्यप्रसादादुम्वरोत्तरमांग. लिक्यमाला विस्तरन्तु ॥ २० ॥ अर्थ-जो जैन मत उत्तम क्षमा आदि रूप धर्म को प्रकाशमान करता है. पाप को हटाता है, उत्पथअर्थान मिथ्यामार्ग का खण्डन करता है, मत्सरता ( ईर्ष्या ) का भेदन करता है, नाश करता है। एकान्तवाद का खंडन करता है मिथ्याबुद्धि को दूर करता है, वैराग्य को बढ़ाता है, दया को पुष्ट करता है और तृष्णा का शोषण करता है ऐसे हितकर जिनमत [ जिनागम ] की सुकृतात्मा पुरुष पूजा करता है. प्रचार करता है, आराधना करता है, और पढ़ता पढ़ाता है ॥ २० ॥ वह व्यक्ति उभयलोक में मुखी होता Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली इति जिनमतप्रस्तावः अथ चतुर्मियतः संघस्य महिमानमाह शालविक्रीदितछन्दः रत्नानामिव रोइणक्षितिधरः खं तारकाणामिव स्वर्ग:कल्पमहीरुहामिव सरः पङ्के रुहाणामिव । पाथोधिः पयसामिवेन्दुमहसां स्थानं गुणानामसावित्यालोच्य विरच्यतां भगवतः संघस्य पूजाविधिः ||२१|| व्याख्या--भो भव्या इत्यालोच्य इति विचाय्य भगवतः पूज्यस्य संधत्य पूजाविधिविरच्यतां इतीति किं यतः असौ संघः साधुसाध्वीश्रावक श्राविकारूपश्च चतुर्विधसंघः सर्वगुणानां शानदर्शनचारित्रविनयादीनां स्थान निवासः । कः केषामिव । रोहणक्षितिधरः । रोहणश्चासौ क्षितिधरश्च पर्वतश्च रत्नानामिव यथा रोहणाचलो रस्नानां स्थान तथेत्यर्थः । पुनः खं आकाशं तारकाणामिव पुनर्यथा स्वर्गः फल्पमहीरुहा कल्पवृक्षाणां स्थानं तथेत्यर्थः । पुनर्यथा । सरस्तडाग: पंकेरुहाणों कमलानां स्थान तथा । पुनर्यथा पायोधिः समुद्रः पयसां पानीयाना स्थानं तथा किंभूतानां पयसा इंदुमहसां इंदुवन्निमलानां अथवा सशीव महसा इति वा पाठः । यथा शशी चन्द्रो महस तेजस्थानं तथासौ संघो गुणानां स्थानं । इन्दुवात् महो येषां तानि इन्दुमहांसि तेषां एवं श्रीचतुर्षिधसंघः सर्वगुणानां स्थानं इति ज्ञात्वा श्रीसंघस्य भक्ति: कार्या। कुर्वतां च सतां यत्पण्यमुत्पद्यते तत्पण्यप्रसादादुचरोत्तरमांगलिक्यमाला रिस्सरन्तु ॥ २१ ॥ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली C अर्थ-जैसे रत्नोंकी उत्पत्ति का स्थान पर्यंत होता है, ताराओं का स्थान आकाश होता है, कल्पवृक्षों का स्थान स्वर्ग होता है, कमलोंको उत्पत्तिका स्थान सरोवर [ तालाब ] होता है, और अगाध जल का स्थान समुद्र होता है उसी प्रकार भगवान जिनेन्द्र देवकी आज्ञानुसार चलने वाला मुनि आर्यिका श्रावक श्राविकाओं का संघ चन्द्रमा के समान निर्मल गुणोंका स्थान होता है ऐसा विचार कर उसकी [ संघकी ] पूजा- सरकार करना चाहिये । शार्दूलविक ३२ यः संसारनिरासलालसमतिर्मुक्त्यर्थमुत्तिष्ठते सेदी व नेवास्ताः समः | यस्मै स्वर्गपतिर्नमस्यति सतांयस्माच्छुभं जायते स्फूर्तिर्यस्य परा वसंत च गुणायस्मिन्स संवत ||२२|| । व्याख्या--- भो भव्याः भवद्भिः स श्रीचतुर्विधसंघः अतां पूज्यतां खः कः यः संव: संसार निरासलालसमतिः सन् संसारस्य निरासे निराकरणे त्यागे लाळसा इच्छा यस्याः सा ईदृशीमतिबुद्धिर्यस्य सः ईदृशः सन् मुक्त्यर्थी मुक्तिसाधनार्थ उत्तिष्ठते सावधानो भवति । पुनः यं संघ पावनतया पवित्रत्वेन दौर्थभूतं कथयंति । पुनः येन सधेन समः सदृशोऽन्यः कोपि नास्ति । पुनर्यस्मै संघाय स्वर्गपति देवपति इन्द्रः स्वयं नमस्यति नमस्कारं करोति । पुनर्यस्मात् संघात् सतां सज्जनानां शुभं कल्याणं आयते यत्पद्यते । पुनर्चश्य संघस्य स्फूर्तिर्महिमा परा उत्कृष्टा वर्तते । पुनर्यस्मिन् संघे गुणा गांभीर्य्यं १ देवपत्ति नर्मस्यति इति पाठान्तरम् । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली धैर्यादयः मूलगुणोत्तरगुणाश्च वसंति तिष्ठन्ति । एवं ज्ञात्वा मो मन्यप्राणिन् । मनसि विवेकमानीय श्रोसंघस्य पूजा भक्तिश्च प्रकर्त ध्या कुर्वतां च यत् पुण्यमुत्पद्यते तत्पुण्यप्रसादादुत्तरोत्तरमांगलिक्यमाला विस्तरन्तु ॥ २२ ॥ अर्य--जो संसार के विषय भोगों में वांछा रहित बुद्धि घाला है तथा मुक्ति पालिके लिये सनन प्रयत्नाना है. इस्लामवादि गुणों से पवित्र आत्मा होने के कारण जिसको महापुरुष तीर्थ कहते है जिस [ चतुर्विध संघ ] के समान कोई दूसरा तीर्थ नहीं कहा जा सकता [वस्तुनः तीर्थ वही है जहाँ पवित्रामा आस्म कल्याण करते हैं जिसके लिए इन्द्रादि देव नमस्कार करते हैं, जिससे [ चतुर्विघ संघ से ] संसार के जीवों का कल्याण [ उत्थान ] होता है. जिसको महिमा उत्कृष्ट है, जिसमें सब गुणों का निवास है अर्थात् जो गुणों का भरद्वार है ऐसा चार प्रकार का संघ प्रत्येक प्राणी द्वारा पूजा के योग्य है अर्थात चतुर्विध संघ की मन वचन काय से पूजा सेवा करना चाहिये इसी में प्रत्येक प्राणी का कल्याण निहित है। इस विषय में श्री सोमदेव आचार्य की उक्ति हैकलौ काले चले चित्ते, देहे चान्नादिकीटके।। एसचित्रं यदद्यापि, जिनरूपधरः नराः ॥ इसका अर्थ यह है कि यह पंचम काल हुण्डावसर्पिणी का काल बड़ा भयंकर है प्रायः लोगों की मनोवृत्ति चंचल है-रियर नहीं है, शरीर अन्नका कीड़ा बन रहा है जिनके रात दिन एकसा है खाने पीने का रात दिन का कोई विचार नहीं है ऐसे कलिकाल Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ में यदि जिनलिंग के धारी मुनि, आर्यिकादि विद्यमान हैं. पाये जाते हैं तो यह बड़े आश्चर्य की बात है ॥ २२॥ शार्दूलविक्रीडितछन्दः लक्ष्मीस्तं स्वयमभ्युपैति रभसात्कीर्तिस्तमालिंगति प्रीतिस्तं भजते मतिः प्रयतते तं लब्धुमुत्कण्ठया | स्वाश्रीस्तं परिरब्धुमिच्छति मुहुर्मुक्तिस्तमालोकते यः संघ गुणराशिकेलिसदनं श्रेयोरुचिः सेवते ॥२३|| व्याख्या-यः पुमान् अयोरुचिः सन् श्रेयसि कल्याणे धर्मे वा सचिरभिलाषो यस्य स अयोरुचिः ईशः सन् श्रीसंघ सेक्ते तं पुरुषं लक्ष्मीः संपत् रभसा वेगेन स्वयमात्मना अभ्युपैति सन्मुखमायाति । पुनः कीर्तिस्तं पुरुषं आलिङ्गति आलिङ्गनं ददाति । पुनः प्रीतिः स्नेहस्तं भजते सेवते । पुनमत्तिबुद्धिः उत्कंठ्या उत्सुकतया करवा तं नरं लन्धुप्राप्तुं प्रयतते यरनं करोति । पुनः स्वःश्रीः स्वर्गलक्ष्मीस्तं मुहुर्वारं वारं परिरन्धु आलिंङ्गितुमिच्छति । पुनर्मुक्तिः मोक्षस्तं पुरुष आलोकने पश्यति । किविशिष्ट संघं गुणराशिफ्रेलिसदनं गुणसमूहस्य क्रीबागृहं एवं ज्ञात्वा संघः सेव्यः ॥ २३ ।। अर्थ--कल्याण का इच्छुक जो पुरुष रत्नत्रयादि गुणों के कोटा करने का मन्दिर जो चतुर्विध संघ (जिनसंघ ) की सेवा करता है, लक्ष्मी से शीघ्र ही चारों तरफ से प्राप्त होती है, कीर्ति बसका आलिंगन करती है अर्थात् उसकी सर्वत्र कीर्ति विस्तृत होती है, प्रीति सेवा करती है [ उससे सभी प्राणी स्नेह करते हैं, उसे Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली ३५ चाहते हैं ] सुधुद्धि इसको उत्कण्ठा से प्राप्त करने का प्रयत्न करती है अर्थात् उसे शीघ्र ही सम्यग्ज्ञान [आत्मज्ञान ] की प्राप्ति होती है, स्वर्ग की लक्ष्मी उसे प्राप्त करने के लिए बार बार इच्छा करती है और तो क्या ? मुक्ति उसके देखने की प्रतीक्षा करती है ॥ २३ ॥ शार्दूलविक्रीडितछन्दः यद्भक्तः फलमहंदादिपदवीमुख्यं कृषः शस्यवच् । चक्रित्यत्रिदशेन्द्रशादिढणाइ प्रासङ्गिक भीगते । शक्ति यन्महिमस्तुतौ न दधते वाचोऽपि वाचस्पतेः । संघः सोऽधहरः पुनातु चरणन्यासः सतां मंदिरं ॥२४॥ व्याख्या-स.श्रीसंघश्चरणन्यास: स्वपादस्थापनैः कृतः सतां सत्पुरुषायां साघुमनुष्याणां मन्दिरं गृहं पुनातु पवित्रयतु । सः कः यभक्तः यस्य संघस्य भक्त: मईदादिपदवी ती करादिपप्राप्तिमुख्यं फलं वर्तते किंवत् रुपः क्षेत्रादेः शस्यवत् धान्यवत चक्रित्वविदचंद्रासादिचक्रवर्तित्वं इंद्रपदत्वादिकं चप्रासङ्गिक प्रसंगादागतं फल गीयते कथ्यते किंवत् कृपेस्तृण्वत् पलालादिवत् । पुनर्यमहिमस्तुती यस्य संघस्य प्रभाववर्णनं यस्मिन् वाचस्पतेरपि वाचो वाण्यः शक्ति सामथ्र्य न दधते न धारयन्ति । किविशिष्टः संघः अघहरः अ पापं हरति यः सः अघहरः इति ज्ञात्वा श्रीसंघः स्वगृहे आहूय सम्यकपूजनीयः ॥ २४ ॥ अर्थ--खेती करने का मुख्य उद्देश्य अन्न पैदा करना है, उसी प्रकार संघ की भक्ति का मुख्यफल अरिहन्त आदि पदवी प्राप्त Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली करना है । चैती का गौण फल घास आदि है, उसी प्रकार भक्ति का गौण फल चक्रवर्ति, इन्द्रपना आदि संसार की विभूति प्राप्त करना है, जिस संघ की महिमा स्तुति करने में बृहस्पति के वचन भी शक्ति नहीं रखते हैं, ऐसा वह पाप का हरण ( दूर ) करने वाला संघ अपने घरण न्यास से सज्जनों के मन्दिर ( घर ) को पवित्र करें ऐसा यह आशीर्वाद सूचक वचन है ॥ २४ ॥ इति संघप्रक्रमः अथ हिंसानिषेधेन सत्वेषु दयेव कियतामित्यर्थः । क्रीडाभूः सुकृतस्य दुकृतरजः संहारवात्या भयोदन्वन्नौव्यसनाग्निमेघपटली संकेतदूती श्रियो । निःश्रेणिस्त्रिदिवौकसः प्रियसखी मुक्तेः कुगत्याला सखेषु क्रियतां कृणैव भवतु क्लेशेरशेषः परैः ॥२५।। व्याख्या-भो भव्याः सस्येषु जीयेषु कपा एव दया एष क्रियतां । परैरन्यैरशेषः समस्तैः क्लेशैः कायकष्टकरणः भवतु पूर्यता मा क्रियतामित्यर्थाः । कथंभूता कृपा सुकृत्तस्य पुण्यस्य क्रीबाभूः क्रीडास्थानं । पुनः कथंभूता दुःकृतरजः संहारदात्या दुःकृतं पापं तदेव कर्ममलहेतुत्वात् रजस्तस्य संहारे संहरणे वाल्या वायुसमूहतुल्या । पुनः कथंभूता भवोदन्यन्नौः भव एव संसार एव उदयानिवोदन्यान् समुद्रस्तत्र नौः नौका। पुनः कथंभूता व्यसनाग्निमेषपटली व्यसनानि कष्टान्येवतापहेतुत्वात् अग्नयो वयस्तेषु मेघपटली मेघघटासमाना । पुनः कथंभूता श्रियां सङ्केतदूती त्रियां लक्ष्मीना संकेतदूवी सतकयका । पुनः कथंभूता मुक्तः प्रियसखी मुक्त Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली मोक्षस्य वयस्था। पुनः कथंभूना कुगत्यर्गला कुगतेदुर्गतेः अर्गला द्वारपरिघः इति ज्ञास्वा जीवेषु कृपा एवं क्रियतां ॥ २५ ॥ अर्थ--उपरोक्त श्लोक में आचार्य ने दया का माहात्म्य दिखाया है, कि-छह काय के लीवों की रक्षा रूप दया कर । यही सब जप तपादि हैं। यदि तु जपत्तपादि करता है और दया पालन नहीं करता तो वह सब व्यर्थ है। वह दया कैसी है ? पुण्य की कोडा करने की भूमि है, पाप रूपी रज [ धूल ] को नष्ट करने के लिये पवन के समान है, संसाररूपी समुद्र को तिरने के लिये नाव के समान है. व्यसन रूपी अग्नि को बुझाने के लिये मेघवृष्टि है, लक्ष्मी को बुलाने के लिये दूती समान है, स्वर्ग के बढ़ने के लिये नसैनी समान है, मुक्ति की प्यारी सखी है, और कुगतिगमन के रोकने को आगल समान है, ऐसी कृपा जीवों पर करो अन्य दूसरे किसी क्लेश को सहन करने से क्या लाभ है । दया ही सर्व श्रेष्ठ है, ऐसा जान कर समस्त जी पर दया करना योग्य है। शिखरिणीछन्दः (यदि ग्रावा तोये तरति तरणिर्ययुदयते । प्रतीच्या सप्ताचियदि भजति शैत्यं कथमपि ।। यदि मापीठं स्यादुपरि सकलस्यापि जगतः । प्रसूते सत्त्वानां तदपि न वधः क्वापि सुकृतं ॥२६॥ व्याख्या-यदि मावा पाषाणस्तोये मले तरति । पुनर्यदि तरणिः सूर्यः प्रतीच्या पश्चिमायां दिशि उदयति । पुनः सप्ताञ्चिः Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली अग्निः शैत्यं शीतलत्वं भजति शीतो भवति । पुनर्यदि कधचित् क्ष्मापीठं पृथ्वीमंहलं सकलस्यापि जगतो विश्वस्य उपरि भवेत् तदपि सत्त्वाना वधो हिंसा क्यापि द्रव्यक्षेत्रकालादी सुकूतं पुण्यं न प्रसूयते न जनयति || २६ ॥ (मर्थ-यदि किसी प्रकार पत्थर जल में तिरने लग जाय, यदि सूर्य पश्चिम दिशा में उदय हो जाय, यदि अग्नि शीतल हो जाय, यदि पृश्वीतल समस्त जगत के ऊपर हो जाय अर्यात् सारा संसार लोट पोट हो जाय, तो भी जीवों की हिंसा में कभी भी धर्म अर्थात पुण्य का बन्ध नहीं होता है यह निश्चित अटल सिद्धान्त भावार्थ-उपरोक्त बातें यद्यपि असंभव हैं कदाचित संभव हो तो हों, परन्तु जीवों को हिंसा में कभी भी धर्म नहीं हो सकता। मालिनीछन्दः स कमलवनमग्नेवासरं भास्वदस्तादमृतमुरगवक्त्रात्साधुवाद विवादाव रुगपगममजीर्णाज्जीवितं कालकूटा-- १ दभिलपति वधाद्यः प्राणिनां धर्ममिच्छेत् ॥२७॥ viear - 4 पुमान प्राणिना sit u.ntsो स भग्न सकाशात कमलवनं अभिलपति वाञ्छति । तथा भास्वदस्तात सूर्यास्तमनात वासरं अभिलपति । पुनर्षिवाक्षात् कलहात साधुवाद कीति अभिलपति । तथा अजीतू रुगपगमं रुजो रोगस्य अपगर्भ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली विनाशे अभिलषति । पुनः काळकूटाद् विषाद् जीवितं प्राणधारणं अभिलपति। यः पुमान् जोबानां वधात् धम्म इच्छेत् स एतानि वस्तूनि चान्छेत ॥ २७ ॥ अर्थ-जो व्यक्ति जीव हिंमा से धर्म की इच्छा करता है अर्थात् जीव हिंसा में धर्म-स्म समभाता है, यह मामलों मन को उत्पन्न करना चाहता है, सूर्य के अस्त से दिन की अभिलाषा करता है, सर्प के मुंह से अमृत की वांछा करता है, दूसरों के साथ कलह करके कीर्ति की इच्छा करता है, अजीर्ण से रोग के नाश होने की अभिलाषा करता है, और कालकूट हालाहल विष का भक्षण करके जीवित रहने की इच्छा करता है। भाषार्थ-जीव हिंसा में कभी भी किंचित् भी धर्म नहीं हो सकता, अगर जीव हिंसा में धर्म माना जायगा तो क्या में पाप मानना पड़ेगा परन्तु तीन लोक और चीन काल में ऐसी असंभव बात कभी भी संभव न हुई और न होगी। अतः जीव हिंसा के समान संसार में कोई महान् पाप नहीं है और अहिंसा (प्राणिया) के समान कोई दूसरा महान पुण्य नहीं है ॥ २७ ॥ शार्दूलविक्रीडितछन्दः आयुर्वीर्घतरं वपुर्वरतरं गोत्रं गरीयस्तरं विचं भूरितरं बलं बहुतरं स्वामित्वमुच्चस्तरं । ' आरोग्यं विगतान्तरं त्रिजगति साध्यत्वमम्पेसर संसाराम्बुनिधि करोति सुसरं चेता कृषान्तरम् ||२८|| Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली व्याख्या-कृपान्तरं कृपया भद्र अन्तरं मध्यं यस्य सत कृपान्तरं ईशे चेतः चित्तं करोति स पुमान् स्वस्य आयु... र्जीवितं दीर्घतर अधिकं करोति । तथा वपुः शरीर परतरं अतिप्रधानं करोति प्रजोत्रं नाम कुवा गरीमातरं अतिगरिष्ट उच्चैर्गोत्ररूप करोति । पुनर्वित्तं धनं भूरितरं अतिप्रचुरं करोति । पुनर्थों पीयं बहुतरं प्राज्यं करोति । स्वामित्वं प्रभुत्वं उच्चत्तरं सर्वोत्कृष्ट करोति । तथा भारोग्यं नीरोगत्वं विगतान्तरं अन्तररहितं निरन्तर करोति । तथा त्रिजगतस्य त्रिभुवनस्य श्लाध्यत्वं श्लाघनीयलां अल्पे. तरं प्रचुरं करोति । त्रिभुवनमपि ते श्लाघते। तथा संसाराम्बुनिधि भवसमुद्रं सुतरं सुखेन तरीतुं शक्यं करोति । व्यासहितं चेतः एतानि वस्तूनि करोति उत्पादयति अतः कारणात् सर्वे जीवेषु दयेव कर्त व्या । अत्रमेघरथराज्ञो दृष्टान्तः । तथा इरिषलधीवरस्य च होतो वाच्यः ।। २८ ।। इति अहिंसा प्रक्रमः । अर्थ- दया से आद्रं अयोत् भागा है चित्त जिसका ऐसा पुरुष अपनी आय को बढ़ाता है, शरीर को मनोज्ञ करता है, गोत्र को बढ़ाना है. बल को बढ़ाता है स्वामीपना को उच्च करता है, आरोग्यता को अन्तराय रहित करता है, तीनलोक में अधिक प्रशंसा का भाजन होता है, संसार समुद्र को भासानी से पार करता है। भावार्थ-दयालु पुरुष दीर्घायु होते हैं, मनोज्ञ शरीर प्राप्त करते हैं, प्रशस्त गोत्र प्राप्त पाते हैं, अधिक बैभव शाली होते हैं, बलिष्ठ होते हैं, अनेक पुरुष जिनके आगे नतमस्तक होते हैं, ऐसा स्वामित्व प्राप्त करते हैं, सदा आरोग्य शरीरपाले होते हैं, तीन लोक में यश के भाजन होते हैं वे संसार पार कर मुक्तिपद पाते हैं ॥ २८ ॥ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली भय सत्यवचनस्य प्रभाव प्रकटयति शार्दूलविकीहितछन्दः विश्वासायतनं विचिदलनं देवः कृताराधनं । मुक्तेः यथ्यदनं जलाग्निशमनं व्याघ्रोरगस्तम्भनं ।। श्रेयस्संवननं समृद्धिजननं सौजन्यसंजीवनं । कीः केलिवन प्रभावभवनं सत्यं वचः पावनं ।।२९।। व्याख्या-भो भव्याः । सत्यं वचो हितं प्रियं वदस्विति - शेषः । काभूतं सत्यं वचः विश्वासायतनं विश्वासस्य पायतनं श्यानं पुनः कथंभूतं विचिदलनं विपत्तीनां आपदा स्फेटकं । पुनः कशंभूतं देवैः सुरैः कृताराधन सेवनं यस्य तत् । पुनर्मुक्त: सिद्धः पथि मार्गे अदनं संबलं । तया जलाग्निशमन जलान्योः उपशामकं । पुनः कथंभूतं च्याम्रोरगस्तम्भनं च्यात्राणां सिंहानां वरगारणां साणां च स्तम्भकारकं । पुनः श्रयसो मोक्षस्य कल्याणस्य घा संवननं घशीकरणं । पुनः समृद्धिजननं समृद्धीनां संपदा संपादकं । पुनः कथंभूतं सौजन्यसंजीवन सुजनतायाः संजीवन समुत्पादकं । तया की - यशसः केलिवर्ग कोसावनं । पुनः कीभूतं प्रभावभवनं प्रभावत्य महिम्नो गृहं । पुनः कथंभूतं पावनं पवित्रकारकमित्यर्थः ॥ २६॥ : भर्थ-सत्य षचन कैसा है ? विश्वास का घर है. विपत्ति को दूर करने वाला है, देवों के द्वारा जिसका भाराधन किया गया है, मुक्ति के लिये पाथेय ( कलेवा ) समान है, अल और अग्नि को शान्त करने वाला है अर्थात् सत्य के प्रताप से जल तथा अग्नि का Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली भय, या महान संकट भी शान्त हो जाता है, व्याघ्र ( बाघ ) सर्प को स्तंभन करने वाला है, कल्याण का वशीकरण है अर्यात कल्याण ... का गृह है, समृद्धि को पैदा करने वाला है, सज्जनता का जीवन है, कीर्ति का क्रीडावन है, प्रभाव का मन्दिर है, ऐसा पवित्र सत्यवचन निरन्तर बोलना योग्य है ।। २६ ॥ पुनरसत्यवचनस्य दोषानाह शिवरिणीछन्दः यशो यस्माद्भस्मीभवति वनवह रिव वनं । निदानं दुःखानां यदवनिरुहाणा जलमिव ।। न यत्र स्याच्छायाऽऽतप इव तपः संयमकथा । कथंचिचन्मिथ्यावचनमभिधते न मतिमान् ॥३०॥ व्याख्या-स मतिमान बुद्धिमान् पुमान् कचित् कष्ट पि सति तमिथ्यावचनं असत्यवचनं न अभिधत्ते न जल्पति । तत् किं रास्मान्मिथ्यावचनाद्यशः कीर्तिभस्मीभवति विनश्यति । कम्मास्कमिघ । वनबहीवाग्ने नमिव । यथा दावानलात् वनं भस्मीभवति तथा । पुनर्यन्मिभ्याषचनं दुःखानां निदानं कारणं। केषां किमिव अवनिरुहाणां वृक्षाणां जलमिव । यथा जलं धृक्षाणां कारणं तथा । पुनर्यत्र मिथ्यावचने सपः सयमकथा तपश्चारित्रयो तिपि न । कस्मिन् का इव । आतपे सूर्यातपे छाया इव । यया आतपे छाया न स्यात् तया || ३०॥ अर्थ-जिस असत्य वचन से यश इस प्रकार नष्ट हो जाता है जैसे चन की अग्नि ( दावानल ) से बन भरम हो जाता है। जो Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * सूक्तिमुक्तावली ४३ असत्य वचन वृक्षों के लिये जल के समान दुःखों का मुख्य कारण है। इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि जल यद्यपि वृक्षों की वृद्धि का कारण है--जल सींचने से वृक्ष चढ़ते हैं परन्तु अधिक जलप्रवाद (जलधारा) से वृक्षों की जड़े कट जाती हैं और वृक्ष पृथ्वी पर गिर जाते हैं, उसी प्रकार असत्य भाषण से अनेक दुख संकटों के बादल सिर पर मंडराते हैं तथा जिसप्रकार धूप में छाया के सुख का अनुभव नहीं होता उसी प्रकार झूठ वचन बोलने वाले व्यक्ति को तप और संयम के सुख का अनुभव स्वप्न में भी नहीं होता अतः असत्यवचन के उपरोक्त दोष जानकर असत्य सर्वथा स्याज्य है ॥ ३० ॥ वंशरथच्छन्दः असत्य मप्रत्ययमूलकारणम् कुवासनास समृद्धिवारणम् । त्रिपमिदानं परवंचनोर्जितं कृतापराधं कृतिभिर्विवर्जितम् ||३१|| व्याख्या - इति कारणात् कृतिभिः पंडितैः असत्यं कूटं विशेपेण वर्जितं परिहृतं यतोऽसत्यं अप्रत्ययमूलकारणं अविश्वासस्य मूलहेतुः । पुनः कुवासनायाः कुबुद्धः पापबुद्ध े सन गृहं । पुनः समृद्धिवारणं समृद्ध लक्ष्म्या वारणं निराकरणं । पुनर्विपन्निदानं विपदां कष्टानां निदानं कारणं पुनः परअंचनोर्जितं परेषां वंचने विप्रवारये ऊर्जितं बलिष्ठ । पुनः कृतापराणं कृतः अपराधः भगः यस्य तम् । अतएवासत्यवचनं न वक्तव्यं ॥ ३१ ॥ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली अर्थ-असत्य वचन अविश्वास का मुख्य कारण है अर्थात् असत्यभाषी ( मठ वचन बोलने वाले ) का कोई विश्वास नहीं . करता, लोदी वासनाओं ( बुरे विचारों ) को पैदा करने वाला है, समृद्धि को निवारण करने वाला है अर्थात् झूठ वचन से धन वैभव सब नष्ट हो जाता है विपत्तिका मूल कारण है. पर के ठगपने सहित है अर्थात् भूठा व्यक्ति सदा दूसरों को ठगता रहता है, असत्यभाषी अनेकों अपराध करता है ऐसा असत्य वचन सत्पुरुषों द्वारा सदा त्यागने योग्य है ॥ ३१॥ ) मथ सत्यप्रभावं दर्शयति--- शार्दूलविक्रीवितछन्दः तस्याग्निर्जलमर्णवः स्थलमरिमित्रं सुराः किंकराः कान्तारं नगरं गिरिगृहम हिर्माल्यं मृगारिमूंगः । पातालं विसमस्त्रमुत्पलदलं व्यालः भृगालो विषं पीय विषम समं च वचनं सत्याश्चितं वक्ति यः ॥३२॥ व्याख्या-यः पुमान् सत्याश्चितं सत्ययुक्तं वचो वचनं बक्ति अते । वस्य पुसोऽग्निनिः सत्यप्रभाषाजलं स्यात् । तथाणवः समुद्रः स्थलं स्थान । तथा अरिः शर्मित्रं स्यात् । पुनः सुरा देवाः किंकराः सेवकाः आदेशकारिणः स्युः। पुनः कान्तारं भरण्यं नगर स्यात् । तमा गिरिः पर्वतो गृहं स्यात् । पुनरहिः सो माल्यं वक स्यात् । तमामृगारिः सिंहो इहरण इव स्यात् । तथा पाताल रसासको बिलं बिलरूम स्यात् । तथा भर शस्त्र पलदले कमलपत्रसरशं Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली ४५ स्यात् । तथा क्यालो दुष्टगजः शृगाल इव स्यात् । पुनर्विषं हालाहलं . पीयुषं अमृतं स्यात् । वियम संक्रटं स्थानं समं संपद पं स्यात् । सत्य प्रभावादतः सत्यमेव वक्तव्यं । अत्र वसुराजा पर्वत नारददृष्टान्तः ॥ २२॥ इत्यनृतप्रक्रमः। 'अर्थ-को पुरुष सत्यवचन बोलता है उसके अग्नि जल रूप में परिणत हो जाती है. समुद्र स्थल रूप हो जाता है, शत्रु मित्र हो जाता है, देव नौकर हो जाते हैं, बन नगर, तया पर्वत महल हो जाता है, सर्प फूलों की माला हो जाता है, सिंह हिरण के समान हो जाता है, पाताल विल के तुल्य हो जाता है, शस्त्र कमल पत्र के समान हो आते हैं, भयंकर हायो स्याल ( गीदड़) समान हो जाता है, विष अमृत रूप तया विषम वस्तु सम रूप में परिणत हो जाती है। यह सस्य वचन को ही प्रभाव है । सत्य के प्रतापसे संसार की सब दुर्लभ यस्तुये सुलभता से प्राप्त होती हैं ऐसा जान कर सदा सत्य व्यवहार करना योग्य है ॥ ३२ ॥ ) अथ अदत्ताक्षनवृत्तमाह मालिनीछन्दः तमभिलपति सिद्धिस्तं घृणीते समृद्धिस् तमभिसरति कीर्तिमश्चते तं भवार्तिः । स्पृहयति सुगतिस्तं नेक्षते दुर्गतिस्तं परिहरति विपत्तं यो न गृहात्यदत्तं ॥३३॥ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली व्याख्या– यः पुमान् अदन्तं अविशीर्णं प्रस्तावात् परविशं किंचिद्वस्तु वा न गृह्णाति तं पुरुषं सिद्धिमुँतिर भिलषति बांच्छति पुनस्तं समृद्धिक्रिश्वादिसम्पद् घृणीते । तथा कीर्तिर्यश रतं अभिसरति प्रत्यागच्छति । भयातिः संसारपीठा तं मुंचते त्यजति । सम सुगतिर्देषमनुष्यरूपा तं स्पृहयति वाच्यति । सधा दुर्गतिर्न र कतिर्यक रूपा तं पुरुषं न पश्यति नेक्षते । विपद् आपद् तं परिहरति स्वजति सं कं यो अदन्त' न गृह्णाति ॥ ३३ ॥ ४६ अर्थ - जो पुरुष गिरा पड़ा भूला, रखा हुआ विना दिया पदार्थं स्वयं नहीं महण करता और न दूसरों को देता है उस पुरुष की मुक्ति भी अभिलाषा करती है। ऋद्धियां उसका वरण करती हैं कीर्ति उसके चारों ओर फैलती है, संसार को पीढ़ा उसे त्याग देवी है, उत्तमगति उसे चाहती है अर्थात् वह पुरुष मर कर उत्तम गति पाता है, दुर्गंसि उसे आँख उठा कर भी नहीं देखती, विपत्तियां उसके सिर पर मँडराती नहीं हैं। अदधत्यागका ऐसा माहारम्य जान कर उसका आचरण करना कल्याणकारी है । और भी कहते हैं भूयोप्यदत्तादानगुणानाह - शिखरिणी छन्दः असं नादखे कृतसुकृतकामः किमपि यः शुभश्रेणिस्तस्मिन्वसति कलहंसीव कमले । विपचस्माद्दूरे व्रजति रजनीदाम्बरम ये विनीतं विद्येव त्रिदिवशिवलक्ष्मीजति सं ||३४|० Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली व्याख्या-यः पुमान् कृतः सुकृते पुण्ये अभिलापो येन ईशः सन् अदत्त परकीयं किमपि वस्तु नादत्ते न गृह्णाति । तस्मिन् पुसि शुभश्रेणिः कल्याणपरम्परा वसति निवासं करोति । कस्मिन् केव कमले कलहंसीव यथा कमले कलहंसी वसति । तथा पुनस्तस्मात्पुरुषात् विपत्कष्ट दूरं व्रजति दूरे याति । कस्मात्केव अम्बरमणे सूर्या रजनीव यथा सूर्याद्रात्रि रे व्रजति तथा। पुनस्त्रिदिवशिषयोः स्वगापवर्गयो संक्ष्मीः श्री स्तं भजते सेवते के केव विनीत विद्य व यथा विद्या विनीतं विनयान्वितं पुरुषं विद्या भजति मागच्छति तथा ॥ ३४ ॥ अर्थ-की है पुण्य की बौछा जिसने ऐसा जो पुरुष किंचित मात्र भी बिना दिया हुआ ग्रहण नहीं करता है उसको कमल में कलहंसी के समान कल्याण की परम्परा प्राप्त होती है, सूर्यसे जैसे रात्रि दूर भागती है उसी प्रकार उससे विपत्ति दूर भाग जाती है, जैसे विद्या विनम्र पुरुष को प्राप्त होती है वैसे ही उसे स्वर्ग, मोक्ष की लक्ष्मी प्राप्त होती है ॥ ३४ ॥ व्यतिरेकेणाह शार्दू विक्रीडितछन्दः यन्निवर्तितकीर्तिधर्मनिधनं सर्वांगसां साधनं प्रोन्मीलद्वघबन्धनं विरचितक्लिष्टाशयोद्रोधनं । दोर्गत्यैकनिबन्धनं कृतसुगत्याश्लेषसंरोधनं प्रोत्साधनं जिघृक्षति न तद्धीमानदत्तं धनं ॥३॥ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली व्याख्या - धीमान् विद्वान पुमान् अदन्तं धनं परकीयं वस्तु नजिक्षति गृहीतुं नेच्छति । तत् किं यत् अदत्त निर्वर्तितकीर्ति धर्म निधनं स्यात। निर्वर्तितं कृतं कीर्तिधर्म्मयोनिवनं विनाशो येन तत् । तथा सर्वासां साधनं सर्वाणि च तानि अगांसि च सर्वागस्तेषां सर्वासां सर्वापराधानां साधनं हेतुः स्यात् । पुनः मोन्मीलन्नं बघो लकुटादिताडनं बन्धो रम्यादिना बंधनं प्रोन्मीलति प्रगटीभवंति धबंधनानि यत्र तत् । पुनरिचित क्लिष्टाशयोद्बोधनं विरचितं क्लिष्टाशयस्य दुष्टाभिप्रायस्य उद्बोधनं प्रकटन येन तत् । पुनदौर्गत्येक निबंधनं । दौर्गश्यस्य दारिद्रस्य एक अद्वितीयं निबंधनं कारणं । पुनः कृत सुगस्याश्लेपसंरोधनं कृतं सुगतेराश्लेषस्य आलिंगम्य संरोधनं निवारणं येन तत् । पुनः श्रोत्सर्पत्प्रसरत् प्रधनंमरं यस्मात् तत् तथा । ईदृशं अदशं धीमान् न जिघृचति ॥ २५ ॥ अर्थ - बिना दिया हुआ धन केसा होता है - जिसे ग्रहण करने से कीर्ति और धर्मका नाश हो जाता है, समस्त पापों का कारण हैं, जिससे प्राणी का बध बन्धन होता है, संक्लेश आशय ( भावों ) को पैदा करनेवाला है, दुर्गति के बन्ध का अद्वितीय कारण है, सुगति के आलिंगन को रोकने वाला है, जो युद्ध कराने में सहायक है ऐसे बिना दिये धन को बुद्धिमान् पुरुष प्रहण करने की कभी भी इच्छा नहीं करते ।। ३५ ।। पुनरदत्तदोषमाह - हरिणोछन्दः ४८ 4 परजनमनः पीडाक्रीडा वनं वधभावना - भवनमवनिव्यापि व्यापल्लता धन मण्डलं । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली कुगतिगमने मार्गः स्वर्गापवर्मपुरामलं । नियतमनुपादेयं स्तेयं नृणां हितकाक्षिणां ॥३६।। व्याख्या–नियतं निश्चितं हितकांक्षिणां हितमिच्छतां नृणां पुरुषाणां स्तेयं चौथी अनुपादेयं अप्रायं भवति । अद अग्रहणीयं स्यात् । किंभूतं अदत्तं, परजनमनःपीडाकोहावनं परे च ते जनाश्च परजना स्तेपां मनांसि चित्तानि तेषां पीडा वाधा तस्याः कीडावनं रमणीयोशनं । पुनः वधभावनाभवन व निसायामापनि नया गृहं । पुनः अवनिव्यापिण्यापल्लता-घनमंडलं अपन्यां व्यापिनी प्रसरणशीला या व्यापत् आपद् सैव लता पल्ली तस्याः घनमंडल मेघपदले । पुनः कुगतिगमने मार्ग अच्छा । पुनः स्वर्गापवर्गपुरागला, स्वगापवर्गावेव देवलोकमोक्षी एव पुरं नगर तत्र अर्गला परिधः । ईदशं स्तेयं हितकांक्षिणां नृणां अग्राह्यं स्यात् । अत्र रोहणीकथा वाच्या ॥ ३६॥ इति स्वेय प्रक्रमः । अर्थ - चोरी कैसी है- दूसरे मनुष्यों के मनको पीड़ा देना रूपी क्रीडा का वन है अर्थात् अपने तथा दूसरे के लिये मन सन्ताप का कारण है, पर के मारने की भावना का घर है अर्थात् चोरी करने बाले के दूसरों को मारने की भावना बनी रहती है, पृथ्वी में व्याप्त आपत्ति रूपी लता के बढ़ाने को मेषों का समूह है अर्थात् चोरी से अनेक प्रकार की आपत्तियों का सामना करना पड़ता है. कुगतिके गमन का सीधा मार्ग है, स्वर्ग तथा मोक्ष रूपी नगर की उत्कृष्ट अर्गला है अर्थात् चोरी करनेवाला स्वर्ग नहीं जा सकता, इस प्रकार की चोरी हित के वांछक पुरुषों द्वारा अवश्य ही निश्चित Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० सूक्तिमुक्तावली रूप से त्यागने योग्य है ॥ ३६ ॥ ) अथ मैथुनव्रतमानित्योपदेशमा शार्दूलविक्रीडितछन्दः * दत्तस्तेन जगत्यकीर्तिपटदो गोत्रे मषी कूर्चकश्चारित्रस्य जलाञ्जलिगुणगणारामस्य दावानलः । संकेतः सकलापदां शिवपुरद्वारे कपाटो दृढः ।। कामातस्त्यजति प्रभोदयभिदा शस्त्रों परस्त्रीं न यः ||३०|| व्याख्या- यः पुमान् कामात: कामपीडितः परस्त्री परनारी न त्यजति तेन पुसा जगति विश्वे अकीर्तिपटही दत्तः वादितः । निर्मले गोत्रे स्वकीये वशे मधीकूर्चको दप्तः । पुनश्चारित्रस्य देशविरतिरूपसर्वविरतिरूपसंयमस्य जलांजलिदत्तः । पुनः गुणगणारामस्य दावानलः गुणानां गणाः समूहा एवं आरामो वनं तस्य दावानलो दधाग्निदत्तः । पुनस्तेन सकलापदां समस्तकष्टानां संकेतो दत्तः मिलनस्थाने कथितं । पुनस्तेन शिवपुरद्वारे मुक्तिनगरीद्वारे हदः कपाटो दसः । शोलरहितस्य मुक्तिगमनायोगात् । पुनः किं विशिष्टां परस्त्री प्रभाया उदयः प्रभोदयः अथवा प्रभाश्च उदयश्च प्रभोदयः सयोभिशयां शस्त्रींप्रभा । पाठांतरे तु शीलं येन निज विलुप्तमखिलां त्रैलोक्यचिंतामणिः । येन निजं शीलं विलुमम् तेन एतानि वस्तूनि कृतानि ।। ३७॥ अर्थ-जिस पुरुष ने तीन लोक में चिन्तामणि रत्न समान Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली अपना समस्त शील खो दिया उसने जगत में अपकीर्ति ( बदनामी ) का ढोल बजाया, अपने वंश में कालिमा लगाई, चारित्र को जलाबलि देवी, गुणों के समूहरूप बाग में भाग लगादी, समस्त आपत्तियों का संकेत स्थान कुशील है, जिसने शील विगाथा उसने मोक्ष नगर के दरवाजे में दृढ़ता से किवाड़ लगा दिये। ऐसा जान कर कुशील का त्याग करना योग्य है ॥ ३७ ॥ पुनः शीलगुणान् वक्ति शार्दूलविक्रीडितछन्दः व्याघ्रव्यालजलानलादिविषदस्तेषां प्रति भयं । कल्याणानि समुल्लसति वियुधाः सान्निध्यमध्यासते ।। कीर्तिः स्फुर्तिमियर्ति यात्युपचयं धर्मः प्रणश्यत्यघं | स्वनिर्वाणसुखानि संनिदघते ये शीलमाविधते ॥३८|| व्याख्या-ये नराः शीलं ब्रह्मचर्य आविभ्रते धारयति तेषां पुंसां न्याघध्यालजलानलादिविपदः क्षयं यांति। व्याघ्रः प्रसिद्धः च्यालो दुष्टगजः सर्पो चा जळं पानीयं नदीसमुद्रादि बनलो वहिस्तेषां विपदः फष्टानि तैः कुता विपदः क्षयं प्रति क्षयं याति । पुनः कल्याणानि श्रेयांसि समुल्लसति वृद्धि प्राप्नुवति । पुनस्तेषां विबुधाः देवाः सानिध्यं अध्यासते साहायं कुर्वन्ति । पुनस्तेषां कीर्तिः स्फूर्तिमिति विस्तारं याति। पुनः तेषां धर्मो दानादिविधिरुपचय पोषं याति । पुनस्तेषां मधं पापं प्रणश्यत्ति नाशं याति । पुनस्तेषां स्वनिर्वाणमुखानि स्वर्गापवर्गसुखानि संनिदधते समीपमायांति। ये शीलं विभ्रते तेषां Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली एतानि भवति |॥ ३८ ॥ अर्थ-जो पवित्र शीलवत पालन करता है वह वासानी . से स्वर्ग मोक्ष की रचना करता है। उसे स्वर्ग मोक्ष पाना सरल है. वह पापरूपी कीचड़ को घोता है, पुण्य का संचय करता है, जगत में उसकी महिमा फैलती है, देवों के समूखको नमस्कार कराता है अर्थात इसे देव नमस्कार करते हैं घोर उपसर्ग को हनता है अर्थात उसके घोर उपसर्ग दूर हो जाते हैं ।। ३ ।। मालिनीछन्दः हरति कुलकलङ्क लुपते पापपंक । सुकृतमुपचिनोति श्लाध्यतामातनोति ।। नमयति सुरवर्ग हंति दुर्गोपसर्ग । रचयति शुचिशीलं स्वर्गमोक्षी सलीलम् ।।३९।। व्याख्या--पुनश्च शुचि निमशं शीलं ब्रह्मत्रतं कुलस्य कलंक मलिनतां हरति नाशयति । पुनः शीलं पापमेव पंक कदम लुपते छिनसि । पुनः शुचि निर्मलं शुद्ध शीलं सुकृतं पुण्यं उपचिनोति बर्द्ध यति । पुनः श्लाध्यतां प्रशस्यतां आतनोति विस्तारयति । पुनः शीलं सुरवर्ग नमयति देवसमूह नम्रीकरोति । पुनः शीलं दुर्गोपसर्ग गैद्रोपसगै उपद्र 'हति । पुनः शीलं कर्तृ सलीळ यथास्याराथा लीलयैव हेलामात्रेण स्वर्गमोक्षी रचयति ददातीत्यर्थः ॥ ३३ ॥ अर्थ-जो अखंड शीलवत धारण करते हैं, उनके व्यान सर्प जल अग्नि भादि कृत आपसियां नष्ट हो जाती है, ये कल्याणसे सुशोभित होते हैं, देव सन्मुख आकर नम्र होते हैं, उनकी कीर्ति Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली स्फुरायमान होती है, धर्म वृद्धि को प्राप्त होता है, पाप नष्ट होता है और स्वर्ग तथा मोक्ष के सुख को प्राप्त करते हैं ।। ३६ ॥ पुनः शीलादिह लोकेऽपि कष्टानि यांतीत्याह शार्दूलविक्रीडित छन्दः तोयत्यग्निरपि सजत्यहिरषि व्याघ्रोपि सारंगति । व्यालोपिश्चति पर्वतोऽप्युपलति श्वेदोऽपि पीयूषति ।। विघ्नोऽप्युत्सवति नियत्यरिरपि क्रीडातडागत्ययानाथोऽपि स्वगहमागपि कृणां शीलामा ४॥ व्याख्या-नृणां मनुष्याणां ध्रुवं निश्चितं शीलप्रभावात् अग्निरपि होयति तोमिवाचरति जलवत् शीतलं स्यात् । तथा अहिरपि सर्पोपि सजति सगिवाचरति पुष्पमाला इवाचरति पुनः शीलप्रभावातद् व्याघ्रोऽपि सिंहोपि सारंगति सारंग इव हरिण इवाचरति । पुमा लोपि दुष्टगजोपि अश्षति अश्व इवाचरति तथा विषमः पर्वतोपि उपलति उपल इवाचरति सामान्यपाषाण इवाचरति पुनः श्वेशोपि विधमपि पीयूषति पीयूष इवाचरति अमृतमिवाचरतीत्यर्थः । विघ्नोप्यंतरायोपि आपदपि उत्सवति उत्सष इवाचरति । विघ्नोप्युत्सव एव भवति । तथा अरिरपि शत्रुरपि प्रियति प्रिय इवाचरति | शत्रुरपि प्रिय एव भवति । तथा अपांनायोपि समुद्रोऽपि क्रीडानसागति खेलनसरोवर इवाचरति । अटव्यपि अरण्यमपि स्वगृहति स्वगृहभिवाचरति । नृणां शीलप्रभावादेतानि १ शीलप्रभावान्नृणाम् इति पाठान्तरम् । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ सूक्तिमुक्तावली वस्तूनि भांति : ४. भुदर्शन मोटि बंदचलि रावणकथा वाच्या इति ब्रह्म प्रक्रमः। अर्थ-मनुष्यों के शील के प्रभाव से निश्चय ही अग्नि भी जल रूप में परिणत हो जाती है, सर्प पुष्पमाला रूप हो जाता है, बाघ हिरण के भाव को प्राप्त हो जाता है, भयंकर हस्ती घोड़े के भाव को प्राप्त हो जाता है, महान पर्वत भी छोटे पत्थर रूप हो जाता है, विष अमृत में परिणत हो जाता है, विघ्नकारक पदार्थ धत्सव रूप में परिणामने हैं, शत्रु भी मित्र सरीखा व्यवहार करने लग जाता है, समुद्र भी क्रीडा करने का तालाब रूप हो जाता है, भयंकर अटवी ( वनी ) अपने गृह रूप हो जाती है, ऐसा शील का अद्भुत माहात्म्य जान कर उसे हृढ़ता से पालन करना चाहिये, अनेक संकटों के आने पर भी सुमेरु पर्वत तुल्य अडिग रहना चाहिये इसी से मनुष्य जन्म की शोभा है । शीलवत के आषत कहा हैअंकस्थाने भवेच्छीलं, शून्याकारंप्रतादिकम् । अंकस्याने पुनर्नष्ठ, सन शून्यत्रतादिकम् ॥ अर्थ-शीलप्त १, २, ३, ४, ५ आदि भट्ठों के समान है, और अहिंसा, सत्य आदि व्रत ..... शून्यों के समान है। १, २. ३, ४, ५ आदि अंकों के अभाव में ...०० शून्यों का मूल्य नहीं है उसी प्रकार शीलवत पालन पूर्वक हो ब्रतों का परिपालन सफलता का सूचक है। शीलवत रहित अहिंसादि का पालन निष्फल है । ब्रह्मचर्य (शील ) का माहात्म्य देखिये Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिलादल्ली शुचि भूमिगतं तोयं, शुचिर्नारी पतिव्रता । शुचिधर्मपरो गजा, ब्रह्मचारी सदा शुचिः ।। अर्थ-भूमिगत कूप का जल शुद्ध होता है, पतिव्रता की पवित्र होती है, धर्मात्मा राजा पवित्र माना गया है और ब्रह्मचारी पुरुष सदा पवित्र होता है ।।४।। पवित्र होती है. प्रमाला अथ परिप्रहदोषानाह.. शार्दूलविक्रीडित छन्दः कानुष्यं जनयन् जडस्य रचयन्धर्मद्रुमोन्मूलनं क्लिश्नन्नीतिकृपाक्षमाकमलिनी लोभाम्बुधिं वर्द्धयन् । " मर्यादातटमुद्रुजन्छुभमनोहंसप्रवासं दिशन् किन्न क्लेशकरः परिग्रहनदीपूरः प्रद्धिं गतः ॥४१॥ व्याख्या-परिग्राहो धनधान्यक्षेत्रगृहरूप्यसुवर्णकुयद्विपदः चतुः पदानां संग्रहोमूर्छा स एष नदीपूरः सरिस्प्रवाहः प्रवृद्धिं गतः उपचयं प्राप्तः सन् । किं क्लेशकरः कष्टदायी न स्यात् अपितु स्यादेव । किं कुर्वन् जलस्य परिग्रहसंग्रह फस मूर्खजनस्य कालुष्यं क्लिष्टाध्यवसायत्वं जनयन् उत्पादयन् अन्योपि नदीपूरोपि प्रशृद्धः सन् जलस्य पानीयस्य कालुष्यं अविलत्वं जनयति । उलयोरक्यं जस्य जलस्य । पुनः किं कुर्वन् धर्म एव द्रुमो वृक्षः तस्योन्मूलन उत्पादन रचयन् कुर्वन् अन्योपि नदीपूरः प्रवृद्धोवृक्षाणां उत्पाटनं करोति । पुनः किं कुर्वन् नीतिकपाक्ष माकमलिनी नीतिायः कृपा Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ सूक्तिमुक्तावली दया क्षमा क्षति ता एव कमलिन्या ताः क्लिश्यन् पीडयन् अन्योपि नदीपूरः कमलिनी: पीडयति । पुनः किं कुर्वन् लोभांबुधि षढयन् लोभ एव अम्बुधिः समुद्रस्तं वद्ध यन् वृद्धि नयन् । “जहालाहो तहा लोहो” इति । पुनः किं कुर्वन धर्मस्य मर्यादा एव तट चरणधिधिरूपं तटं उगुजन् पोडयन भजयन् । अन्योपि नदीपूरः प्रवृद्धः सन तट पातयति । पुनः किं कुधम् शुभमनोहंसप्रवासं दिशन् । शुभं धर्मध्यानसहितं यन्मनातदेव हंसस्तस्य प्रवास परदेशगमनं दिशन् आदिशन् । भन्योपि नदीपूरो हंसान् उड्डापति ( उल्लापयति ) ईरशो मूछी परिग्रहः क्लेशकरः स्यात् ।। ४१ ॥ __अर्थ-इस पद्यमें परिग्रह का वर्णन किया है कि परिग्रह कैसा मनर्थकारक है-हृदय की कलुषता को पैदा करता हुआ, अज्ञानता को रचता हुआ, धर्म रूपी वृक्ष को बखाइता हुआ, नीति दया क्षमा रूपी कमलिनी को क्लेश पहुँचाता हुआ, लोभरूपी समुद्र को बढ़ाता हुआ, मर्यादा रूप तट को उखाड़ता हुआ, शुभ मन रूप हंस को परदेश गमन कराता हुआ परिग्रह रूपी मदी का प्रवाह वृद्धि को प्रान हुआ क्या क्या अनर्थ नहीं करता किन्तु सारे ही अनर्थों का मूल कारण है । इसप्रकार परिग्रह को बुरा जान उसका परिमाण करना योग्य है। अर्थात लोभ कषाय को रोकने के लिये परिग्रह की मर्यादा बांधना चाहिये। __ भूयोपि परिग्रहदोषानाह-- मालिनीछन्दः कलहकलभविन्ध्यः क्रोधगृनश्मशानं । व्यसनभुजगरन्धं द्वेषदस्युप्रदोषः । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली सुकृतवन्दवाग्निर्मार्दवाम्भोदवायु । नयन नितुषारो ऽस्यर्थमर्थानुरागः || ४२ || व्याख्या - अस्य अर्थानुरागः परिग्रहो परिमूर्छा रागः ईदृशोस्ति । कथंभूतः कलह एव कलभो बालहस्ती तस्य विध्यो विध्याचल यथा विध्याचले कलभः कीद्धति तथा अत्य अर्थानुरागे द्रव्यरागे कलहो भवति । तथा कोथगृअश्मशानं क्रोध एव गृधः पक्षिविशेषस्तस्य श्मशानं प्रेतवनं यथा गृध्रः श्मशाने रमते तथा क्रोधः । पुनः व्यसनभुजगरन्ध्र व्यसनमेव कष्टमेव भुजगः सर्पस्तस्य बिलं । पुनद्वेषदरयुप्रदोष: द्वेष एव दस्युश्चौरस्तस्य प्रदोषः संध्यासमयः । प्रदोषे चौराणां बलं भवति तथा सुकृतवन्दवाग्निः सुकृत एव पुण्यमेव चनं तस्य दवाग्निः दावानलः । पुनर्भावांभोदवायुः मार्दवं मृदुत्वं कोमल तदेव अंभोदो मेघस्तत्र वायुः । गुननयनलिनतुषार:नयो न्याय एव नलिनं कमलं तत्र तुषारो हिमं । अत्यर्थं द्रव्यानुरागो लोभो ईदृशोस्ति । अतो न कर्तव्यः ॥ ४२ ॥ 1 अर्थ - पदार्थों में अतिशय अनुराग सत्पुरुषों द्वारा त्यागने योग्य है। क्योंकि अधिक अनुराग ही परिमछ है, अधिक ममता से निकृष्ट कर्मों का बन्ध होता है, उसी का वर्णन किया जाता है :कलह ( लड़ाई ) रूप जो हाथी का बच्चा उसके निवास के लिये विन्ध्याचल पर्वत के तुल्य है अर्थात् परिग्रह ही कलह का कारण है, इसी के कारण भाई भाई का शत्रु बन जाता है, क्रोध रूपी गृद्ध पक्षी के निवास का स्थान- श्मशान के समान है अर्थात् परिषद के कारण ही कोष उत्पन्न होता है। सात व्यसन रूपी सर्प के बिल के समान हैं, द्वेष रूप बोर को रात्रि के समान ५७ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली है, पुण्य रूप वन को दायामल समान है, कोमल परिणाम रूप मेघ के उड़ाने के लिये पवन समान है। [ परिग्रह की तृष्णा के कारण कोमल परिणाम कभी हो नहीं सकते ) तथा नय रूप जो कमल 4 उसको जलाने के लिये तुषार के तुल्य है ऐसा विचारकर पदाथों में अतिशय अनुराग त्यागने योग्य है। मपि परिहोगमा-- शार्दूलविक्रीडितछन्दः प्रत्यर्थी प्रशमस्य मित्रमधृतेमोइस्य विश्राममा । पापानां खनिरापदांपदमसद्ध्यानस्य लीलावनं ।। व्याक्षेपस्य निधिर्मदस्य सचिवः शोकस्य हेतुः कलेः । केलीवेश्मपरिग्रहः परिहतेयोग्यो विविक्तात्मना ।।४।। व्याख्या-भो मव्याः ! अयं परिग्रहो मुर्छाधिक्य विवितामना विवेकवता पुसा परिहतेः परिहारस्य योग्यः परिहर्तुमुचितः । कीहशः प्रशमस्य उपशमस्य प्रत्यर्थी शत्रुः । पुन: अघृतेः असंतोषस्य मित्रं सुहत् । पुनर्मोहस्य मोहनीयकर्मणः वा विश्रामभुः विश्रामस्थानं । पुनः पापानां अशुभकर्मणां स्वनिः खानिः । पुनरापदा कष्टानां पई आस्पदं 1 पुनरसद्धचानस्य आरौिद्रध्यानस्य लीलावनं क्रीडावनं । पुनब्यांक्षेपश्य व्याकुलस्य निधिनिधानं । पुनर्मदत्य अहंकारस्य सचिवो मंत्री । पुनः शोकस्य हेतुः कारणं । पुनः कलेः कलहस्य केलीवेश्म कोडागृहमित्यर्थः ॥ ४३ ॥ वर्ष- कैसा है परिग्रहः-समता भाव का शत्रु है, अधैर्य का मित्र है अर्थात् परिग्रही के किसी कार्य में धैर्य नहीं रहता, मोह Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली के विश्राम करने की भूमि है, पापों को खानि है, आपत्तियों का । स्थान है, खोदे ध्यान का क्रौड़ावन है, व्याकुलताका भएकार है, आठ मदों का मन्त्री अर्थात् सहायक है, शोक का कारण है, कलह का क्रीड़ागृह है, ऐसा अनेक अनर्थों का कारण परिग्रह विरक्त चित्त पुरुषों द्वारा त्याग करने योग्य है ।। ४३ ।।) शार्दूलविक्रीडितछन्दः बहिस्तृप्यति नेन्धनरिह यथा नांभोभिरंभोनिधिस | तद्वन्मोझनो धनैरपि धनजन्तुर्न संतुष्यति ॥ न त्वेवं मनुते विमुच्य विभवं निःशेषमन्यं भवं । यात्यात्मा तदहं सुधैव विदधाम्येनांसि भूयांसि कि ||४४|| व्यास्था-यथा वह्निः घनैरपि इन्धनैः समिदिर्न तृप्यति न तृप्ति याति । पुनर्यथा अंभोनिधिः समुद्रः भंभोभिर्ज लैः कृत्वा म तृप्यति तद्वत् तयोर्वत् जंतुः प्राणी जातु कदाचित धनैरपि बहुभिर्धनैः द्रव्यः कृत्वा न संतुष्यति न संतोषं प्राप्नोति । कथंभूतो जन्तु: मोहेन घनो निविड तु पुनः जन्तुः एवं न मनुते न जानाति यदयं आत्मा जीवो निःशेषं समस्तं विभवं द्रव्यं विमुच्य त्यक्त्वा अन्यंभवं अपर जन्म परभवं याति तत् तस्मात् कारणात् अहं मुधैव वृथैव भूयांसि प्रचुराणि एनांसि पापानि कि किमर्थ विदधामि करोमि एवं न जानामि || ४४ ।। अत्र नन्दराजकथा प्रसिद्धा। इति परिप्रहप्रक्रमः धर्म-जैसे इस संसार में अग्नि इंधन से तृप्त नहीं होती है, जल से समुद्र तृप्त नहीं होता उसी प्रकार अस्यन्त लोभी प्राणी अधिक धन होने पर भी संतोष को प्राप्त नहीं होता और यह मेरा Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० सूक्तिमुक्तावली आत्मा तो सम्पूर्ण विभाव को छोड़ कर परभव को चला जाता है तो फिर मैं व्यर्थ ही अनेक घोर पापों को क्यों करता हूँ ? ऐसा कभी भी विचार नहीं करता है। भावार्थ --- अगर संसार का समस्त धन भी इसे प्राप्त हो जाय तो भी कभी यह मोही प्राणी सन्तोष धारण नहीं करता । तथा यह जगत का वैभव कभी साथ भी नहीं जाता सब यहीं पर पड़ा रह जाता है तो में क्यों पापोपार्जन करूं जिससे नरक तिर्यच्च आदि की भयंकर घोर वेदनाओं का सामना करना पडे ऐसा कभी विचार विमर्श नहीं करता ॥ ४४ ॥ तत्र नंदराजाकथा | अथ क्रोधजयार्थ - मुपदेशमाहशार्दूलविक्रीडितम्बः यो मित्रं मधुनो विकारकरणे संत्राससंपादने । सर्पस्य प्रतिविम्वमङ्गदहने, सप्तार्चिषः सोदरः || चैतन्यस्य निषूदने विपतरोः सब्रह्मचारी चिरं । स क्रोधः कुनलाभिलाषकुशलैः निर्मूलमुन्मूल्यतां ||१५|| व्याख्या - आत्मनः श्रेयोवांद्याचतुरैर्नरैः स क्रोधः कोपो निर्मूलं समूलं यथा स्यात् तथा उन्मूल्यतां उच्छिद्यतां सः कः यः क्रोधः विकारकरणे चित्तादिविकारविधाने मधुनो मद्यस्य मित्र सुहृत् । पुनर्यः क्रोधः संत्रास संपादने भयजनने सर्पस्य प्रतिनि सर्पसदृशं । पुनर्यः क्रोधः भंगदद्दने शरीरप्रज्वालने सप्तार्चिषोऽस्नेः Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द सूक्तिमुक्तावली सोदरोऽग्नेता । पुनः यः क्रोधः चैतनस्य ज्ञानस्य निपूरने विनासहभोगीशने विषलरोः विषवृक्षस्य चिरमतिशयेन सब्रह्मचारी सहपाठी | ki ___अर्थ-जो क्रोध चित्त को विकृत करने में मद्य का मित्र है अर्थात् शराब जैसा विकारी है [ क्रोध के कारण विवेक नष्ट हो माता है ] भय के उत्पन्न करने में सर्प तुल्य है, शरीर को जलाने में अम्नि के समान है अर्थात् क्रोध के आवेश में आकर प्राणी अग्नि समान जाज्वल्यमान होने लगता है, चेतन ( आत्मा) के जीवन को नष्ट करने में विषवृक्ष का चिरकाल साथी है अर्थात् विषवृक्ष के समान है। आत्मा का हित चाहने वाले चतुर पुरुषों द्वारा वह क्रोष जड़से दवाढ दिया जाना चाहिये। भावार्थ-आत्मकल्याण के इच्छुक पुरुषों को चाहिये कि ऐसा क्रोध कभी न करें जिससे हेयोपादेय रहित बुद्धि हो जाय भतः क्रोध का सर्वथा त्याग करना ही श्रेयस्कर है ॥ ४५ ॥ हरिणीछन्दः फलति कलितश्रेयाश्रेणीप्रसूनपरम्परः । प्रशमपयसा सिक्तो मुक्ति तपश्चरणद्र मः ।। यदि पुनरसौ प्रत्यासत्तिं प्रकोपहविर्भुजो। भजति लभते भस्मीभावं तदा विफलोदयः ॥४६॥ व्याख्या-तपश्चारित्ररूपएष द्रुमो वृक्षः मुक्ति मोझं फलति निष्पादयति । कथंभूतः कलितश्रेय गीप्रसूनपरम्परः फलिता Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ सूक्तिमुक्तावली उत्पादिता श्रयसां पुण्यानां कल्याणानां वा श्रेणिः राजिरेव प्रसूनानां पुष्पाणां परम्परा पंक्तिर्येन सः । पुनः कथंभूतः प्रशम एवं उपशम एव पयो जलं तेन सिक्तः सेकं प्रापितः । यदि पुनः परं तु असौ तपश्चरणद्रुमः प्रकोपचविर्भुजः कोषबह: प्रत्यासत्ति सामीप्यं भजति आश्रयति तदा भस्मीभावं भस्मरूपतां लभते प्राप्नोति । कथंभूतः विफलोदयः विगतः फलस्योदयो यस्य फलोदयरहितः ॥ ४६ ॥ अर्थ - शन्त शिजींचा हुआ तपश्चररूपी वृक्ष अनेक पुण्य समूह रूप पुष्पों की पंक्तियों से सुशोभिव होता हुआ मोक्ष रूपी फल को फलता है ( मोक्षफल को देता है ) यदि वह तप रूपी वृक्ष क्रोध रूपी अग्नि को निकटता को प्राप्त हो तो फिर बिना फल दिये ही दूग्ध हो जाता है । भावार्थ- मुक्तिरूपी फल को देनेवाला तप रूपी वृक्ष है । अगर क्रोध - अग्नि का सेवन हो जाय तो वह तपवृश्च भस्म हो जाय अतः क्रोध का त्याग कर देना ही कल्याणकारी है ॥ ४६ ॥ पुनः क्रोधदोशनाहशार्दूलविक्रीडितबन्दः संतापं तनुते भिनशि विनयं सौहार्दमुत्सादयत्युद्वेगं जनयत्यवद्यवचनं ते विधत्ते कलिं ॥। — " कीर्ति कृन्तति दुर्मतिं वितरति व्याहृति पुण्योदयं । दत्तेयः कुमतिं स हातुमुचितो, रोषः सदोषः सतां ||४७| व्याख्या - स रोषः क्रोधः सतां सत्पुरुषाणां दातुं त्यक्त Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली बचितो योग्योऽस्ति । कथंभूतः रोष: सदोषः अनेकदोपः सहिसः । सः कः यो रोषः संतापं चिसोद्वेगं तनुते विस्तारयति । पुन यो रोषो विनयं विनयगुणं भिनत्ति विदारयति विनाशयति । पुनर्यो रोषः सौहाद्र मित्रभाव उत्सादयति विनाशयति । पुनर्यः उद्वेग उच्चाटनं जनयति । पनयः अवयवचनं असत्यवचनं सूते उत्पादयति । पुनयः कलि कलई विधसे करोति । पुनर्यारोपः कौति यशः कीर्ति कृन्तति छिनत्ति । पुनर्योदुर्मसिं दुष्टबुद्धि वितरति-दसे । पुनयः पुण्योदयं धर्मस्य उदयं व्याहनि विनाशयति । पुनर्यः कुगति नरकतिथ ग्गति दत्ते ददाति । स रोषः सतां हातुमुचितः ॥ ४ ॥ (अर्थ--जो क्रोध मन्ताप को बढ़ाता है विनय को नष्ट करता है, मित्रता को उखाई देता है, अर्थात् जिससे भिन्नता नष्ट हो जाती है, उद्वेग को उत्पन्न करता है, निन्द्य वचन को उत्पन्न करता है, कलह करता है, कीर्ति को काट डालता है अर्थात नष्ट कर देता है, कुबुद्धि, पैदा करता है, पुण्य के उदय को नष्ट कर देना है, कुगति को देता है अर्थात् मर कर प्राणी कुगति में जाता है ऐसा अनेक दोषों को उत्पन्न करने वाला वह कोध सज्जन पुषों द्वारा त्याग करने योग्य है ॥४७॥ शार्दूलविक्रीडितछन्दः यो धर्मं दहति द्रुमं दव इवोन्मथ्नाति नीति लता । दंतीवेन्दुकला विधुतुद इव क्लिश्नाति कीर्ति नृणां ।। स्वार्थं वायुरिवाम्बुदं विघटयत्युल्लासयत्यापदं । तृष्णां धर्म इयोचितः कृतकृपालोपः स कोपः कथं ॥४८॥ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली व्याख्या-यो धर्म दहति स कोप क्रोधः कथं केगोपायेनोचितः योग्यः स्यात् अपि तु न कथमप्युचितः । सः कः यः कोपो धर्म श्रेयो पहति भस्मीकरोति । कः किमिव दवो दावानलो ममिव यथा दावानलो दुर्मवृक्षं दहति । पुनर्यो नीतिन्यायं उन्मध्नाति उन्मूलयति कः कामिव दन्ती हस्ती लतामिव यथा हस्ती लतामुन्मूलयति । नृणां मनुष्याणां कीर्ति क्लिश्नाति पोहयति गमयति । कः कामिव विघुतुदो राहुरिंदुकलां चन्द्रलेखामिव । पुनयों रोष: स्वार्थ विघटयति । स्फेटथति कः कमिव वायरबुदमिव यथा वायुमेधं विघटयति पुनयः आपदं कष्टं उल्लासयति। विस्तारयति कः कामिव धर्म: प्रीष्मः तृष्णामिव । यथा तपस्तृष्णां तुषां वर्धयति । पुनः कथंभूतः कोपः कृतकृपालोपः कृत्तः विहितः कृपाया दयाया लोपो विनाशो येन सः ॥४८|| इति क्रोधप्रक्रमः अर्थ-जो क्रोध वृक्ष को दावानल अग्नि के समान मनुष्यों के धर्म को जला देता है, लता को हाथी के समान नीति को लखाद देता है, चन्द्रमा की कला को राहु के समान कीर्ति को मलिन फर देता है, मेघ को पवन के समान स्वार्थ को नष्ट कर देता है, प्यास को धूप के समान आपत्तियों को बढ़ाता है और जिस शोध के कारण दयाभाव का सर्वथा लोप हो जाता है । ऐला वह कोध करना किस प्रकार उचित है अर्थात् नहीं करना चाहिये । क्योंकि कोष महान धनर्थ करता है । इसका त्याग करना ही उचित है ॥ ४८ ॥ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तिमुक्तावली अथ मारस्य दोषानाह मन्दाकान्ता छन्दः यस्मादाविर्भवति विततिर्दुस्तरापनदीनां, यस्मिन् शिष्टाभितचित्त मामलामापिका । . यश्च व्याप्तं वहति वधधी धुम्यया क्रोधदावं, तं मानाद्रि परिहर दुरारोहमोचित्यवृत्तेः ॥४९।। व्याख्या-मो भव्यप्राणिन् | औचित्यवृत्तेः इचिताचार करणात तद्योग्यविनयविधानात तं मानानि मान अहंकार एव अद्रिस्त अहंकारपर्वतं परिहर स्यज मुरुच । तं कं यस्मात् मानाद्रे: दुस्तरा तरीतुं अशक्या भापन्नदीनां कष्टारूपनदीनां विततिः श्रेणिराविभवति प्रकटीभवति । अन्यस्मादप्यनदीनां विततिः प्रादुभवति । यथा यस्मिन् मानाद्री शिष्टाभि रुचितगुणप्रामनामापि नास्ति । शिष्टानां उत्तमामा अभिरुचिताः प्रीतिदायिनो ये गुणा ज्ञानादयः औदार्यादयो का तेषां प्रामः समूहस्तस्य नामापि नास्ति गुणानां लव लेशोपि न। पुनर्यो मानाद्रिः क्रोधदावानलं वहति धसे । कथंभूतं बोधदाचं वधधी धूम्यया व्याप्तं । हिंसाबुद्धिधूमसमूहेनालीदं । पुनः कथंभूतं दुरारोहं आरोदुमशक्यं अथवा औचित्यवृत्तेः योग्यताया दुरारोह ॥४॥ अर्थ-जिस ( मानकषाय ) से अहंकार रूपी पर्वत से कठिनता से पार करने योग्य आपत्तिरूपी नदियों का समूह निकलता है अर्थात् मान के कारण ही अनेक आपत्तियां सिर पर आती हैं, जिस मानरूपी पर्वत में सजन पुरुषों द्वारा ग्रहण करने योग्य गुण रूपी Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ . सूक्तिमुक्तावली प्राम का नाम भी नहीं है अर्थात अहंकार के कारण मनुष्य के सब गुण नष्ट हो जाते हैं. और जो मात हिंसा बुद्धिरूपी धूम से चारों। तरफ फैल कर क्रोधरूपी अग्नि को धारण करता है । ( मान के कारण जीवों की हिंसक बुद्धि तथा क्रोधाग्नि जाज्वल्यमान हो जाती है ) ऐसे अस कठिनता से पार करने योग्य मानरूपी पर्वत को उचित कार्यों से, सदाचरण से श्याग देना चाहिये ।। ४६॥ भूयोमानदोषानाह - शिखरिणी छन्दः शमालानं भजन्विमलमतिनाही विघटपन् , किरन्दुक्पिांशूल्करमगणयन्नागमणिम् । भ्रमन्नुयाँ स्वरं विनयवनवीथीं विदलयन् । जनः किं नानथें जनयति मदांधो द्विप इव ||५०॥ व्याख्या-मदान्धो जन: किमनर्थ न जनयति मदेन आईकारेण अन्धो गतेक्षणो जनः के के भन न जनयति नोत्पादयति अपि तु सर्व भनी जनयति क इव द्विप इव मत्तगज इव यथा मांघो द्विपो अनर्थ उपद्रवं जनयति । किं कुर्वन् शमालानं भंजन् शम एव उपशम एव भालानं गजबन्धनस्तम्भं मंजन उन्मूलयन् । पुनः किं कुर्वन् विमलमतिना निर्मलबुद्धि एव नाडी बन्धनरज्जुतां विघटयन् त्रोटयम् । पुनः किं कुर्वन् दुर्वापाशूकर दुर्वागेव दुर्वचनमेव पांशु धूलिस्तस्याः नकर समूह किरन विचपन् । पुनः आगम एव सिद्धांत एष सणिः अंकुशस्तं अवगणयन् अविचारयन् । पुनर्विचयनयदीथीं Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिकायत विनय एष नयवीथी न्याय श्रेणिस्ता विवलयन् विध्वंसयन् अन्योपि मदांधो हस्ती एतानि वस्तूनि करोति ॥ ५० ॥ अर्थ-मदान्ध पुरुष की चेष्टा का वर्णन करते हुये आचार्य कहते हैं कि-मान कषाय कैसी है--समता भाव रूपी बन्धन के खम्भे को उखाड़ता हुआ, निर्मल बुद्धिरूपी सांकल को तोड़ता हुआ, दुर्वचन रूपी धूल के समूह को बखेरता हुआ, आगमरूपी अंकुश को नहीं गिनता हुआ पृथ्वीतल में इच्छानुसार भ्रमण करता हुआ, विनय रूपी बाग की गली को दलमलीन करता ( कुचलता हुआ अहंकार से अन्धा पुरुष मदोन्मत्त हाथी के समान क्या क्या अनर्थ नहीं करता १ किन्तु सभी प्रकार के अनर्थ कर डालता है अतः मान कषाय को त्याग कर मार्दव धर्म धारण करना योग्य है |॥ ५० ॥ ) पुनराह शार्दूलविक्रीडितछन्दः औचित्याचरणं विलुपति पयोवाह नभस्वानिक । प्रध्वंसं विनयं नयत्यहिरिव प्राणस्पृशा जीवितम् ।। कीति करविणी मतङ्गज इव प्रोन्मूलयत्यंजसा । मानो नीच हवोपकारनिकरं हन्ति त्रिवर्ग नृणां ।।५।। व्याख्या-मानोऽहंकारो नृणां पुंसां त्रिवर्ग धर्मार्थकामरूप हंति नाशयति कः कमिव नीचोमनुष्यः उपकारनिकरमिव यथा नीच उपकारसमूह हति तथा । पुनःमान औचित्याचरणं योग्याचार विलम्पति स्फेटयति कः कमिव नभस्थान वायुः पयोषाहमिव । पुन Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ सूक्तिमुक्तावली मनः प्राणस्पृशां प्राणिनां विनयं अभ्युत्थादिक असे यं नयति क: कमिव अह्निः सर्पो जीवितमिव यथा सर्पों जीवितं क्षयं नयति । पुनरंजसा वेगेन कीर्ति प्रोन्मूलयति कः कामिव मत्तगजो हस्ती कैरविण कमलिनीं प्रोन्मूलयति तद्वत् ॥ ५१ ॥ अर्थ - तीव्र पवन जैसे बादलों को नष्ट कर देता है अर्थात् घायु के वेग से जिस प्रकार सब बादल विघट जाते हैं उसी प्रकार मान कषाय के कारण मनुष्य का उचित आचार विचार नष्ट हो जाता है, जीवों के जीवन को जैसे सांप नष्ट कर देता है वैसे ही मान विनयगुण को नष्ट कर देता है ( अहंकारी के विनय भाव कदापि नहीं होता ) कमलिनी को जैसे हाथी खाद ढालता है वैसे कीर्ति को शीघ्र ही नष्ट कर देता है-मान के कारण कीर्ति नष्ट हो जाती है, और उपकारी के उपकार को जैसे नीच पुरुष नष्ट कर देता है । अर्थात् किये हुये उपकार को भूलकर नीच मनुष्य उपकार करने वाले का अहित कर डालता है उसी प्रकार मान कषाय मनुष्यों के धर्म, अर्थ, काम इन तीनों पदार्थों ( पुरुषार्थों ) का नाश कर देता है ॥ ५१ ॥ भूयश्वाह वसन्ततिलका छन्दः मुष्णाति यः कृतसमस्तसमीहितार्थं । विनयजीवितमङ्गभाजां ॥ संजीवनं जात्यादिमानविषजं विषमं विकारं । तूं मार्दवामृतरसेन नयस्व शांतिम् ॥ ५२ ॥ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली व्याख्या-यो मानोऽङ्गभानां प्राणिना विनयजीवितं विनयगुणरूपं जीवितं मुष्णाति उच्छित्ति । कथंभूतं विनयजीवितं कृतसमस्तसमीहितार्थ संजीवनं कृतं समस्तानां समीहितानां वांछितार्थानां संजीवनं येन तत् तं जास्यादिमानविषजं जातिलाभकुत्श्चर्यबलरूपसपःश्रुतानां मानोऽहंकार एष विषं तस्मात्समुद्भवं उत्पन्न विषमं घोरं विकारं मार्दवामृतरसेन मृदुतासुधारसेन शांति उपनाम नयस्व प्रापय ।। ५२ ।। मानत्यागे बाहुबलिदृष्टान्तः इति मानप्रक्रमः। अर्थ-जो मान प्राणियों के सम्पूर्ण वाहिछतार्थरूप तथा संजीवन औषधि स्वरूप विनय को चुरा लेता है अर्थात् मान ( अहंकार) के सद्भाव में पूज्य पुरुषों के प्रति आदर सत्कार की भावना रूप विनय गुण सर्वाथा नष्ट हो जाता है अतः उस जात्यादि पाठ प्रकार ( जातिमच, कुलमद, बलमद, ऋद्धिमद, सपमद, शरीरमद, ज्ञानमद, ऐश्वर्यमद ) के मद रूप विष से सत्पन्न हुये विषम विकार अर्थात् रोग को मार्दव धर्म (कोमल परिणाम ) रूप अमृत पान से शान्त करो । मान रूपी रोग को मार्दवामृत से शान्त करना चाहिये ।। ५२॥ अथ मायात्यागमाह-- मालिनीछन्दः १८.कुशलजननवन्ध्यां सत्यसूर्यास्तसम्ध्यां । कुतियुवतिमाला मोहमातंगशालाम् ।। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली शमकमलहिमानीं दुर्यशोराजधानी । म्यारासहायां दूरसो मुश्च वायाम् । व्याख्या--मो भव्यजन ! मायां कपट दूरतो मुञ्च त्यज । कथंभूतां मायां कुशलस्य क्षेमस्य जनने उत्पादने बंध्या बंध्यास्त्रीरूपां पुनः सत्यमेव सूर्यस्तस्यास्तमनाय संध्या तां । पुनः कथंभूतां कुगतिरेव युवतिस्तस्या वरणमाला तां। पुनमोह एवं मातंगस्तस्यशाला बंधनस्थानम् ता । पुनः किंभूता शम एव उपशम एव कमलानि तेषां हिमानो हिमसंहतिः तां । पुनः किंभूतां दुर्यशः अपकीर्तिःतस्य राजधानी निवासनगरी तां । पुनः किंभूतां व्यसनानां कष्टानां शतानि सहायाः यस्याः सा तो ईही माथां दूरतो मुख्य त्यज ॥ ५३ ॥ मर्थ -इस पद्य में मायाचारी के त्याग का उपदेश है वह माया कैसी है- कल्याण के उत्पन्न करने में बन्ध्या स्त्री के समान है (मायावी व्यक्ति के कभी भी कल्याण की भावना प्रत्पन्न नहीं हो सकती ), सत्य वचन रूपी सूर्य के अस्त होने के लिये सन्ध्या के समान है, मोह रूपी हाथो के लिये शाला के समान है, समता भाव रूपी कमलों को नाश करने के लिये तुपार [ पाला ] समान है, अपकीर्तिकी राजधानी है, सैंकड़ों व्यसनों को अपन्न करने में सहायक है ऐसी माया कषाय को दूर ही से त्याग देना चाहिये ॥ ५३ ।। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली पुनराह--- उपेन्द्रवज्राछन्दः विधाय मायां विविधैरुपायैः । परस्य ये बञ्चनमाचरन्ति ॥ ते चयन्ति त्रिदिवापवर्ग सुखान्महामोहसखाः स्वमेव ।।५४॥ व्याख्या-ये जनाः विविधर्नानाप्रकाररुपायः मायां कपट विधाय कृखा परस्य अन्यजनस्य धर्म आचरान्त कुन्ति ते जनाः महामोहसखाः मदज्ञानयुक्ताः सन्तः विदिवापवर्गसुखान देवलोकमोक्षसुखान् स्वमेवात्मानमेव बनयन्ति विप्रतारयन्ति त्याजथन्ति || ५४ ॥ अर्थ-जो लोग अनेक प्रकार से मायाचारी ( जालसाजी ) करके दूसरे लोगों को ठगते हैं, अन्यथा प्रतिपादन करके मिथ्यामार्ग में लगाते हैं वे महामोह के मित्र ( मोह कर्म के पश होकर ) स्वर्ग और मोक्ष के सुगम से अपने आपको वंचित करते हैं। भावार्थ-निष्कपट परिणाम सरीरली अन्य सस्यता संसार में प्रशंसा के योग्य नहीं है और मायाचारी जैसी अन्य असत्यता निन्दा के योग्य नहीं है। कपटी पुरुष के व्रतों का पालन करना, कठिन तपश्चर्या आदि करना सर्व निष्फळ है। जो मायावी दूसरों को अपने वाग्जाल में फंसा कर हर्ष मानते हैं वे स्वयं भायाचारी परिणामों से निकृष्ट बन्द कर अपने प्रात्माको नर्क गर्व में पतन कराते हैं। इसलिए मायाचार रूप परिणामों के त्यागे बिना इस लोक में, Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली परलोक में जीवोंको सुख शांति प्राप्त नहीं हो सकती ॥ ५४ ।। पुनर्मायादोषमा--- वंशस्थछन्दः मायामविश्वासविलासमन्दिरं । दुराशयो यः कुरुते धनाशया । सोऽनर्थसाथ न पतन्तीक्षते । यथा विडालो लगुढं पयः पिचन् ।।५।। व्याख्या-यो दुराशयो दुष्टचित्तो जनो धनाशया द्रव्यस्य वांछया लोभेन माया कपट कुरुते विदधाति स जन आत्मनोऽनर्भसार्थ कष्टसमूहं पतन्तं आगछन्तं नेक्षने नालोकते । कथं यथा विद्यालो मार्जारः पयो दुग्धं पिबन् सन् लकुटं दण्डप्रहार नेक्षते मालोकते। कथंभूतां माया अविश्वासस्य अप्रतीतेः विलासमन्दिरं क्रीडागृहं मंदिरशब्दस्य अजहल्लिगत्वात् ।। ५५ ।। अर्थ-जो दुष्ट अभिप्राय [ परिणाम ] वाला पुरुष धन की इच्छा से अविश्वास के क्रीडा-स्थान रूपी मायाचारी को करता है वह अपने ऊपर आई विपत्तियों को नहीं देखता है। जिस प्रकार दूध को पीता हुआ बिलाव ऊपर से अपने ऊपर पड़ती हुई लफदी को नहीं देखता है । खेद है कि मायाचारी दूसरों का अनिष्ट सोचता है परन्तु धस मायाचारी से स्वयं अपना अहित-अनिष्ट हो जाता है इससे वह जरा भी नहीं डरता है ।।५।। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुनराह - किनुकारली वसन्ततिलकाद्वन्दः सुग्धप्रतारणपरायणमुज्जहीते । यत्पाटवं कपटलंपट चितवृत्तेः || जीर्यत्युपप्लवमवश्यमिहाप्यकृत्वा । नापथ्य भोजनमिवामयमायती तव ||५६ || तत् i व्याख्या - कपटे मायायां लंपटा वांछायुक्ता चित्तवृत्तिमनोव्यापारी यस्य सः तस्य पुरुषस्य यत्पाटवं चातुर्य जिते उल्लसति 4 तत्पाटयं अवश्यं निश्चयेन आयतो आगामिकाले उपप्लवं उपद्रगं अकृत्वा अविधाय न जीर्यति न परिणामं याति । किंतु तस्य विपाको भवत्येव किमिव अपथ्यभोजनं आमयमिव यथा अपथ्यं भोजनं जेमनं आमचं रोगं अकृत्वा आयतौ न जीर्यति न याति । कथंभूतं पाटवं मुग्धानां मूर्खाणां प्रतारणे गंचने परायं तत्परं ॥ ५६ ॥ अत्र मल्लिनाथजीव महाबळ दृष्टांतः भाषाभूत दृष्टान्तश्च । इति मायाप्रक्रमः अर्थ- सदा कपट करने में तत्पर चित्रा रखने वाले पुरुष की भोले पुरुषों को ठगने में जो चतुरता उल्लासमान होती है वढ् कपट चतुरता अवश्य हो फल देने के काल में जैसे अपथ्य भोजन रोग उत्पन्न किये बिना नहीं रहता उसी तरह कपट प्रवृत्ति भी लोक में बिना कुछ उपद्रव कष्ट दिए बिना नहीं रहती है। तात्पर्य यह है कि जैसे - अपथ्य भोजन करने से रोग अवश्य ही उत्पन्न होता है उसी प्रकार कपटी पुरुष दूसरों को ठग कर भले ही कुछ काल तक Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ सूचिमुक्तावली आनन्द मनावे, हर्पित हो पर अन्तमें मायाचारी का फल इस लोक में तो उन्हें भोगना ही पड़ता है और परलोक में भी मर , कर दुर्गति के दुःख उन्हें भोगने पड़ते हैं। यह एक अटल सिद्धान्त है कि “यस्करोति तदवश्यमेव भुके” जो जीव जैसा कर्मोपार्जन करता है उसका अवश्य ही उसे फल भोगना पड़ता है ॥ ५६ ।। अथ लोमत्यागोपदेशमाह---- शार्दूलविक्रीडितहन्दः यदुर्गामटवीमटन्ति विकटं कामन्ति देशान्तरं । गाइन्ते गहनं समुद्रमतनुक्लेशा कृर्षि कुर्वते । सेवन्ते कुपणं पति गजघटासंघदृदुःसंचरं । सन्ति प्रधनं धनान्धितधियस्तल्लोभविस्फ़र्जितं ॥५७|| व्याख्या--घनेन विसेन अंधिता अंधप्राया कृता घीवुद्धिर्येषां ते ईदृशाः पुरुषाः या दुगौं विषमा अटवीमरण्यं अटंति भ्राम्यन्ति । पुनयंत् विकटं विस्तीर्ण देशान्तरं कामति भ्रमन्ति । पुनर्यन् गहनं दुरवगाहं समुद्र गाहन्ते पल्लंघयंति । पुनयंत अतनुक्लेशां बहुकष्ट साध्यां कृषिकर्षण क्षेत्रादि फोते विधारो। पुनर्यत् कृपणं अदातारं पति स्वामिन सेनं। पुनर्यन राजघटानां हस्तिसमूहानी संघटनेन दुःसंचरं गंतुमशक्यं प्रधनं युद्ध' प्रतिसर्पति गच्छति तत् सर्व लोभस्य विस्फूर्जितं चेष्टितं जानीहि । लोभवशादेवानि वस्तूनि कुर्वन्ति असः कारणात् लोभल्याज्य एव ।। ५७ ॥ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली ७४ अर्थ-धनके कारण से अन्ध हुई बुद्धि होने के कारण से ही पुरुष गहन अटवी में करते हैं। विदेश में नमन को हैं, गहरे समुद्र का अवगाहन करते हैं, अधिक क्लेश वाली खेती करते हैं, कंजूस स्वामी की सेवा करते हैं और अनेक हाथियों के संघट होने से चलना है. कठिन जहां पर ऐसे युद्ध में जाते हैं यह लोभ का ही तो माहात्म्य है। लोम के वशीभूत होकर मनुष्य क्या २ पाप नहीं करता है किन्तु सभी पाप कर बैठता है क्योंकि लोभ ही समस्त पापों का सजा है अतः लोभ का त्याग करना ही उचित है ।। ५७ ॥ पुनराह शार्दूलविक्रीस्तिछन्दः मूलं मोहविषद्रुमस्य सुकृताम्भोराशिकुम्भोद्भवः । क्रोधाग्नेररणिः प्रतापतरणिप्रच्छादने तोयदः ।। क्रीडासद्मकलेविवेकशशिनः स्वर्भानुरापनदीसिंधुः कीर्तिलताकलापकलमो लोमा पराभूयतां ॥५८), . .zrinyn Ensinou an. Sa ___ व्याख्या-भो मन्याः | लोभः पराभूयतां निराक्रियता स्य- ५ ज्यतां मोह एव अज्ञानमेव विषद्रुमो विषतरुस्तस्य मूलं जदारूपं मूल शब्दस्याऽजइल्लिगलां । पुनः कथंभूतो लोभः सुकृतमेव पुण्यमेवांभोराशि समुद्रस्तस्य शोधणे कुमोद्भवोऽगस्तिरिव । पुनः कोधाग्नेः अरणिः क्रोध एव अग्निस्तस्य अरणी काष्ट उत्पत्तिस्थानं । पुनः प्रताप एव तरणिः सूर्यः तस्याच्छादने तोयदो भेषोभ्र । पुनः कलेः कलहस्य Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली क्रीडासा लीलागृहं । पुनर्विवेकः एव पुण्यापुण्यविचार एवं शशी चन्द्रस्तस्य स्वर्भानुः राहुः । पुनः आपन्नदीसिंघुः आपदः कनान्येक नास्तासां सिंधुः समुदरतासां स्थानरूपत्यात् । पुन: किं कीर्तिरेव' लता वल्ली तस्याः कलापः समूहस्तस्य विनाशे कलमो हरित शाव ईशी कोमी जीयतः ।। अर्थ कैसा है लोभ-मोहरूप विषवृक्ष का मूल है. पुण्यरूपी समुद्र को शोषण करने के लिये अगस्त्य ऋषि समान है [ऐसी एक किंवदन्ती है कि अंगुष्ठ प्रमाण अगस्त्य ऋषि ने सारा सागर का जल पी लिया था ] अर्थात अति लोभ के कारण पाप बन्ध होने से पुण्य का क्षय हो जाता है पुण्य का अनुभाग सर्वथा । हीन हो जाता है, कोच रूपी अग्नि को बढ़ाने के लिये भरएिण्यकी लकड़ी है, प्रताप रूपी सूर्य को ढकने के लिये भेषों के समान है, कलह के क्रोश करने का स्थान है. विक रूपी चन्द्रमा के लिये राह समान है, भनेक भापति रूपी नदियों का समुद्र है, तथा कीर्ति रूपी लता समूह को उखाड़ने के लिए हाथी के बच्चे के समान है अर्थात् मनुष्य की की िपर कालिमा लग जाती है ऐसा अनेक अनों का मूलभूत एक लोभ ही है अतः उसका तिरस्कार करना चाहिए . अर्थात उस लोम का त्याग कर देना चाहिए ॥ ५ ॥ पुनराह वसन्ततिलका छन्ः निःशेषधर्मवनदाहविजम्ममाणे । दुःखौघभस्मनि विसर्प दकीर्तिधूमे ।। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूचिमुक्तावली बाढं धनेन्धनसमागमदीप्यमाने । लोमानले शलभतां लभते गुणौघः ||९|| کاوا व्याख्या - लोभ एवानलोऽग्निः तस्मिन् लोभानले गुणौधो ज्ञानादिगुणानां भधः समूहः शलभतां पतंगां लभते पतनछज्जलति । कथंभूते लोभानले निःशेषं समस्तं यद् धर्म एव वनं तस्य दाहेन विभमाणः विस्तारं प्राप्नुत्रत् तस्मिन् । पुनः कथंभूते दुःखानां ओघः समूह एव भस्म रक्षा यत्र सः तस्मिन् । पुनः कथंभूते विसर्पत् प्रसरदपकीर्ति एव घूमो यस्मात् स तस्मिन् । पुनः कथंभूते बाढं अतिशयेन धनान्येव द्रव्याण्यधनानि एधांसि तेषां समागमेन आगमेन दीप्यमानोऽत्यन्तं प्रज्वलत बृद्धिप्राप्नुषत् तस्मिन् । सगुणाः पतंगवत् भवंति संतोषेण लोभो निवार्यः स्यात् ॥ ५६ ॥ + अर्थ- समस्त धर्म रूपी वन को जलाने वाली अग्नि की वृद्धि हो रही है जिसमें दुःखों का समूह हो भस्म है जिसमें, अपकीर्ति रूपी धुंआ फैल रहा है जिसमें, इच्छित धनरूपी ईन्धन के मिलने से जाज्वल्यता हो रही है जिसमें ऐसी लोभरूपी अग्नि में गुणों का समूह पतंगों के समान जलकर भस्म हो जाता है अर्थात् लोभ के कारण सब गुण नष्ट हो जाते हैं। सारांश - यह है कि कोई मुनि या आवक धर्म पालन करे और अनर्थकारी लोभ के फंदे में पड़ जाय तो गुण नष्ट हो जाने से संसार में अपकीर्ति हो जाती है अतः लोभ का त्याग करना ही श्रेयस्कर है ॥ ५६ ॥ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ US सूक्तिमुक्तावली अथ सन्तोषगुणमाह शार्दूलविक्रीडित छन्द: 'जातः कल्पतरुः पुरः सुरगवी तेषां प्रविष्टागृहं । चिंतारत्नमुपस्थितं करतले प्राप्तो निधिः सन्निधिं ॥ विश्वं वश्यमवश्यमेव सुलभाः स्वर्गापवर्गश्रियो । ये संतोष मशेषदोषदहन ध्वंसां विभ्रते || ६०|| ) । व्याख्या - ये जनाः संतोषं तृष्णा निरोधं विभ्रते धरंति तेषां पुरोsh कल्पतरुः कल्पवृक्षो जातः प्रत्यक्षोऽभूत । पुनस्तेषां गृहं सुरaat कामधेनुः प्रविष्टा आगता । पुनस्तेषां करतले चिन्तामणिरत्नं पस्थितं भागतं । पुनस्तेषां निधानं द्रव्यस्य निधिः सन्निधिं समीपं प्राप्तः । पुनर्विश्वं जगत् अवश्यं निश्चितं तेषां वश्यं जातं । पुनस्तेषां स्वर्गापवर्गत्रियः देवलोकमोक्षसंपदः सुलभाः सुप्रापाः स्युः । कथभूतं संतोषं अशेषदोषदहनासांबुदं अशेषाश्च ते दोषाश्च अशेषदोषाः तेषां दहनं तस्य दहनस्य ध्वंसः अशेषदोषध्वंसनाय अम्बुदः मेघः तं । अतः संतोष एव कर्तव्यः अत्र सुभौम चक्रवर्तिदृष्टान्तः ॥ ६० ॥ इति लोभप्रक्रमः (अर्थ--- जो पुरुष सम्पूर्ण दोष रूपी अग्नि को नष्ट करने के लिए मेघों के समान सम्तोष को धारण करते हैं उनके आगे कल्पवृक्ष उत्पन्न हो जाता है, कामधेनु उनके घर में प्रवेश करती है, चिन्तामणि रहन उनके हस्ततल में उपस्थित हो जाता है, निधि उनके निकट आ जाती है, स्वर्ग मुक्ति की लक्ष्मी सुलभता से Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली - प्राप्त होती है, और सारा संसार अवश्य ही उन वर्शनहीं जाता है।) भावार्थ:--ओ पुरुष सन्तोष धारण कर धार्मिक जीवन व्यतीत करते हैं उनके पुण्य उदय से उन्हें इस लोक, परलोक में सब सुख के साधन मिलने हैं। कल्पवृक्ष, कामधेनु, चिन्तामणिरत्न, नव निधियाँ आदि सभी पदार्थों का सहज ही समागम हो जाता है और तो क्या ? कर्म काट कर अनन्त अविनाशी सिद्ध पदं पाते हैं। . __अथ सौजन्यविधानोपदेशमाह शिखरिणी छन्दः वर क्षिप्तः पाणिः कुपितफणिनो पत्रकुहरे । वरं झपापातो ज्वलदनलकुंडे विरचितः ॥ वरं प्रासप्रान्तः सपदि जठरान्तर्विनिहितो । न जन्यं दौजन्यं तदपि विपदा सम विदुषा ॥६॥ ___ व्याख्या-कुपितस्य फणिनः अधस्य सर्पस्य वक्त्रकुहरे मुखविवरे पाणिहस्तः क्षिप्तो नि:क्षिप्तः सन् वरं में यान् । पुनमदनलकुडे प्रज्वलन अग्निकुठे झपापातो विरचितः कृतो वरं श्रेष्ठः । पुनः प्रासस्य कुन्तस्य प्रान्तोमं जठगन्तः दरमध्ये विनिहितः क्षिप्तो वरं अष्टः । तदपि विदुषा पंडितेन पौर्जन्यं पैशून्यं न जन्य न कर्तव्यमेध । किंभूतं दौजन्यं विपदा आपा कष्टानां सम गृह स्थानमित्यर्थः । अतः कारणात सौजन्यमेव विधेयं ॥ ११ ॥ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली अर्थ- कोप को प्राप्त हुए सर्प के मुख रूप छिद्र में हाथ डालना अच्छा है, प्रज्वलित अग्नि के कुएड में कम्पापात लेना कूद पढ़ना श्रेष्ठ है, शीघ्र ही विष खा लेना भी अच्छा है परन्तु विद्वानों को विपत्तियों का घर दुर्जनता का करना अच्छा नहीं है । भावार्थ - तत्काल मर जाना तो श्रेष्ठ है परन्तु दुर्जनता का व्यवहार करना या दुर्जनों को संगति करना उत्तम नहीं है ॥ ६१ ॥ पुनराह --- Fo वसंततिलका छन्दः सौजन्यमेव विदधाति यशश्चयं च । स्वःश्रेयसं च विभवं च भवक्षयं च || दौर्जन्यमावहसि यत्कुमते तदर्थम् । धान्ये दवं दिशमि तज्जलसेक साध्ये || ६२ || । व्याख्या - सौजन्यमेव सुजनतैव पुंसां यशश्चयं कीर्तिसमूहं विवाति करोति । पुनः स्वश्रेयर्स कल्याणं विदधाति । पुनर्विभवं द्रयं विदधाति । पुनर्भत्रक्षयं संसारचयं मोक्षं विदधाति । ततो हे कुमते हे कुबुद्ध े यत्तदर्थं यशश्चयाद्यर्थं दौर्जन्यं पिशुनतां आवहसि घरसि । तत् धान्ये धान्यक्षेत्रे दवं दावाग्नि दिशसि ददासि । कथंभूते धान्ये जलसेकसाध्ये जलस्य सेकेन सिंचनेन साध्ये निष्पादनीये तत्र दावं ददासि ॥ ६२ ॥ अर्थ -- हे अज्ञानी जीव ! सज्जनता हो कीर्ति को संचित करती है, आत्मकल्याण सम्पदा को देती है तथा जन्ममरण रूप Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली संसार का क्षय करती है । यदि तुम कीर्ति, कल्याण, सम्पचि आदि के लिए दुर्जनता का व्यवहार करोगे तो समझो कि तुम जल सिंचन करने योग्य धान्य में अग्नि डालने का कार्य करते हो । इसलिए दुजनता का व्यवहार सर्वथा त्यागने योग्य है और सज्जनता का व्यवहार ही कल्याणकारी है। दारिद्रय पि सुजनव श्रेष्ठत्याह पृथ्वीना वरं विभववन्ध्यता सुजनभावभाजां नृणामसाधुचरितात्मनां न पुनरूर्जिताः संपदः । कृशत्वमपि शोभते सहजमायती सुन्दरं । विपाकविरसा न तु श्वयथुसंसरा स्थूलता ।।६३।। व्याख्या-धरमिति सुजनभावभाजा सौजन्यसहितानां नृणां पुसा विभवस्य बंध्यता निष्फलता । निद्रव्यता दारिद्रयमेव वर श्रेष्ट असाधुचरितेन भर्जिताः दोर्जन्येन पार्जिताः संपदः श्रियोपि वरं न श्रेष्ठा न श्लाघ्या न । कथभूता संपदः ऊर्जिताः बलिष्ठाः प्रचुराः तत्र दृष्टान्तमाहः सहज स्वाभाविक कृशत्वं दौर्बल्यमपि शोभते । तु पुनः श्वयधुसंभवा शोफा जाता स्थूलता पीनतापि न वर न श्रेष्ठा। कथं भूतं कृशत्व आयती पत्तरकाले आगामिकाले सुन्दरं शोभनं । कथभूता स्थलता विपाके परिणामे अन्त्ये विरसा दारुणा ॥ ६३ ॥ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली अर्थ - सज्जन पुरुषों के धन रहिसपना ( निर्धनता ) तो है परन्तु दुर्जनता से कमाया हुआ अधिक धन प्राप्त करना उत्तम नहीं है। जैसे कि शरीर में सुख देने वाली स्वाभाविक कुरूपता तो अच्छी प्रतीत होती है परन्तु जिसका विपाक [ फल ] बुरा है ऐसी सूजन के कारण होने वाली शरीर में स्थूलता ( मोटापन ) उत्तम सुखप्रद नहीं होती । २२ भावार्थ - सज्जनता पूर्वक जीवन बिताते हुये गरीब रहना उत्तम है परन्तु दुर्जनता [ दुष्टता ] से अन्याय पूर्वक धन कमाते हुये धनी रहना उत्तम नहीं है । क्यों कि अन्याय का धन कभी स्थिर नहीं रहता, नष्ट हो जाता है तथा अन्यायी जीव के परिणामों में संक्लेशता सदा विद्यमान रहती है जिसके फलस्वरूप नरकादि गतियों के दुःख भोगने पढते हैं ॥ ६३ ॥ सौजन्यभाजां गुग्णानाइ - शार्दूलविक्रीडित छन्दः ि न ब्रूते परदूषणं परगुणं वक्स्यन्यमप्यन्वहं । संतोषं बहते परर्द्धिषु पराबाधासु धरो शुचम् ॥ स्वश्लाघां न करोति नोञ्झति नयं नौचित्यमुल्लंघयत्युक्तो ऽप्यप्रियमक्षमां न रचयत्येतच्चरित्रं सतां ।। ६४ ।। व्याख्या— सतां साधूनां सज्जनानां एतच्चरित्रं चेष्टितं अस्ति । एतदिति किं सज्जनः परदूषणं परदोषं न ते पुनरल्पमपि तुच्छमपि परगुणं अन्यगुणं अन्वहं निरन्तरं वक्ति कथयति । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली पुनः परेषां ऋद्धिषु संपत्तिषु संतोषं अनभिलाषं अमरसरं वहते धो । पुनः पराबाधासु परपीडासु शुचं शोकं धत्ते । पुनः स्वश्लायो आत्मप्रशंसां न करोति । पुनः नयं न्यायं नोझति न त्यजति । पुनरोचिस्यं योग्यतां नोल्लंघयति नातिकामति । पुनरांप्रयं विरूपं अहितं सक्तोपि भरिएतोपि अक्षमा क्रोधं न रचयति न करोति । सता एतचरित्र वर्तते ॥ ६४॥ ____ अर्थ-सत्पुरुषों का चरित्र ऐसा होता है। -कि वे दूसरों के दोपों को प्रगट नहीं करते, दूसरों के थोड़े भी गुणों की रात दिन • प्रशंसा करते हैं, दूसरों के वैभव आदि को देख कर ईष्यालु न होकर सन्तोष धारण करते हैं, दूसरों के दुखों को देख कर दुःखी हो जाते हैं, अपनी प्रशंसा अपने आप नहीं करते किन्तु अपनी प्रशंसा सुन कर लज्जा प्रगट करते हुये लज्जा से अवनत हो जाते हैं, संकट आने पर भी न्याय नीति का त्याग नहीं करते, योग्य आचरण या स्वकर्तव्य की उपेक्षा नहीं करते और दूसरों द्वारा कटुक वचनों का प्रयोग किये जाने पर भी कोधित नहीं होते क्ष्मा (पृथ्वी ) की तरह क्षमा धारणा करते हैं। ऐसा यह सज्जनों का अपूर्व ही चरित्र है। भावार्थ -जो सब्जन पुरुष होते हैं ये दूसरों की कटु आलोचना नहीं करते, छिद्रान्वेषी नहीं होते। गुणपाही होने के कारण थे दूसरों के गुणों पर ही दृष्टिपात करते हैं, अवगुणों का त्याग करते हैं। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तासली अथ गुणसन वयक्ति ~ . शार्दूलविक्रीडित छन्दः धर्म ध्वस्तयो यशश्च्युतनयो विच प्रमत्तः पुमान् । काव्यं निष्प्रतिभस्तपः शमदयाशून्योऽल्पमेधाः श्रुतं ।। वस्त्वालोकमलोचनश्चलमना ध्यानं च बांछत्यसौ । यः संग गुणिनां विमुच्य विमतिः कल्याणमाकांक्षति ।६५ व्याख्या-यो विमतिः निर्बुद्धिः गुणिनां गुणवतो मनुष्याणां संगं संसगं विमुच्य त्यक्त्वा कल्याणं श्रेयः आकांक्षति असो विमतिः पुमान् वस्तदयो गतकूपः निर्दयः सन् धर्म पुण्यं वांछति । पुनश्च्युतनयो गतन्यायोऽन्यायभाक सन् यशः कीर्ति वांछति । पुनः प्रमत्तः प्रमादी सन् विसं धनं वाचति । पुननिष्पतिमः प्रज्ञारहितः सन् काव्यं का वांछति । पुनः शमेन उपशमेन दमेन च दीनो रहितः पुमान् तपोवांति । पुन अल्पमेघा तुच्छबुद्धिबुद्धिरहितः सन् श्रुते शास्त्र पठितुं वांछति । पुनरलोचनो नेत्ररहितः सन् वस्तूनां घटपटादीनां विलोकनं दर्शन वांछति ।। पुनश्चलमनाः चलचित्तः सन् ध्यानं वांछति । तथा गुणवता संगं विना कल्याण न ॥ ६५ ॥ अर्थ-जो अज्ञानी मनुष्य गुणयान् पुरुषों की संगति छोड़कर अपना कल्याण करना चाहता है वह मूर्ख दया बिना धर्म को चाहता है, नीतिमार्ग रहित होकर कीर्ति सम्पादन करना चाहता है, आलसी होकर धन कमाना चाहता है, प्रतिभारहित हो काव्य Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली रचना चाहता है, समता और इन्द्रिय दमन किये बिना ही तप करना चाहता है, अल्प बुद्धि होकर शास्त्र पारगामी होना चाहता है, नेत्रों के बिना पदार्थों को देखना चाहता है, और चंचल चित होकर भी ध्यान करना चाहता है। भावार्थ-जिस प्रकार दया विना धर्म नहीं, न्याय विना कीर्तिलाभ नहीं, परिश्रम किये बिना धनोपार्जन नहीं मिमामिला काव्यरचना नहीं, शमदम बिना तप नहीं, विशिष्ट क्षयोपशम बिना म त ज्ञान नहीं चक्षु बिना पदार्थावलोकन नहीं, स्थिर मन बिना ध्यान नहीं होता उसी प्रकार सत्संगति बिना मनुष्चका कल्याण भी नहीं हो सकता। पुनर्गुणिसङ्ग मर्णयति , हरिणी छन्दः (हरति कुमति भित्र मोहं करोति विवेकितां । वितरति रति सूते नीति तनोति गुणावलि ।। प्रथयति यशो धचे धर्म व्यपोहति दुर्गतिं । जनयति नृणां किं नाभीष्टं गुणोचमसंगमः ॥६६॥ व्याख्या-नृणां पुसा गुणः उम्तमा गुणोत्तमारतेषो संगमो नृणां किं किं अभीष्टं वांछितं न जनयति न करोति अपितु सर्पमभीष्ट जनयति । गुणोचमसंगमः कुमति कुचुचि हरति दूरीकरोति । पुनर्मोह अज्ञानं भिन्ते विदारयति । पुनर्विवेकिता तस्वातस्वविज्ञप्त करोति । रति संतोषं वितरति ददाति । पुननीति न्यायं सूते Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुकावली जनयति । पुनर्गुणावलि गुणश्रेणी ननोति । पाठांतरे तु विनीतता तनोति । पुनर्यशः कीति प्रथयति विस्तारयप्ति । पुनर्धम धरति । पुन गति नरकतिर्यग्गनिरूपां व्यपोति स्फेटयति । एवं गुणोत्तमसंगमः सर्वमभीष्ट जनयति ।। ६६ ।। । अर्थ-गुणी जनों की संगति खोटी युद्धि को इटाती है जीवों की मोह परिणति को नष्ट करती है, हेयोपादेय का ज्ञान प्रगट करती है, प्रेमभाव ( बात्सल्यभावना ) को बढ़ाती है, नीति मागे का आश्रय बनाती है, विनयगुण की वृद्धि करती है, लोकमें यश फैलाती है, धम सेवन को भावना को उत्पन्न करती है, नरकगति तियंचति के दुःखों को हटाती है ( नाश करती है ) सरसंगति मनुष्यों को कौन कौन से इच्छित पदार्थ प्रदान नहीं करती अर्थात् संसार में सर्व उत्तम गुणों को प्राप्त कराती है।) पुनराह शार्दूलविक्रीडित छन्दः लन्धुं पुद्धिकलापमापदमपाकर्तुं विहाँ पथि । प्राप्त कीर्तिमसाधुता विधुपितु धर्म समासेवितुं ॥ रोर्बु पापवियामाकलयितुं स्वर्गापवर्गश्रियं । चेत्त्वं चित् समीहसे गुणवता संगं तदङ्गीकुरु ।।६७।। ___ व्याख्या-रे चित्त चेत यदि त्वं बुद्धिकलापं बुद्धिसमूह लन्धु प्राप्तुं समीहसे वांछसि सत्तदा गुणवतो गुणिनां संगं संसर्ग अंगीकुरु विधेहि । पुनर्यदि पथि न्यायमार्गे बिहतु विचरतुवाछसि । Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली पुनः यदि कौति यश प्राप्तु समोहसे वांछसि । पुण्यं समामेवितं कर्न समीइसे । पुनर्यदि विपदं आपदं अपाकतुं दूरीक समीहसे वाच्छसि । पुनरसाधुता असौजन्यं विधुवितुं स्फेटयितुं समीहसे वांछसि । पुनर्यदि धर्म पुण्यं समासेवितुं कर्तुं समीहसे बांच्छसि । पुनर्यदि पापविपाक अशुभकर्मफलं रोद्ध समीहसे । पुनर्यदि स्वर्गापाश्रियं देवकोकमोक्षलक्ष्मी आकलयितु अनुभवितु समीहसे । तदा गुणवता संगं कुरु ॥ ६ ॥ अर्थ हे चित्त ! यदि तू बुद्धिका भण्डार प्राप्त करने के लिये, आपत्तियों को हटाने के लिए, सन्मार्ग में गमन करने के लिये, कीर्ति को प्राप्त करने के लिये, धर्म को शांति पूर्वक सेवन करने के लिये, पापों के फल दुखों को हटाने के लिये, स्वर्ग तथा मोक्षफ्री लक्ष्मी को प्राप्त करने के लिये इच्छा करता है, तो सज्जन गुणवान पुरुषों की संगति को अवश्य ही स्वीकार कर। भावार्थ-यदि मनुष्य इह लोक परलोक सम्बन्धी सुखों की अभिलाषा रखता है तो उसे गुणी जनों की संगति करनी चाहिये । क्योंकि सत्संगति से सन्मार्ग में बाधा उपस्थित करने वाले दोषों का निराकरण होजाता है। निर्गुणसंगमदोषमाह ( हरिणी छन्दः हिमति महिमाम्भोजे चंडानिलत्युदयाम्बुदे । द्विरदति दयारामे समक्षमाभृति वजति || Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ EE सूक्तिमुक्तावली समिधति कुमत्यग्नों कन्दत्यनीतिलतासु यः । किमभिलषता श्रेयः श्रेयान्स निर्गुणिसंगमः ॥६॥ व्याख्या-स निर्गुणसंगमः किमपि श्रेयः कल्याणं भभिलषता वांछता पुरुषेण कथं श्रेयः कथ आश्रयणीयः सः कः यो महिमा एव महस्वमेवांभोगं कमल तस्मिन् हिमति हिम इषाचरति तद्विनाशकत्वाम् । पुनर्यो निर्गुणसंग: उदय एवं धनधान्यप्रतापवृद्धि रेवांभोदो मेघस्तत्र चंडानिलति प्रचंडवायुरियाचरति । पुनईया एवं अथमा दम एव आरामो वनं तत्र द्विरदति द्विरदयद्गजवदाचरति । तदुन्मूलकस्यात् । पुनर्थः क्षेममेव कुशलमेव क्षमामृत गिरिस्तत्र वमति वनयदाचरति तच्छेदकत्वात् । पुनर्यः कुमति रेवाग्निस्तत्र समिति समिद् इंधन इयाचरति तद्धिहेतुत्वगत्। पुनर्यो अनीतिलतासु अन्याय वल्लिषु कंदति कंद इवाचरति तन्मूलभूतस्वान् । ईदृशो निगुणसंगमः श्रेयो वांछता पुरुषेण न प्रेयः न श्रयणीयः । अत्र गिरिशुकपुप्पशुकयो: कथा । माताप्येका पिताप्येको गवाशनानां तु स वचः शृणोति । अइ च राजन् मुनिपुलवानां प्रत्यक्षमेनद्भवतापि पृष्ट । संसर्गजा दोष गुणा भवन्ति । इति गुणिसंगमप्रक्रमः अर्थ-दुर्जनों की संगति कैसी है इसका एक मानचित्र चित्रण किया जाता है - जो निगुणी की संगति महिमा ( प्रतिष्ठा ) रूपी कमल को नष्ट करने के लिये तुषार के तुल्य है, पुण्योदय रूपी मेधों को अस्त व्यस्त करने के लिये तीब्रयायु के समान है, दया रूपी उपवन के उजाड़ने के लिये हाथी के सुल्य है, कल्याण रूपी पर्वत Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली को चूर्ण करने के लिये पत्र समान है, कुबुद्धि रूपी अग्नि को प्रज्व,लित करने के लिये लकड़ी के समान है, अन्याय रूपी लता के लिये जड़ समान है ऐसी यह दुजन संगति कल्याण के इच्छुक [ मुमुनु ] जनों को क्या कभी हितकर हो सकती है ! अर्थात् कदापि नहीं ।) भावार्थ-जैसे शीतकाल में हिमपात के कारण कमल वन नष्ट हो जाता है या तीव्रपवन से भेषसमूह, इस्ती द्वारा उपवन, पापात द्वारा पर्वत आदि नष्ट हो जाते हैं उसी प्रकार निगुणी जनों की संगति से मनुष्यों की प्रतिष्ठा, कीर्ति, न्यायबुद्धि, संयम '. तप आदि नष्ट हो जाते हैं अतः दुर्जनों का समागम हितकर नहीं है। अथेन्द्रियजयोपदेश माह शार्दूलविक्रीडित छन्दः आत्मानं कुपथेन निर्गमयितुं यः शूकलाश्यायते । हत्याकृत्यविवेकजीवितहतो यः कृष्णसपोयते ।। यः पुण्यद्रुमखण्डखंडन विधौ स्फूर्जत्कुठारायते । तं लुप्तप्रतमुद्रमिन्द्रियगणं जित्या शुभंयु भव ।।६९|| व्याख्या हे साधो तं इन्द्रियगणं पञ्चेन्द्रियसमूहं मिस्त्रा विनिर्जित्य शुभयुः शुभसंयुक्तो भय । तं के यः इन्द्रियगणः स्पर्शन रसन प्राण चक्षुः श्रोत्रसमूहः आत्मानं स्वं कुपथेन कुमार्गेण निर्गमयितु नेतुं सूकलाश्वायते दुर्विनीत अश्व वाचरति सस्य कुमार्गगाम Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली । । स्वभावात् । पुनर्यः इन्द्रियगणः कृत्यं च अकृत्यं च कृत्याकृत्ये तयोषियेक एव विचार पव जीवितं जीवितव्यं तस्य इसी हरणे कृष्ण सप्पयते कृष्णसर्प इवाचरति । पुन ः इन्द्रियगणः पुण्यमेव हुमा स्तेषां खण्डं वनं तथ्य स्वढने छेदने स्फूर्जन कुठारायते । स्फूर्जित् तीक्ष्ण कुठार इवाचरति । कथंभूतं इन्द्रियगणं लुप्तप्रतमुद्र लुप्ता छिन्ना व्रतानां मुद्रा मर्यादा येन सः तं ॥ ६६ ॥ Lo अर्थ- जो इन्द्रियों का समूह अर्थात् इन्द्रियां इस आत्मा को खोटे मार्ग में प्राप्त कराने के लिये कद लगाम घोड़े के समान है, तथा जो कार्य अकाय के ज्ञान रूपी जीवन को नाश करने के लिये काले सर्प के समान है और जो पुण्य रूपी पृश्व के धन को काटने के लिये तीक्ष्ण कुठार के समान है ऐसे चारित्र की मर्यादा को नष्ट करने वाले इन्द्रियों के समूहको जीत कर मोक्षगाभी हो । भावार्थ- इन्द्रिय विषयों के वशीभूत होकर प्राणी कुमार्गगामी, अविवेकी, पापी और चारित्र भ्रष्ट हो जाता है और तो क्या अपने प्राणों को भी गया देता है जैसा कि कहा हैः — कुरङ्गमङ्गपतङ्गभृङ्गमीनाहताः पंचभिरेव च । एकः प्रमादी स कथं न हन्यते यः सेव्यते पंचभिरेव सद्यः | १८ | अर्थ- स्पर्शन इन्द्रिय के वशीभूत हो हाथी, रसना के वशीभूत मछली, प्राण इन्द्रिय के वशीभूत मोरा, चतु विषय का विषयी पतन तथा कर्ण इन्द्रिय का वशीभूत हिरन अपने प्राणों को गमा बैठता है। एक एक इन्द्रिय के विषयभूत होकर जीव जब अपने Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तापली प्राणों को खो देते हैं, मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं तो वह प्रमादी . पुरुष जो पांचों इन्द्रियों के वशीभूत हो सका क्या २ अनर्थ नहीं होगा अतः इन्द्रिय-विजय ही बीवोंका कल्याणकारी मार्ग है। पुनराह शिखरिणी छन्दः प्रतिष्ठा यन्निष्ठां नयति नयनिष्ठां विघटय-- त्यकृत्येष्वाधचे मतिमतपसि प्रेम तनुते । विवेकस्योत्सेकं दिलपति दते च विपदं । पदं तदोषाणां करणनिकुरुम्यं कुरु वशे ||७०|| व्याख्या-भो मव्य । तत् करणानां इन्द्रियाणां निकुरुवं समूहं यशे कुरु वश्यतां नय आस्मात विधेहि । तरिकं यस्करणनिकुरु' प्रतिष्ठा महस्वं निष्ठां अवसानं क्षयं नयति प्रापयति । पुनर्यत् नयनिष्ठां न्यायस्थिति विघटयति स्फेटयति । पनयंत अकृत्येवनाचारेषु मति बुद्धिं भाषते स्थापयति । पुनः असपसि अविरती प्रेम सनुते नेहं करोति। पुनर्यन् विपद वापदं कष्ट ते ददाति । पुनमत् विवेकस्य कस्याकस्यविचारस्य अनेक उन्नत विदलयति विध्वं. सयति । तस्करणनिकुरुब इन्द्रियसमूह स्वक्शे कुरु । कथंभूतं वोषाणां पदं स्थाने ।। ७०॥ अर्थ-जो इन्द्रिय-समूह प्रतिष्ठा को बिगाड़ देता है, न्यायमार्ग को नष्ट करता है, पापकार्यो में शुद्धि लगाता है, कुसप Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ सूक्तिमुक्तावली ( सम्यक्त्व रहित मिथ्या तप ) में अनुराग बढ़ाता है, ज्ञान के उत्साह को न करता है, विपत्तियों को उत्पन्न करता है अर्थात इन्द्रियविषयलोलुपी मनुष्य पर ही अनेक संकट के बादल छाये रहते हैं इस प्रकार समस्त दोषों का स्थान उस इन्द्रियसमूह को यश करो यह आचार्य का उपवेश भय्यात्माओं के लिये है जिससे जगत्-जंजाल में जीव अपना जीवन व्यर्थ ही नष्ट न करें । पुनराद्द शार्दूलविक्रीडित छन्दः घां मौनमगारमुज्झतु विधिप्रागल्भ्यमभ्यस्थता - मस्त्वन्तर्गण 'मागमश्रममुपादत्त तपस्तप्यत । श्रेयः पुञ्ज निकुंजभंजन महावातं न चेदिन्द्रियव्रातं जेतुमवैति भस्मनि हुतं जानीत सबै तदा ॥ ७१ ॥ व्याख्या - हे साधो ! भवान् मौनं पत्तां कुरुतां । पुनः आगारं गृहं उज्भतु श्यजतु पुनर्विधिप्रागल्भ्य सर्व्वाचारचातुर्यं अभ्यस्यां कुर्वन्तु । अन्तर्गणं गच्छ बासमध्ये अथवा अंतर्वनं वनमध्ये अस्तु भवतु । पुनरागमश्रमं सिद्धान्तपठनं उपादतां भंगीकुरुतां । पुनस्तपस्तप्यतां करोतु । परं चेद्यदि इंद्रियत्रात इन्द्रियसमूहं तु वशीकर्तुं नावैति न जानाति तदा स पूर्वानुष्ठानं अस्मनि रक्षायां हुतं वृथा जानीत । कथंभूतं इन्द्रियातं इन्द्रियसमूहं श्रयसां कल्याणानां पुंज एव निकुंजं तथ्य भंजने महावात वातूलसमानं ॥ ७१ ॥ १. वनमित्य पाठः । A Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली 3 अर्थ – चाहे तो मौन धारण करो, घर का त्याग करो, विधि विधान की दक्षता का अभ्यास करो, किसी भी गण गच्छादि में रहो, शास्त्र पठन पाठनमें कितना ही परिश्रम करो, चाहे उन तपस्या करो, परन्तु यदि कल्याण का पुंज रूप लवामंडप को न करने में तोत्र पवन के समान प्रवीण इन्द्रियों को जीतना नहीं जानते हो तो वह सब क्रियाकाण्ड भस्म में होम करने के समान व्यर्थ (निष्फल ) है । TWWT भावार्थ -- यदि मन तथा इन्द्रियों को वश में नहीं किया, विपत्रों में अनर्गल प्रवृत्ति करते रहे, मक्ष्य अभक्ष्य का कोई विचार नहीं किया तो ऐसे मनुष्यों का मौन धारण, शास्त्राभ्यास, गृहश्याग, विधि विधान का पाण्डित्य, तप तपन आदि क्रियायें निष्फल हैं उनसे कुछ लाभ नहीं होता अतः इन्द्रियविजयी बन कर ही कर्तव्य कार्य करना उपादेय है । पुनर्विशेषमाह - शाहू लविक्रीडित छन्दः धर्मध्वंसधुरीणमभ्रमर सावारीणमापत्प्रथालङ्कर्माणमशर्मनिर्मिति कलापारीणमेकां ततः । सुन्वन्निीनमनात्मनीनमनयात्यंतीनिमिष्ठेयथाकामीनं कुमथाध्वनीनमजयन्नक्षौषमक्षेमभाकू || ७२ ॥ व्याख्या - अक्षाणां इंद्रियाणां ओषं समूहं अजयन् अवशीकुन जनः अक्षेमभाकू अकल्याणभाग भवति । कर्मभूद्र अक्षीषं Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली धर्मध्वंसे घुरीणं मुख्यंत । पुनः अभ्रमरसस्य सत्यज्ञानस्य आवारीण भावरणाय समर्थ आच्छादक मित्यर्थ पुनः कथंभूतं आपदा । कष्टाना प्रथायां विस्तारणे अलकमीगण: कमक्षमतं । पुनः कि विशिष्ट शर्मण अकल्याणां दुःस्वाना निर्मिती निर्माणकरणे कलापारोणः चतुरस्तं । पुन: किं विशिष्ट एकांततो निश्चयेन सर्वानीनः सन्निभक्षकस्त । पुनः किं विशिष्ट न आत्मनेहितोऽनात्मनीनस्त आत्मनोऽहितं । पुनः किं अनये अन्यायेऽत्यंतीमोऽत्यंतगामी तं । पुनः किं इष्टे इष्टवस्तूनि यथाकामस्वेच्छया वर्तते इतियथा कामीनस्तं । पुनः किं विशिष्ट कुमते कुत्सितमतेऽध्वनीनः पांथस्तं । ईशं इन्द्रियसमूह मजयन् सन अक्षेमभाक भवति ।। ७२ ॥ कुरंगमातंगपतंगभृतमीनाह तापंचभिरेव पंच । एक: प्रमादी स कथं न पध्यते यः सेवते पंचभिरेव पंच ॥ इति इन्द्रियप्रकमः अर्थ-धर्मको नाश करने में प्रमुख, सत्यज्ञानके आच्छा. एक भापचियों के बढ़ाने में समर्धा, दुःखों को उत्पन्न करने में निपुण, सर्वथा एकांत रूप से सर्वको भक्षक, आत्मा का अकल्याण करने वाले, खोटी नीति में प्रवृत्ति कराने वाले, अपने इष्ट विषयों में स्वेच्छाचारी, कुमार्ग में चलने वाले ऐसे इन्द्रिय समूह को जो व्यक्ति विजय नहीं करता है वह कदापि अपना कल्याण नहीं कर सकता। भाषा-इन्द्रियों को षश किए बिना बारमा का कल्याण न कभी हुआ और न होगा। बिवेन्द्रिय पुरुष ही ध्यान केबलसे Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली कर्मों की निर्जश कर मुक्ति पर पाते हैं, देखो तो! विषय लोलुपी सुभौम चक्रवर्ती उच्च पद प्राप्त कर, षटखण्ड के अधिपति और अतुल वैभवशाली होकर भी इन्द्रिय विजयी न होने से अधोगामी हुए [ सप्तम ना में गरे। भथ लक्ष्मीस्वभावमाह---- शार्दूलविक्रीडित छन्दः निम्नं गच्छति निम्नगेव नितरां निद्रे व विष्कम्भते । चैतन्यं मदिरेव पुष्यति मदं धूम्येव धचेऽन्धताम् ।। चापल्यं चपलेव चुम्बति दक्ज्वालेव तृष्णां नय- | त्युल्लासं कुलटागनेत्र कमला स्वैरं परिभ्राम्यति ।।७३।। व्याख्या कमला लक्ष्मीः निम्न नीचं गच्छति । केव निम्नगा इव नदीव यथा नदी नीचं गच्छति । पुन: अतिशयेन चैतन्य बानं विषक भते विनाशयति के निदेव यथा निद्रा अचैतन्यं करोति । पुनर्गक्ष्मीर्मदं अहंकारं पुष्यति पुष्णाति केत्र मदिरेव सुखे यथा मदिरा मदं उन्मत्ततां करोति । पुनः कमला अन्धत्तां इत्ते अन्धस्वं करोति । केव धूम्येव धूमसमूह इन यथा धूमोप्यधं करोति । पुनः लक्ष्मीः चापल्य चुम्बति भाति फेच चपला इच विधु दिए । पन: कमला तृष्णां अल्लासं नयति लोभ वांछां पयसि केष वषयाला इन यथा दवज्याला तृषां पर यति । पुनः कमला स्वर खेच्छया परिप्राम्यति परिश्रमति केव कुलटागना इव असतो स्त्रीव यया असती ली स्पेच्छया भ्राम्यति तद्वदेव ॥ ७३ ।। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली अर्थ- लक्ष्मी की उपमा व्यभिचारिणी खी से दी जाती है षद लक्ष्मी कैसी है:-लक्ष्मी नदी के समान सदा नीचे की ओर जाती है, नींद के समान चेतना को मछिन कर देती है, मदिरा के समान मद { अहंकार ) को बढ़ाती है अर्थात् लक्ष्मीचान होने के कारण प्रायः मनुष्य अहंकारी हो जाते हैं और अहंकार भाव के कारण दूसरों का अपमान करते हैं, अधिक धूम के समान अन्धा बना देती है ( अधिक धुणे के कारण दिखाई नहीं देता इसी प्रकार लक्ष्मीवान् व्यक्ति दूसरों को देखता हुआ नहीं देखता, नहीं गिनता ) बिजली के समान मनुष्य के हृदय में चंचलता लक्ष्मी के कारण बढ़ जाती है परिणाम में स्थिरता नहीं रहती, बन की दवाग्नि के समान तृष्णा बढाती है, व्यभिचारिणी स्त्री के समान स्वच्छन्द इच्छानुसार यत्र तत्र [ जहां कहां ] घूमती रहती है । धनस्य दोषानाह शार्दूलविक्रीडित छन्दः दायादाः स्पृहयंति तस्करगणा मुष्णति भूमीभुनो। गृहन्ति छलमाकलय्य हुतभुग्भस्मीकरोति क्षणात् ।। अम्मः प्लावयते भितो विनिहितं यक्षा हस्ते हठात । दुईत्ता स्तनया नयंति निधनं धिग्बह्वधीनं धनं ॥७४|| व्याख्या-धनं द्रव्यं धिक अस्तु । धिम निर्मनिनिदयोः । किंभूतं वलधीनत्वं बहर इच्छंति । कथं दायादाः गोत्रिणः स्पृहयति गृहीतु वांछन्ति । पुनस्तस्कर पणाश्चौरसमहा मुष्णति चोरयति । Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली पुनः भूमिभुजो राजानः छलं आकलय्य मिषं दत्वा गृहन्ति हुतभुग पहिः क्षणाद बेगेन भरमीकरोति । व्यालयित्वा रक्षा करोति । पुनरंभा पानीयं प्लावयति वायति । पुनर्यदनं क्षिती भूमौ विनिहितं स्थापितं सत्तू यक्षा व्यंतरा हठात् बढारकारेण इरते अपहरन्ति । पुनदुर्वृत्ताः दुराचाररतनयः सः नेमकिन ननि गन्ति । एवं बबधीनं धनं धिगस्तु ॥ ७४ ।।। अर्थ-कैसा है धन, भाई बन्धु कुटुम्बी जन जिसके लेने के लिए रातदिन वांछा करते हैं, चोर जिसे चुरा लेते हैं, राजा लोग कूट कपट रच कर जिसे लेते हैं, अग्नि क्षण भर में जला देती है पानी जिसे बहा ले जाता है, पृथ्वीमें गड़े हुए धन को भूत प्रेतादि जबरदस्ती हर लेते हैं, दुराचारी पुत्र जिसे नष्ट कर देते हैं ऐसे अनेक विघ्न बाधाओं के माधीन रहने वाले अर्थात् जिस धन को सभी संसारी जीव चाहते हैं पर सबको मिलता नहीं, ऐसे उस धन को धिक्कार हो। भावार्थ-धन प्राणों से भी प्यारा होता है जिसका धन चोरी चला जाता है यह पागल हो जाता है, कभी कभी तो मनुष्य धन के नष्ट हो जाने पर अपने प्राणों का भी विसर्जन कर बैठता है ऐसे धन को धिक्कार है। कहा भी है :-( बास्मानुशासन ६५ श्लोक ) अर्थिनो धनमप्राप्य, धनिनोऽप्यवित्तितः . कष्ट सर्वेऽपि सीवन्ति, परमेको मुनिः सुखी ।। वर्थ-धन के चाहने वाले धन को न पाकर दुस्खी होते हैं Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली और धनाढ्यों के धन की लालसा अधिक होती है अतः धन के होते हुये भी वे दुखी रहते हैं । इस प्रकार निर्धन और धनी दोनों दुखी हैं सिर्फ मुनि ही सुखी हैं। क्योंकि उन्होंने सर्व प्रकार के परिषद की वांछा छोड़कर परम संतोष धारण कर लिया है । ३५ धनमोहोत्पादकत्वमाङ्ग -. शार्दूलविक्रीडित छन्दः नीचस्यापि चिरं चटूनि रचयन्त्यायान्ति नीचैति । शत्रोरप्यगुणात्मनोऽपि विदधत्युच्चैर्गुणोत्कीर्तनं ॥ निर्वेदं न विदंति किंचिदकृतज्ञस्यापि सेवाक्रमे । कष्टं किंन मनस्विनोऽपि मनुजाः कुर्वन्ति विचार्थिनः ॥७५ | व्याख्या - मनस्विनो मानतो दक्षा अपि मनुष्या वित्ताचिंनो द्रव्यार्थिनः संत किं कष्ट न कुहीति । अपि तु सर्व कष्ट कु बंति ! यथा नीचस्यापि नरस्यात्रे चिरं चिरकालं यावत् चटूनि चाटुवचनानि प्रियवचनानि रचयंति जल्पन्ति । पुनर्नीचैः नरेः समं नति आयान्ति प्रणामं कुसि । पुनः शत्रोरपि अगुणात्मनोपि निर्गुणस्यापि उच्चैरतिशयेन गुणोत्कीर्तनं गुणवर्णनं विदधति कुर्णन्ति । पुनः अकृतज्ञस्यापि सेवामे खेदं सेवाकरणे किचित् स्तोकमपि निवेषं खेदं वैराग्यं न विदति न जानन्ति वित्तवाकाः संतः ॥ ७५ ॥ अर्थ - धन प्राप्त करने के अभिलाषी होकर मनस्वी लोग भी नीच पुरुष की बहुत काळ पर्यंत चाटुकारिता ( खुशामद, वचन द्वारा हाँ हुजूरी ) करते हैं, शत्र के आगे भी नतमस्तक रहते हैं, . Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली दोषीजनों के भी गुण वर्णन करते हैं, कृतघ्नी मनुष्य की सेवा करने में भी विरक्ति ( ग्लानि ) नहीं करते। यही बड़े दुःख का *विषय है। भावार्थ ---युद्धिमान् पुरुष को धन की प्राप्ति के लिये तुच्छजनों की सेवा, घाटुकारिता करना शोभा जनक मह: परन्तु स्वाभिमान स्वप्रतिष्ठा का ध्यान रखते हुये पुण्योदय से प्राप्त वित्त बैभव में सन्तोष रखते हुये धार्मिक जीवन व्यतीत करना ही उत्तम है। इसी भावना के बल से ही इह लोक, परलोक का सुधार समी चीनतया सम्पादन हो सकता है। तृष्णावान् जीव को कभी भी * जीवन में सुख शान्ति का अनुभव नहीं हो सकता। मानव जीवन रूपी चिन्तामणि आत्म कल्याण के लिये पाया है न कि पर पदार्थों में परिणति को यिगाड़ कर भात्मपतन के लिये। उपमानेन श्रीस्वरूपमाह---- शार्दूलविक्रीडितछन्दः लक्ष्मी सति नीचमर्णवपयः सङ्गादिवाम्भोजिनी । संसर्गादिव कंटकाकुलपदा न क्वापि ध पदं ।। चैतन्यं विषसन्निधेरिव नृणामुज्जासयत्यजसा । धर्मस्थाननियोजनेन गुणिभियं तदस्याः फलं ॥७६॥ व्याख्या- लक्ष्मी नीचं सर्पति नीचजनं प्रति याति । कस्मात् सत्प्रेक्षते अर्णवपयः संगात समुद्रबलसंगमान नीचगामिन्यभूत् । पुनलक्ष्मीः क्यापि पदं स्थान न धत्ते न स्थापयति । कीदृशी भम्भोजिनी संसर्गात कमलिनी संयोगादिच कण्टकाकुलपदा कंटक च्याप्तचर Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० सूक्तिमुक्तावली गोत्र | पुनर्लक्ष्मी नृणां पुंसां चैतन्यं ज्ञानं अंशसा वेगेन वजासयति गमयति कस्मात् विषसन्निधेर्विषसामीप्यादिव । लक्ष्म्याः विषस्य च समुद्रस्थानत्वाम् तस्मात्कारणात् गुणिभि स्थाननियोजनेन धर्मस्थानव्यय करणेनास्याः लक्ष्म्याः फलं माझं सफला कर्तव्या इत्यर्थः ॥ ७६ ॥ इति लक्ष्मी स्वभाष प्रक्रमः अर्थ- उगी समुद्र की गति ही मानों नीचे की ओर गमन करती है. कमलिनी के संसर्ग से ही मानों पैरों में कांटे चुभने की पीड़ा से आकुलित होती हुई मानों कहीं पर स्थिर पैर नहीं रखती अर्थात् बहुत काल तक एक स्थान पर लक्ष्मी नहीं रहती तथा लक्ष्मी को विष की निकटता रही है. इसी हेतु मानों यह लक्ष्मी मनुष्यों की चैतन्य शक्ति को शीघ्र ही मूर्तित कर देती है अतः गुणवान् पुरुषों को धर्म स्थानों में खर्च कर देने से ही इस लक्ष्मी के प्राप्त करने की सफलता ग्रहण करनी चाहिये । भावार्थ - साहित्यिक वर्गों है कि लक्ष्मी समुद्र से उत्पन्न हुई है और कमल निवासिनी है, समुद्र मन्थन से विष भी उत्पन्न हुआ था अतः लक्ष्मी विष की बहिन है । समुद्र -जन से उत्पन्न होने के कारण लक्ष्मी जल के समान नीचे की ओर हो जाती है तथा कमल निवासिनी होने के कारण पैरों में कांटे चुभ जाने के भवसे कहीं पर स्थिर नहीं रहती । चंचला लक्ष्मीका यह स्वभाव दिखाया है, और विष की बहिन होने के कारण लक्ष्मी मनुष्यों को अचेत कर देती है अर्थात धन के महावेश में आकर पुरुष अचेत हो जाता है जिसके कारण पूज्य पुरुषों का भी अपमान कर बैठता है, दिवा A Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली हित का विवेक नहीं रहता। अतः इसको धर्मकायों में लगाने से ही इसके प्राप्त करने की मफळता है। धन खर्च करने के सात क्षेत्र हैंजिनप्रतिमा, जिनमन्दिर, श्र तज्ञान, मुनि, आर्यिका, श्रावक, प्राविका इन सात धर्मस्थानों में लक्ष्मी का सदुपयोग करने वाले पुरुष ही सद्गृहस्व हैं उन्हींके द्वारा धर्म की अपूर्ण प्रभावना होती है, वात्सल्य भाव की वृद्धि होती है, अनेक जीवों का धर्म में धर्म का स्थितिकरण होता है तथा स्व पर कल्याण होता है। कामदेश द्वारमाह--- शार्दूलविक्रीडित छन्दः चारित्रं चिनुते तनोति विनयं ज्ञानं नयत्युन्नति । पुष्णाति प्रशमं तपः प्रबलयत्युल्लासयत्यागमं ।। पुण्यं कन्दलयत्य, दलयति स्वर्ग ददाति क्रमात् । निर्वाणश्रियमातनोति निहितं पात्रे पवित्र' धनं ७७|| व्याख्या - पवित्र न्यायोपार्जितं धनं वित्तं पात्रे सुपात्रे निहितं दस सत् चारित्र' संयम चिनुते वद्धयति । विनयं विनयगुणं तनोति प्रीणयति । पुनर्ज्ञानं श्रुतादि उन्नतिं नयति प्रापयति । पुनः प्रशमं चपशमं पुष्णाति पोषयति । पुनस्तपो मासक्षमणादि प्रबलयति पारणादियोगात्साइयति । पुनरागमं सिद्धान्तं पठनादि उल्लासयति प्रबलं करोति। पुनः सत्कर्मवनं कंदलयति कंदलयुक्त करोति । पुनः अघं पापं इलयति खंब्यति । पुनः स्वर्ग ददाति क्रमात अनुक्रमेण निर्वाणश्रियं मोक्षलक्ष्मी मातनोति बचे इत्यर्थः । सुपात्रे इत्तं धनं एतानि वस्तूनि करोति ।। ७७ ॥ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . सूक्तिमुकाबली अर्थ- पवित्र सत्पात्र को दिया हुआ धन पारित्र का संचय करता है. विनय बढ़ाता है, ज्ञान की वृद्धि करता है, प्रशम ( शास) माव को परिपक्व करता है, तप को प्रबल बनाता है, आगम के ज्ञान को उल्लासित करता है आयात् शास्त्र ज्ञान की वृद्धि करता है, पुण्य की जड़ को पुष्ट करता है, पापों को नष्ट करता है, स्वर्ग देता है और क्रम से मोक्षलक्ष्मी को प्राप्त कराता है। सारांश-पात्र तीन प्रकार के है:-उत्चम, मध्यम, जघन्य । उत्तम पात्र मुनि, आर्यिका हैं। मध्यम पात्र व्रती श्रावक ग्यारहवीं प्रतिमा तक के धारी तथा जघन्य पात्र व्रत रहित सम्यग्दृष्टी हैं। उत्तम पात्रों को पान देने से उत्तम फल, मध्यम को देने से मध्यम, चौर जघन्य को देने से जपन्य फल मिलता है। इसका विशेष वर्णन श्रावकाचार प्रन्थों से जानना पर पात्र पान का फल संक्षेप में इस प्रकार है :( श्री समन्तभद्राचार्य ने रत्नकरण्डप्रावकाचार में कहा है। क्षितिगतमिव बटवीन. पात्रगत दानमल्पमपि काले। फलति पछायाविमन, बहुफल मिष्ट शरीरभृताम् ॥ जिस प्रकार पद [ बरगद का बीज बहुरा छोटा होता है परन्तु इस छोटे बीज से इतना विशाल वृक्ष होता है कि जिसकी छाया में हजारों पुरुष बैठ सकते हैं। इसी प्रकार पात्रों को भक्ति पूर्वक दिया हुआ घोड़ा भी दान विशिष्ट फल को देता है। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली १०३ दान देते समय दातार के इतने विशुद्ध परिणाम होते हैं कि जिसकी तुला नहीं की जा सकती है. विशुद्ध परिणाम के कारण जिस जीव के कुगति बन्ध होकर परभव सम्बन्धी आयुका बन्ध यदि नहीं पड़ा है तो वह कुगति बन्धको छेव कर सुगति-बंध को कर लेता है। और तो क्या ? दान देने की अनुमोदना करने बाले भी उत्तम क्षेत्र में जाकर जन्म धारण करते हैं | देखिये जब राजा जंघ और रानी श्रीमती भक्ति पूर्वीक मुनियों को दान दे रहे थे उस समय सिंह, बैल, नेवला, बन्दर भारि पशु इस दान पात्र और दातार को सराहना कर रहे थे। दान देने के माहात्म्य से वे दोनों राजा रानी उत्तम भोग भूमि में उत्पन्न हुए और सराहना करने वाले वे पशु भी उसी उत्तम भोग भूमि के क्षेत्र में तिर्यच्च पर्याय में अवतरित हुये । कर्म भूमि के प्रारम्भ में राजा जंघ का जीव प्रथम तीकर श्री ऋषभनाथ हुये और रानी श्रीमती का जीव श्रेयान्स राजा हुये जो दान के प्रथम प्रवर्तक कहलाये इस प्रकार दान की महिमा अद्भुत है। गृहस्थावस्था में पट् कर्म [ असि, मसि कृषि, वाणिज्य, विद्या शिल्प ] द्वारा उपार्जित ओ पाप हैं वे दान के प्रभाव से नष्ट हो जाते हैं ऐसा दान तीन प्रकार के पात्रों में निरन्तर देना योग्य है। शार्दूलविक्रीडित छन्दः दारिद्रय' न तमीक्षते न भजते दौर्भाग्यमालम्बते । नाकीर्तिर्न पराभवोऽभिलषते न व्याधिरास्कन्दति || दैन्यं नाद्रियते दुनोति न दरः क्लिश्नन्ति नैवापदः । पात्रे यो वितरत्यनर्थदलनं दानं निदानं श्रियः ॥ ७८ ॥ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली ★ व्याख्या - यः पुमान् पात्रे सुपात्रे दानं वितरति प्रयच्छति तं पुरुषं दारिद्र्य न ईश्वते न पश्यति । पुनस्तं दौर्भाग्यं दुर्भगत्वं न भजते न सेवते । पुनः अकीर्तिर यशस्तं नालम्बते नाश्रयति । पुनः तं पराभवः परिभवनं नाभिलषतेन वदिति । पुनर्व्याधिरामयं तं नाकति न शोषयति । पुनदैन्यं नामाद्रियते साधयति पुनर्वरो भयं तं न दुनोति न पीडयति । पुनः आपदो व्यसनानि कष्टानि तं न क्लिश्नंचि न पीडयति । यः पात्रे दानं ददाति । किंभूतं दानं अनर्थानां उपद्रवानां वलनं छेदकं । पुनः किंभूतं भियां संपदां निदानं कारणं ॥ ७८ ॥ १०४ अर्थ - जो मनुष्य सत्पात्र के लिये लक्ष्मी बढ़ने का एक मात्र कारण तथा अनर्थों का दूर करने वाला दान देता है उसको दरिद्रता कभी नहीं देखती अर्थात वह दरिद्री कभी नहीं होता. दुर्भाग्य उसकी कभी सेवा नहीं करता, अपकीर्ति उसकी संसार में नहीं होती, तिरस्कार उसका नहीं होता, व्याधियां (रोग) उसको कभी नहीं सताती, दीनता उसका आश्रय नहीं करती, भय क्षोभ पैदा नहीं होता, आपत्तियां उसको कभी नहीं सताती वह सदा स्वस्थ रहता है । भावार्थ - जो पात्रों के लिये श्रद्धापूर्वक अपना कर्तव्य सम कर दान देते हैं उसके सभी विघ्न, उपद्रव शान्त हो जाते हैं । गार्हस्थ्य धर्म की शोभा दान से ही है। "गृही दानेन शोमते " ऐसा आचार्यों का वाक्य है। दान बिना घर शून्य माना गया है। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली दानगुणमाह शार्दूलविक्रीडित छन्दः लक्ष्मीः कामयते मतिमं गयते कीर्तिस्तमालोकते | प्रीतिश्चुम्बति सेयते सुभगता नीरोगतालिङ्गति ।। श्रेयः संहतिरभ्युपैति वृणते स्वर्गोपभोगास्थिति | मुक्ति वञ्छिति या प्रयच्छति पुमान्पुण्यार्थमथ निजं ||७९||) व्याख्या-या पुमान् पुण्याधी निजं अर्थ स्वकीयं धनं प्रयच्छति ददाति तं पुरुष लक्ष्मीः कमला कामयते वांछति । पुनर्मतिथुद्धिस्तं मृगयते अन्वेषयति । पुनः कीर्तिस्तं आलोकते पश्यति । पुनः प्रीतिरानंदस्तं धुम्बति श्लिष्यति । पुनः सुभगता सौभाग्य सेयते भजति । पुन नीरोगता आरोग्यं तं आलिंगति । पुनः श्रेयः संहतिः कल्याणपरम्परा तं अभ्युपैति सम्मुखमायाति । पुनः वर्गोपभोगास्थिति देवस्थभोगपद्धतिस्तं वृणुते वरयति । पुनर्मुतिर्मोक्षस्त वाञ्छति यः पुण्या निजं श्रयं प्रयच्छति || EH अर्थ-जो पुरुष अपना धन दानावि पुण्य कार्यों के लिये दे देवा है लक्ष्मी स्वयं ही उससे मिलने की इच्छा करती है, अर्थात् दान के प्रताप से उसके घर स्वयं लक्ष्मी आजाती है, बुद्धि उसे ढूढती है, कीर्ति देखती , प्रीति उसे स्पर्श करती है, सुभगता [ सौभाग्यपना ] उसकी सेवा करती है, भारोम्यता आलिङ्गन करती है, कल्याण समूह प्राप्त होता है। स्वर्गों के भोग उपभोग की सामग्री ( कल्पवृक्षों द्वारा प्राप्त सुन्दर वस, पुष्प, वाद्यादि अनेक Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ सूक्तिमुक्तावली प्रकार ) प्राप्त होती है तथा मुक्ति भी उसकी इच्छा करती है । ऐसा जान कर पात्रोंको सदा काल वान देना योग्य हैं भूयोप्याह- मन्दाक्रान्ता छन्दः तस्यासन्ना रतिरनुचरी कीर्तिरुत्कण्ठिता श्रीः । स्निग्धा बुद्धिः परिचयपरा चक्रवर्तित्व ऋद्धिः ।। पाणी प्राप्ता त्रिदिवकमला कामुकी मुक्तिसंपत् । सप्तक्षेत्र्यां वपति विपुलं विचबीजं निजं यः ||८०|| स्वासणा - यः पुमान् निजं यं विपुलं प्रचुरं विसमेव बीजं सप्तक्षेत्रयां जिनभवनं १ जिन बिंबं २ पुस्तकं ३ चतुर्विधसंघ भक्ति रूपायां वपति तस्य पुरुषस्य रतिः समाधिराखन्ना समीपवर्तिनी स्थातथा तस्य कीर्तिरनुचरी सेविका स्यात्, तथा तस्य श्री संपत घनधान्यहिरण्यरूपा उत्कंठिता मिलनोत्का स्यात्तथा तस्य बुद्धिरोत्यधिकाया स्निग्धा स्नेहवती स्वात्तथा तस्य चक्रवतित्व ऋद्धिः परिचयपरा सार्वभौम विभूतिः सुपरिचिता स्थान । तथा त्रिदिवस्य स्वर्गस्य कमला श्री: पाणौ हस्ते प्राप्ता संगता स्याशथा मुक्तिसंपत सिद्धिरमा कामु की साभिलाषा स्याद्यः सप्तक्षेत्र्यां निजं विश्वं बीजं वपति ॥ ८ अत्र धन्यसालिभद्र चंदनबाला सागर चंदन ष्ठि कथाः || अर्थ -- जो पुरुष अपना बहुत धन रूपी बीज सात क्षेत्रों में बोता है ( सातक्षेत्र:- जिन प्रतिमा, जिनमन्दिर, श्रुतज्ञान, मुनि, आर्यिका श्रावक श्राविका, ये सात क्षेत्र है) प्रीति उसकी दासी बन जाती है, कीर्ति उसकी दासी रहती है, लक्ष्मी उसके लिये उत्क Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली १७ एिठत रहती है, बुद्धि उस करती है, पति की सियां उससे परिचय रखती हैं, स्वर्ग की लक्ष्मी उसके हाथ में बाजाती है, और तो क्या मुक्ति-लक्ष्मी इसकी अभिलाषा करती है। भावार्थ-जो पुण्यात्मा पुरुष धार्मिक नीति से कमाये हुये धन को धार्मिक कार्यों में खर्च करते हैं अर्थात् जिन प्रतिमा, जिन मन्दिर बनवाने में या उनका जीर्णोद्धार कराने में शास्त्रोंको लिखने लिखाने व वितरण करने में तथा मुनि आर्यिका श्रावक भाषिका के थाहार दान में, औषधिदान में उनकी परिचयों करने कराने में + अपना रुपया लगाते हैं उन्हीं का धन पाना सफल है वे ही मनुष्यों में शिरोमणि हैं, उन्हीं का मनुष्य जन्म पाना धन्यवाद के योग्य है, उनसे सभी जीव प्रेम करते हैं, संसार में उनकी चारों ओर कीर्ति फैलती है, लक्ष्मी उनके चरणों में लोटती है उनकी विशिष्ट बुद्धि या प्रतिभा होती है, चक्रवर्ति की विभुति भी उन्हें प्राप्त होती है, स्वर्ग की लक्ष्मी तथा मुकि लक्ष्मी तक उन्हें प्राप्त होती है इसलिये पात्रों को दान देना, धनकी सेवा भक्ति करना औषधि देना, उनके दुख संकट उपसर्ग को दूर करना, उनकी शान वृद्धि के हेतु शालों को वितरण करना नावकोका कर्तव्य है। अथ तप उपदेशद्वारमाह शार्दूलविक्रीडितछन्दः यत्यूार्जितकर्मशैलकुलिशं यत्कामदावानलज्वालाजालजलं यदुप्रकरणग्रामाहिमन्वाक्षरम् । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ सूक्तिमुक्तावली यत्प्रत्यूहतमः समूहदिवसं यः लब्धिलक्ष्मीलतामूलं तद्विविधं यथाविधि तपः कुर्वीत वीतस्पृहः || ८१ ॥ व्याख्या - बीतस्पृहः बीता गता वृद्दा वांछा यस्य स बीतगृहः सन् बांखा निदानादि रहितः सन् तदुद्विविधं तपः कुर्वीत कुर्यात् तत्किं यत्तपः पूर्वे भवे अर्जितानि उपार्जितानि यानि कर्माणि तान्येव शैलाः पर्वतास्तेषु कुलिशं व तेषां छेदकस्वा | पुनर्यतपः यत्काम एव दाबानोदावाग्निस्तस्य उशलानां जाल: समूहस्तत्र जलं तद्वि नाशकत्वात् । पुनर्संनी दारुणीय करयाना इन्द्रियाणां भीमः समूहः स एवा हि सर्पस्तस्य मंत्राक्षरं सर्वमंत्रस्य बीजं । पुनर्यतपः प्रत्यूहा एष विघ्ना एव तमसोंऽधकारस्य समूहस्तत्र विषं दिनं तन्नाशकत्वात । पुनर्यतपोन्धिलक्ष्मी कँब्धि संपदेष लता वल्लीस्तस्यामूलं उत्पादनकं तद्विषिध द्वादशप्रकारं तपः कुर्वीत ॥ ८१ ॥ अर्थ — जो तप पूर्व भव में उपाजित किये गये कर्मरूपी पर्वत को भेदने के लिये वज्रसमान है, काम रूपी दावानलको ज्यालाओं को बुझाने के लिये जल के समान है, प्रचण्ड इन्द्रियों के समूह रूपी सर्प को वश करने के लिये मन्त्र के समान है, विघ्न रूपी अन्धकार समूह को नाश करने के लिये दिन समान है तथा जो तप न केवल लब्धि को लक्ष्मी रूपी वेल का मूल कारण है। वह दो प्रकार ( अन्तरंग, बहिरंग ) का तप निस्पृह होकर विधिपूर्वक करना चाहिये । भावार्थ - इच्छा निरोध तप से ही पूर्वभव के संचित कर्मों की निर्जरा होती है, कामादि विकार परिणति दूर हो जाती है, Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली इन्द्रियों का दमन होता है, विघ्न आदि शांत हो जाते हैं, क्षायिकज्ञान क्षायिक दर्शन आदि नत्र लब्धियां भी तप के बल से प्राप्त होती हैं । ऐसा जान कर बाह्य आभ्यन्तर दो प्रकार का तप निदान रहित करना चाहिये। तपः प्रभावनामाह शार्दूलविक्रीडित छन्दः यस्माद्विघ्नपरम्परा विघटते दास्यं सुराः कुर्वते । कामः शाम्यति दाम्यतीन्द्रियगणः कल्याणमुत्पति ।। उन्मीलन्ति महर्द्ध यः कलयति ध्वंसं च यः कर्मणां । स्वाधीनं त्रिदिवं शिवं चभजति श्लाघ्यं तपस्तन्न किं ८२। व्याख्या-तसपः किं श्लाघ्यं न प्रशस्थ न अपि तु श्लाघ्यमेव । तस्कि यस्मात्तपसो विघ्नपरंपरा कष्टश्रेरिणविघटते विलयं याति । पुनः सुरा देषा पास्य दासत्वं कुर्वते । पुनयंस्मारकामः शाम्यति उपशमं याति । पुनरिन्द्रियगणः पन्चेन्द्रियसमूहो दाम्यति वर्म प्राप्नोति । पुनर्यस्मात्तपसः कल्याणं श्रेयः मत्सर्पति प्रसरति । पुनयस्मान्महर्द्धयस्तीर्थकरादिसंपदः उन्मीलंति विकसति । पुनर्यस्मात् कर्मणां झानावरणीयादीनां चयः समूहो ध्वन्सं नाश कलयति प्रयाति पुनर्यस्मासुपस: त्रिदिवं स्वर्गः च पुनः शिषं मोक्षः स्वाधीन स्वायत स्यात तत्तपसः किं श्लाघ्यं न स्यात् । अपितु श्लाध्यमेव ।। ८२॥ अर्थ-जिस तप के प्रभाव से विघ्नों का समूह नष्ट हो जाता है, देव भी सेवक बनकर सेवा करते हैं, काम की विकार परिणति शान्त हो जाती है, इन्द्रियां वशीभूत हो जाती हैं कल्याण Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली उन्नत दशा को प्राप्त होता है, अनेको महान् ऋद्धियां स्वयमेव प्रगट हो जाती हैं, कर्मों की गुणणि निर्जरा होती है तथा जिसके प्रभाव से स्वर्ग और मोक्ष अपने आधीन हो जाते हैं ऐसा तप फिर प्रशंसा योग्य क्यों न हो। किन्तु अवश्य ही प्रशंसा योग्य है । पुनश्च शार्दूलविक्रीडित छन्दः कान्तारं न यथेतरो ज्वलयितुं दक्षो दवाग्नि विना । दावाग्नि न यथापरः शमयितुं शक्तो बिनाम्भोधरं ॥ निजातः पवन विना निरपि मान्यो चासो धरं । कमौं, तपसा विना किमपरं इतुं समर्थस्तथा ।।८३) व्याख्या- यथा कांतारं वनज्वालयितु वनाग्नि विना इतरो अन्यो दलो न । पुनर्यथा दावाग्नि शमयितुं विध्यापयितु अम्भोभर मेधं विनाऽपर शक्तो न समर्थो न । पुनर्यथाऽभोधरं मेघ निरसितु दुरीकर्तुं पवन विनान्यो न निष्णातो न निपुणः तथैव कौघ कर्मसमूहं हतु छेस तपसा विनाऽन्यत्किं समर्थं अपितु न किमपि किंतु तप पय कर्माणि इंतु समर्थ ।। ८३ || अर्थ-जैसे धन को जलाने के लिये दावानल अग्नि के बिना अन्य दूसरी समर्थ नहीं है, दावानल को शांत करने के लिये विना मेषों के अन्य कोई समर्थ नहीं है, जैसे मेघों को छिन्न भिन्न करने के लिए पषन बिना दूसरा शक्तिमान नहीं है उसी प्रकार कर्मों को नष्ट करने के लिये तप के बिना क्या कोई दूसरा समर्थ है ' भीत् कोई नहीं है।) Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली १११ भावार्थ-तप की सामर्थ्य से कर्मों की निर्जरा होती है अन्य दूसरा कोई साधन नहीं है। जन्म जन्मांतर के संचित कर्म सप बल से ही नष्ट होते हैं अतः यथाशक्ति तप अवश्य करना चाहिए । पुनराह - स्रग्धरा छन्दः सन्तोषस्थूलमूलः प्रशमपरिकर स्कन्धबन्धप्रपञ्चः । पञ्चाक्षीरोधशाखः स्फुरद भयदलः शीलसंपत्प्रवालः ॥ श्रद्धाम्भःपूर सेकाद्विपृलकुलबलैश्वर्य सौन्दर्य भोगः स्वर्गादिप्राप्तिपुष्पः शिवमुख फलदः स्यात्तपः पादपो ऽयं ॥ ८४ ॥ व्याख्या -- अयं तप एवं पादपी वृक्ष शिव सुखफलदः स्यात त्रिसुखान्येव फलानि ददातीति शिवसुखफलदः मोक्षफलदाता स्यात् । किंभूतः तपःपादपः संतोषो मूर्च्छात्याग एव स्थूलं पुष्ट ं मूलं यस्य सः । पुनः किंभूतः प्रशमः क्षमा एवं परिकरः परिवारो यस्य सः पुनः किं भूतः स्कन्धा आचाररांगांदिश्र तस्कंधास्वेषां बंधो रचना एव प्रपंचो विस्तारो यस्य स पुनः किंभूतः पंचानां अक्षाणां इन्द्रियाणां समाहारः पंचाली रोघ एव शाखा यस्य सः । पुनः किं भूतः स्फुरत् देदीप्यमानं अभयं श्रभयानमेव वृक्षं यस्य सः । अथवा स्फुटानि प्रकटानि विनय रूपाणि दलानि पत्राणि यस्य सः 1 पुनः किंभूतः शील संपदेव ब्रह्मत्रतमेव प्रवाळा नवपल्लवा यस्य सः । पुनः किंभूतः श्रद्धा रुचिः सैव अंभः पानीयं तस्य पूरस्तेनसेकः सिंचमं तस्मात् विपुलानि विस्तीर्णानि कुलेश्वर्य सौंदर्या Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ सूधिगुरकावडी एयेव भोगो यस्य स अथवा विपुलकुलबळेश्वर्याएयेष विस्तारश्य भोगो यस्य स । पुनः किं भूतः स्वर्गादीनां देवलोक मैधेयकानुत्तरत्रिमानानां प्राप्तय एव पुष्पाणि यस्य स । ईदृशस्तप एवं पादयो वृक्षः स शिवसुखमेव फलं दधाति ॥ ८४ ॥ अत्र वसुदेव हरिकेशवकथा || अर्थ - यह तप वृक्ष के समान है कैसा है तपरूप वृक्ष सन्तोष ही है चढ़ जड़ जिसकी, प्रशम संवेगादिरूप स्कन्ध बन्ध का फैलाव है जिसका, पांचों इन्द्रियों के निरोध रूप शाखायें हैं जिसकी, देदीप्यमान अभय पत्र [ पत्ते ] लग रहे हैं जिसके, शीळ सम्पत्ति रूपी कोंपलें है जिसकी श्रद्धा रूपी जल के सींचने से उत्तम कुल, विपुल ऐश्वर्य सुन्दरता नाना प्रकार के भोग युक्त स्वर्गादिरूप पुष्प हैं जिसके, ऐसा रूप रूपी वृक्ष मोक्ष पद रूपी फल को देता है । 1 भावार्थ - लोक पूज्य महान् उत्तम फल को देने वाले ऐसे तप रूपी वृक्ष की विषयादि रूपी अग्नि से रक्षा करना योग्य है अन्यथा यह सर्वथा नष्ट हो जायगा । भावोपदेशमाह शार्दूलविक्रीडित छन्दः नीरामे तरुणी कटाक्षितमिवत्यामव्यपेतप्रभोः । सेवाकष्टमिवोपरोपणमिवाम्भोजन्मनामश्मनि ॥ विषम्वर्षमिवोपरक्षितितले दानादिचतपः । स्वाध्यायाध्ययनादि निष्फलमनुष्ठानं विना भावनां ||२५|| Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली व्याख्या:-भावनां शुभभावनां विना दानादि तपः स्वाध्यायाध्यनादि सर्घमनुष्ठाने कियाकरणं निष्फलं स्यात् । दानं प्रसिद्धं च अईवर्चा देवपूना च तपश्च स्वाध्यायश्च ते आपो यस्य तत् दानजिनपूजातपः सिद्धांतपठनादिक भाव विना भिक कमिव । नीरागे पुरुषे तरुणी कटाक्षितमिव युवतीकटाक्ष विक्षेपणमिव । यथा नीगगे नरे तरुणी फटाक्षा निष्फलाः । पुनः किमिव त्यागव्यतिप्रभी दानरहिते कुपणे स्वामिनि सेवाफष्ट इव यथा अदातरि स्वामिनि सेवाकष्ट नि:फलं। पुनः किमिव अश्मनि पाषाणे अम्भोजन्मनां कमलानां उपरोपणं वपनं इव यथा पाषाणोपरिकमलथापन निःफलं। पुनः किमिव ऊषरक्षितितले कषरभूमौ विष्वग वर्षमिव यथोषरभूमौ सर्वतो मेघवर्षणं निःफलं तथा शुभभाषना पिना सर्वाक्रिया: निःफलाः ॥५॥ अर्थ--जैसे वीतरागी पुरुष के सामने युवा स्त्री के कटाक्ष निष्फल हैं, जैसे धन न देने वाले स्वामी की सेवा करना कष्टमात्र है अर्थात व्यर्थ है, जैसे पत्थर में कमलों का उगाना व्यर्थ है उसी प्रकार भनित्य अशरण आदि बारह भावनाओं के घिन्तवन बिना दान देना, अरहन्त वीतराग की पूजा करना, तप करना, स्वाध्याय करना कराना आदि सभी क्रियायें निष्फल हैं। भावार्थ-जैसे अंक बिना विन्दी का कोई मूल्य नहीं है उसी प्रकार मैत्री, प्रमोद, कारुण्य, माध्यस्थ भावनाओं के बिना और अनिस्य, अशरण आदि भावनाओं के भाये बिना दान, पूजा, तप, स्वाध्याय भादि अनुष्ठान निष्फळ हैं इसलिये उत्तम भावनाओं के साथ साथ ही उत्सम कियायें करना अचम फलदायक हैं। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली पुनराह शार्दूलविक्रीडितछन्दः सर्व ज्ञीप्सति पुण्यमीप्सति दयां धित्सत्ययं मिल्सति | क्रोधं दित्सति दानशीलतपसां साफल्यमादित्सति ।। कल्याणोपचयं चिकीर्षति भवाम्भोधेस्तटं लिप्सते । मुक्तिस्त्री परिरिप्सते यदि जनस्तद्भावयेद्भावनाम् ।।८६ व्याख्या-यदि मनो लोकः सर्व वस्तु नीप्सति ज्ञातुं इच्छति । पुनर्यदि पुण्यं धर्म ईप्सति वांछति । पुनर्यदिजनो दयां कृपा धित्सति धतुं इति । पुनर्यदि अचं पापं मित्सति मातुं हंतु. मिच्छति । पुनर्यदि क्रोधं रोषं दित्सति खंहितु इच्छति । पुनर्यदि वानशीलतपसा साफल्यं सफल आदित्सति प्रहीतुमिच्छति । यदि पुनः कल्याणोपचयं कल्याणवृद्धि चिकीर्षति कर्तु वांछति । पुनर्यदि भराम्भोधेः संसारसमुद्रस्य सदं पारं लिप्सति लन्धुमिच्छति । पुनर्यदि मुक्तिस्त्री सिद्धिरमणी परिरिप्सते आलिगितुमिच्छति जनस्तदा भावनां शुभभावं भावयेत् कुर्यादित्यर्थः॥८६॥ अर्थ-यदि मनुष्य सर्वज्ञ होने की इच्छा करता है. पुण्य की वाञ्छा करता है, या धारण करना चाहता है पापों को नष्ट करना चाहता है, कोध को भेदन करना चाहता है, दान शील तप की सफलता चाहता है, निरन्तर कल्याण करने की चाह रखता है, संसार रूपी समुद्र के किनारे पर पाना चाहता है और मुक्ति स्त्री के घर की इच्छा रखता है तो निरन्तर बारह भावना भावे अर्थात चिन्सषन करे इन भावनाओं के चिन्तवन करने से शान्तिरस का Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुभव होता है, वैराग्य सदा भावने योग्य है। पुनर्विशेषमाह- सूक्तिमुक्तावली ११५ भावों की वृद्धि होती है अतः भावनायें पृथ्वी छन्दः विवेकवनसारिणीं प्रथमशमसंजीविनीं । भवार्णव महातरी मदनदावमेचावलीं ॥ चलाक्षमृगवागुरां गुरुकषायशैलाशनिं । विमुक्तिपथवेसरी भजत भावना किं परैः || ८७ ॥ व्याख्या - भो भव्याः ! भावनां शुभपरिणामरूपां भजत सेवध्वं परैरन्यैः कष्टानुष्ठानैः शुभभावरहितैः किं न किंचिदित्यर्थः । कथंभूतां भावनां विवेकः कृत्याकृत्यविचार एव वनं तत्र सारणि: कुल्या तां । पुनः प्रशमशर्मणः उपशमसुखस्य संजीवनी जीवनकर्ती तां । पुनः किंभूतां भव एव संसार एव भवः समुद्रस्तत्र महातरीं मद्दानावं । पुनः किं भूतां मदन एव दावो दावाग्निस्तत्र मेघस्यावली I । पुनः किं भूतां चलानि चंचळानि यानि अक्षाणि इंद्रियायेक मृगा हरिणास्तेषु वागुरां मृगजालं पाशबन्धनं । पुनः किं भूतां गुरुविष्टश्चतुः कषायरूप एवं शैलः पर्वतः तत्र अशनि बैत्र । पुनः किं भूतां विमुक्तः सिद्धेः पंयास्तत्र बेसरी अश्वतरीं तद्भारवाहिकां सरमाच्छुभभावनामेव कुर्वन्तु ॥ ८७ ॥ अर्थ --- जो विषेक रूपी वन को सिंचन करने के लिये कृत्रिम नदी समान है नहर समान है, शान्तिभाव रूप सुख की संजीवनी औषधि है, संसार रूपी समुद्र के तिरने के लिए महान् नौका है, काम रूपी Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली दावानल को शान्त करने के लिये मेघमाला है, चंचल इन्द्रिय रूपी हिरण को पकड़ने का जाल (पाश ] है, प्रबल कषाय रूपी पर्वत को भेदन करने के लिये करके समान और मुक्ति के मार्ग में शीघ्रतया गमन करने के लिये खच्चरी के समान है ऐसी भावना सदा भजने ( भाषने ) योग्य है दूसरे कार्यों से कुछ काम नहीं है । भावार्थ- अन्य सभी कार्यों को छोड़ कर भावनाभों का निरन्तर चिन्तवन करना चाहिए। इसी भावना के बल से अनादि काल से चली आई पर पवाथी को मनानरूप पर परिणति दूर हट कर, स्वपरिणति ( आत्मा की भावना ) जागृत होती है अर्थात् मिथ्यात्वपरिणति रूप अन्धकार नष्ट होता है। हृदय में सम्यक्त्व ज्योति का आविर्भाव [ प्रगट ) होता है। इसीसे प्राणिमात्र का कल्याण होता है। पुमराह शिखरिणीछन्दः धनं दवं वित्तं जिनवचनमभ्यस्तमखिलं । क्रियाकाण्डं चण्डं रचितमवनी सुप्तमसरुव ।। तपस्तीन तप्तं चरणमपि चीण चिरतरं । न चेच्चिचे भावस्तुषवपनवत्सर्वमफलम् ॥८८॥ व्याख्या-घनं प्रचुर विसं धनं पात्रेभ्यो दत्तं । पुनरखिलं समस्तं जिनवचनं जिनागमरूप अभ्यस्त पठितं । पुनश्चंडं भीमं कियाकोई लोचापि रचितं कृतं । पुनरवनी भूमी असाद्वारं वारं सुप्तं शयनं कृतं । पुनस्तीनदुःकरं तपस्तप्तं तपः कृतं । पुनश्चरण चारित्रं Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 सूक्तिमुक्तावली ११७ चिरतरं बहुकालं चीणं सेवितं पालितं परं चैवदि चिसे हृदि भाषो न शुभभावना नास्ति तदा धान्यस्य तुषवपनवत् सर्गे पूर्वोक्तं विफलं स्यात् अत्र मरुदेवी भरत प्रसन्न चन्द्रराजर्षीणां कथा ॥ ८८ ॥ इति भावना प्रक्रमः अर्थ जीवन में दिया सहय शास्त्रों का अभ्यास किया, प्रचण्ड क्रिया काण्ड भी किया, सदा पृथ्वी पर ही कष्ट सहन करता हुआ शयन किया, बोर तपस्या की, चिरकाल तक चारित्र का भी पालन किया, किन्तु यदि भावना उत्तम नहीं है अर्थात् आत्मचिन्तवन पूर्वक ये कार्य नहीं किये तो तुष ( धान के छिलके } के बोने के समान सब क्रियाकाण्ड निष्फल है। भाषार्थ - जैसे तुष के वपन ( बोना ) करने से चावल उत्पन्न नहीं होता अतः तुष का बोना व्यर्थ है इसी प्रकार शुद्ध भावना अर्थात निर्मल भावों के बिना उत्कृष्ट कियाकाण्ड करना भी निष्फ है इसलिए प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है कि निरन्तर निर्मल भावना रखे, न जाने कब परभत्र सम्बन्धी आयु का बन्ध हो जाय । आयु बन्ध के योग्य आठ अपकर्ष काल माने गये हैं ( जिसका विशेष वर्णन गोम्मट्टसार जीव काण्ड, राजवार्तिक, आदि ग्रन्थोंसे जानना ) उन आठ अपकर्ष कालों के समय जिस जीव के जैसे निर्मल, या मलिन परिणाम होते हैं तदनुसार हो सुगति कुगति सम्बन्धी भायु का बन्ध जीवों के हो जाता है जिसका हटाना असम्भव है। हां, परभव सम्बन्धी आयु की स्थिति का अपकर्ष, उत्कर्ष तो हो सकता Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली है पर उसका सर्वथा क्षय ( उदीरणा ) असम्भव है अतः सदैव सद्भावना जीवन की सफलता का सूचक है। श्रथ वैराग्यमाह तिही वनः यदशुभरजः पाथो हप्तेन्द्रियद्विरदांकुशं । कुशलकुसुमोद्यानं माद्यन्मनाकपिशृङ्खला ।। बिरतिरमणीलीलावेश्म स्मरज्वरभेषजम् । शिवपथरथस्तवैराग्यं विमृश्य भवाभयः ।।८९|| व्याख्या-भो मुने । तद्वैराग्यं विमृश्य चिन्तयित्वाऽभवः .. संसारहितो भय । तरिक यद्वैराग्यं अशुभं पापमेव रजोधूलिस्तत्र पाथो जलं तटुपशमहत्तस्यात् । पुनर्यत् वैराग्यं माद्यन् मदोन्मतो यो मन एव कपिर्धानरस्तस्यसला निगडो बन्धनं । पुन: कि विशिष्ट कुशलमेव कुसुमानि तेषां उद्यान पुष्पारामं । पुनमानि इन्द्रियाण्येष द्विरदा गजास्तेषां अंकुश यश्यफर । पुनर्यत् विरचिरमणी लीलाधेश्म विरतिरमणी देशविरतिरेवरमणी स्त्री तस्याः पष लीलावेश्मकोडागृह । पुनयंत् स्मरज्वरभेषजंस्मर एव ज्यरस्तस्यौषधं कामज्वरौषधं । पुनयंत शिवपथरथः मोक्षमार्गे रपसमाना र सद्वैराग्यं विमृश्य विचार्य ममयः संसारमयरहितो भव ।। ८ ।। अर्थ-जो बैराग्य पाप रूपी धूल के बहाने के लिये बल के समान है, मदोन्मत्त इन्द्रिय रूपी हाथी को वश में करने के लिये अंकुश समान है, जो कल्याण रूपी पुष्पों के बाग समान है, मदोमन मन रूपी बन्दर को वश करने के लिए सांकल समान है, Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली १६ विरति रूपी स्त्री के कीड़ा-गृह समान है, काम रूप उबर को नाश करने को औषधि समान है, और जो मोक्षमार्ग में ले जाने के लिये रथ समान है ऐसे वैराग्य का वृदय में चिन्तवन करके हे भव्य ! तुम निर्भय बनो। ऐसा जान कर निरन्तर घेराग्य का चिन्तयन करना चाहिये। पुनराह - वसन्ततिलकाछन्दः ६ चण्डानिलः स्फुरितमयचयं याचि । वृक्षवन तिमिरमण्डलमर्कबिम्बम् ।। षजं महीधनिवहं नयते यथान्तं । वैराग्यमेकमपि कम तथा समग्रम् ।।९०॥ व्याख्या-यथा चंदानिलः प्रचंडवायुः स्फूर्जितं अन्दर्य मेघघटांतं अंतं विनाशं नयते प्रापयति । पुन र्यथा दावाचि र्दावाग्निक्षजंद्रुमसमूह अंतं प्रापयति । पुनर्यथा अर्कविम्ब सूर्यश्चिम्ब सिमिरमंडल अंधकारसमूह अंतं मयते । पुनर्यथा वम इन्द्रायुधं महीध्रनिवह पर्वत. , समूह अंतं विनाशं नयति प्रापयति । तथैव एकमपि वैराग्यमेव समर्प कर्म अंतं नयति ॥ ३॥ (अर्थ-जैसे प्रचण्ड पवन आच्छादिस भेघ समूह को नष्ट कर देता है, दावानल वृक्षों के समूह को नष्ट कर देती है. सूर्य का बिम्ब अन्धकार राशि को नाश कर देता है, वन पर्याप्त समूह को नाश कर देता है, वैसे ही एक वैराग्य समस्त कर्मों का नाश कर देता है। } Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली भावार्थ - वैराग्य परिणति का अद्भुत माहात्म्य है। वैराग्य परिणति से भव भवान्तरों के संचित कर्म एक क्षण में नाश हो जाते हैं। भर्तृहरिकृत नीतिशतक में कहा हैं * १२० M भोगे रोगभयं कुले च्युतिभयं वित्ते नृपालाद् भयम् । मौने दैन्यभयं बले रिपुभयं रूपे धरायाः भयम् ॥ शास्त्रे वादभयं गुणे खलभयं काये कृतान्तादुद्भयम् । स वस्तु मयान्वितं भुवि नृणां वैराग्यमेवाभयम् ॥ १ ॥ अर्थ संसार के भोगों में रोग का डर रहता है अर्थात् भोग भोगने के कारण रोग प्राप्त हो जाते हैं कुल में पतित होने का भय रहता है, अर्थात् दुराचार के कारण व्यक्ति कुलसे पतित हो जाता है अधिक धनी हो जाने पर राजा द्वारा धन छीने जाने का भय रहा करता है, मौन धारण में दीनता का भय रहता है, बल में शत्रु के आकमा का भय बना रहता है, रूपवान ( सुन्दर ) होने पर भी बुढापे का भय है क्योंकि वृद्धावस्था में रूप नष्ट हो जाता है अनेक शास्त्रों का पाठी हो जाने पर भी बाद विवाद का भय रहता है, गुणवान होने पर भी दुष्टों से भय बना रहता है, उत्तम बलिष्ठ शरीर प्राप्त हो जाने पर भी कालसे प्रसित होने का भय रहता है । इस प्रकार सांसारिक पदार्थों में सर्वत्र भय का अन्देशा है। एक बैराग्य ही ऐसा है जो मयरहित है। जिस समय संसार, देव, भोग के स्वरूप को चिन्तन कर मनुष्य के हृदय में वैराग्य की भावना जागृत हो जाती है, दुर्धर दिगम्बर दीक्षा धारण में दृढ़ विश्वास हो जाता है उस समय उस वैराग्य रूपी हड़ शृङ्खला को तोड़ने में कोई Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली १२१ भी साहसी सामना नहीं कर सकता अर्थात् अनेकों भय के कारणों का प्रदर्शन किये जाने पर भी यह वीर ौरागी पुरुष अपने हद पा अकाट्य विचारों से मुंह नहीं मोड़ता किन्तु वैराग्यावस्था धारण कर ही लेता है इसलिये कहा है नैराग्य ही अभय है। शिखरिणीछन्दः नमस्या देवानां चरणवरिवस्था शुभगुरो-। स्तपस्या निःसीमक्लमपदमुपास्या गुणवता ।। निषद्यारण्ये स्यात्करणदमविद्या च शिवदा । विरागः करायाक्षपणनिपुणोऽन्तः स्फुरति चेत् ॥९१।। ध्याख्या-चेद् यदि अंतः चित्ते विरागो भैराग्यम स्फुरति वर्तते तदा देवानां नमस्या नमस्करणं शिवदा मोक्षदायिनी स्यात् । पुनः शुभगुरोः चरणवरिवस्या स्यात् चरणयोः सेवा सदा शिवदा स्यात् । पुनः निःसीमलमपदम् भस्यंतश्नमपद ईदशी तपस्या तदेष शिवदा स्यात् । पुनःगुणवतांझानादिगुणयुक्तानां उपास्था सेवापि तदेव शिवदा स्यात् । पुनररण्ये वने निषद्या स्थितिस्तदेव शिवदास्यातू । पुनः करणदमविया इन्द्रियहमनविधिरपि तदैव शिवदास्यात् । यदि अंतमध्ये विरागो भवति । कथंभूतो विरागः करागःक्षपणनिपुणः करं घोरं यदागोऽपराधस्तस्यक्षपणे आयकरणे निपुणश्चतुरः ॥ १ ॥ अर्थ -यदि तीव्र पापों के क्ष्य करने की सामर्थ्य वाला वैराग्य भाष हृदय में स्फुरायमान { प्रगट ) हो जाय तो देवाधिदेव वीतराग का नमस्कार कार्यकारी हो जाय अथवा वीतराग देव की पूजा सफल हो जाय, गुरुओं के चरण कमलोंकी उपासना सफल हो Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ सूक्तिमुक्तावली जाय, मर्यादा रहित क्लेश देने वाली तपस्या कार्यकारी हो जाय, गुणवानों की उपासना कार्यकारी हो जाय, वनमें योगासन करना सफल . हो जाय, मुक्ति पद देने वाली इन्द्रिय के दमन की विद्या सफल हो जाय । __ भावार्थ-वीतराग भाष बिना कोई भी कार्य कार्यकारी नहीं है इसलिये वीतराग माव का अवलम्बन ही कार्यकारी है। विरक्तगुणमाह साटूलविक्रीलितलारः भोगान्कृष्णभुजंगभोगविषमान् राज्यं रजा सन्निभं । बंधबंधनिबंधनानि विषयग्राम विषान्नोपमं ॥ भूतिभूतिसहोदरा तुणतुलं स्त्रणं विदित्वा स्यजन् । तेष्यासक्तिमनाविलो विलभते मुक्ति विरक्तः पुमान् ।।९२॥ ___ व्याख्या-विरक्तो वैराग्ययुक्तः पुमान मुक्तिं विलभते सिद्धि प्राप्नोति। किं कृत्वा भोगाव शब्दादीम् कृष्णभुजङ्गभोगविपमान् कृष्णस्वासौ भुजंगः सर्पस्तस्य मोगः शरीरं तबद् विषमान् भीमान विदित्या हात्वा वेषु अत्यासक्ति अत्यभिलाषंत्यजन् । पनः राजा आधिपत्यं रजः सन्निभं धूलिसदृशं मस्खा त्यअन् ।पनवेधून स्वजनान् कर्मबन्धस्य निर्वधनानि कारणानि मत्वा । पनपिगमार्म विषयसमूह विषान्नोपम विषमिश्रितान्नसमं मत्वा । पुनभूति ऋद्धि भूतिसहोदरां भस्ममगि: रक्षासहशी मस्खा । पुनको स्त्रीणां समूह तमिवरणसरशं विदित्वा तेषु आसक्ति अत्यभिलाषं त्यछन् । कथभूतो विरक्तः पुमान बनाविलः रागवेषाधनाकुलः ॥ ३२ ॥ इति वैराग्यप्रक्रमः । Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तिमुक्तावली अर्थ--विरत पुरुष संसार के विषय भोगों को काले सर्प के फण के समान भर्थकर जानकर, राज्य को धूलि के समान जानकर, भाई आदि कुटुम्बी जनों को बन्ध के कारण जानकर, इन्द्रिय विषयों को विष मिभिस भन्म के समान जानकर, या पान्यादि विभूतिको भस्म की बहिन समान नानकर, रोजनित सुख को दृमातुल्य जानकर उन पदार्थों में अर्थात् भोग, राज्य, बन्धु, विभूति, स्त्री में शासक्ति को बोड़कर अत्यन्त विशुद्ध होता हुआ मुक्ति को प्राप्त करता है। भावार्थ-ये इन्द्रिय भोगादि महान दुःखदाई हैं इनको खाग कर, चिरसि धारण कर, मुक्ति पद की प्राप्ति के लिये सतत प्रयत्नशील रहना ही मानव मात्र का कर्तव्य है। अथ सामान्योपदेशमाह-- उपेन्द्रवज्रा छन्दः जिनेन्द्रपूजा गुरुपयु पास्तिः । सत्यानुकम्पा शुभपात्रदान । गुणानुरामः श्रुतिरागमस्य । नृजन्मवृक्षस्य फलान्यमूनि ॥१३॥ ध्याख्या-नृजन्मवृक्षस्य मनुष्यजन्मचरोः अमूनि फलानि एतैः कृत्वा मनुजमन्मसफलं भवति । अमूनि कानि प्रथमं सावजिनंद्रपूजा श्रीवीतरागदेवस्य पूजा कार्य । पुनः गुरूणां पर्युपारित: सेवा कार्यः । पुनः सस्थानां जीवानां अनुकंपा या कार्या । पनःशुभपाने Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली वानं देयं । पुनः गुणेषु अनुरागः गुगाप्रहणणं रतिः कार्या । पुनः भागमस्थ सिद्धान्तस्य श्रुतिः अबकाये । पाम फत्वा मनुध्यजन्मसफलं, स्यात् ॥ १३ ॥ अर्थ-वीतराग जिनेन्द्र देव की प्रतिदिन पूजा करना, दिगम्बर साधुओं की सेवा सुश्रूषा करना, समस्त प्राणियों पर दया का भात्र रखना ( अर्थात "आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्" । अपने से विरुद्र व्यवहार दूसरों के साथ मत करो) जैसे प्रत्येक पुरुष को अपने प्राण प्रिय हैं जैसे ही दूसरे के प्राण समझो। ऐसा ज्ञात कर सम जीवों पर दया की परिणति रखना चाहिये ), पात्र सुपात्रों को श्रद्धा पूर्वक दान देना, गुणों में प्रीति करना (गुणचान् धर्मात्मा पुरुषों के अवलोकन मात्र से ही हृदय में वर्ष की लहरी प्लावित हो जाय या बह छठे ऐसा हर्ष प्राट करना ), जैन शाखों का सुनना अथवा शास्त्रों का पठन पाठन मनन आदि भभ्यास करना, ये मनुष्य-जन्म रूपी वृक्ष के फल हैं। इन घटकों के भाचरण करने से ही मनुष्य जन्म की शोभा-शोभाजनक है । मनुष्य जन्म धारण करके यदि उपरोक्त षटकर्मों का पालन जीवन में नहीं किया तो मनुष्य पर्याय पाना इस प्रकार निष्फल है जैसे कि ऊपर भूमि में बीज वपन करना ( बोना ) व्यर्थ है अथवा पाषाण पर कमलों का वन उगाने के समान विफल है । इसलिये प्रतिदिन प्रत्येक गृहस्य का कर्तव्य है कि परस्पर विरोध रहित इन षट्कों के भाचरण से अपने जीवन-विटप को हरा भरा बनाये रखें। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली शिखरिणीछन्दः त्रिसंध्यं देवार्चा विरचय चयं प्रापय यशः । श्रियः पात्रे वापं जनय नयमार्ग नय मनः ।। स्मरकोधाधारीन्दलय कलय प्राणिषु दयां । जिनोक्तं सिद्धान्तं शृणु घृणु जवान्मुक्तिकमलां ।।९४|| व्याख्या-त्रिसन्ध्यं त्रिकाले प्रभाते मध्याहे सायं च देवा श्रीधीतरागपूजा विरचय कुरु । पुनः यशः कीर्तिचयं वृद्धि प्रापय । प्रियो लक्ष्म्याः पात्रे सुपात्रे वापं जनः । पुनमनः वित्त मयमार्ग न्यायमार्ग प्रति नय। पुनः स्मरकोधाधारीन् कामक्रोधमानमायालोभापीन् परीन् शत्रून् दलय खंडय । पुनः प्राणिषु जीवेषु दयां कलय कुरु । पुनः जिनोक्त अहरप्रणीतं सिद्धान्तं सूत्र' शृणु । एतानि कुत्या जवात् बेगान मुक्तिकमल शिवश्रियं घृणु वरय || ६४ ॥ अर्थ-हे भव्य ! प्रातःकाळ मध्याह्नकाल और सायंकाल इन तीन कालों में वीतरागदेव की पूजा करो, यशसमूह [ कीर्ति को ] प्राप्त करो, पात्रों को दान देकर लक्ष्मी का बीज बोयो, मन को न्यायमार्ग में लगाओ, कामक्रोधादि बैरियों को विध्वंस करो, सब प्राणियों पर दया करो, वीतराग देवका कहा हुआ सिद्धांत सुनो और शीघ्र ही मुक्ति रूपी लक्ष्मी का वरण करो। भावार्थ- आचार्य उपदेश देते हैं कि हे माई । अनन्त काल से कठिनता से प्राप्त किये गये इस मनुष्य भत्र को पाकर ऊपर कहे गये कार्यों को करो ताकि मोक्ष लक्ष्मी तुम्हें शीघ्र ही प्राप्त हो। लि Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ सूक्तिमुक्तावली शार्दूलविक्रीडित छन्दः कृत्वार्हस्पदपूजनं यतिजनं नत्वा विदित्वागमं । fear inमधर्मकर्मठधियां पात्रेषु दत्वा धनं ॥ हित्वा गत्वा पद्धतिमुतमकमजुषां जित्वान्तरपरिवर्ज । पञ्चनमस्त्रियां कुरु करक्रोडस्थमिष्टं सुखं ॥९५॥ व्याख्या - भो श्राद्ध ! एतानि कृत्वा इष्ट वांछितं सुखं कर फोहरवं हस्तोत्संग करप्राप्यं कुरु । किं कृत्वा अर्हत्पदपूजनं वीतरागधरणपूजां कृत्वां । पुनर्वतिजनं साधुजनं नत्वा पुनरागमं सिद्धान्तं विदित्वा शात्वा श्रश्वा । पुनः अधर्मकर्मठधियां पापासतबुद्धीनां संग संसर्गं त्यक्त्वा परित्यज्य | पुनः पात्रेषु निजं धनं वित्त दत्वा । पुनः उत्तमक्रमजुषां उत्तम मार्ग से विनां पद्धतिं मार्ग प्रति गत्वा अनुश्रिस्य आंतरारित्रजं अंतरंगारिषड्वर्ग आभ्यन्तरं वैरिसमूहं जित्वा । पुनः पंचनमस्तियां नमस्कार मंत्र स्मृत्वा ध्यात्वा इष्टसुखं करप्राप्यं कुरु विधेहि ॥ ६५ ॥ अर्थ - हे भव्यात्मन् ! अरिहन्त देव के चरण कमलों की पूजा करके, आचार्य उपाध्याय साधुजनों को नमस्कार करके, जिनभाषित शास्त्रों को जान करके, निरम्बर अधर्म कार्य में रत रहने बाले दुष्ट पुरुषों की संगति छोड़ करके, पात्रों में दान देकर उत्तम आचरण के धारी सत्पुरुषों के मार्ग का अनुकरण करके, अन्तरङ्ग के रागद्वेष कामकोधावि शत्रुओं को जीत करके और 'गमो अरहंताराम्' इत्यादि पंच नमस्कार मन्त्र का जाप करके इष्ठ सुख मोक्ष के सुख को अपने हस्त के मध्य प्राप्त करो। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली हरिणी छन्दः प्रसरति यथा कीर्तिर्दिक्षु क्षपाकरसीदरा5म्युदयजननी याति स्फीर्ति यथा गुणसंततिः । कलयति यथा वृद्धिं धर्मः कुकर्महतिक्षमः । कुशलसुलभे न्याये कार्य तथा पथि वर्तनं ॥ ९६ || व्याख्या - न्याये न्यायोपपन्ने पथि मार्गे तथा प्रवर्तनं कार्यं प्रवर्त्तिः कार्या यथा चतुर्षु दिक्षु क्षपाकर सोदरा चन्द्रकिरणवदुज्ज्वला कीर्तिः प्रसरति कुरति विस्तरवि । पुनर्यथा अभ्युदयजननी उदयकारिका गुण संततिः गुणश्र णिः स्फीतिं याति विस्तारं व्रजति । पुनर्यथा कुकर्महतो पापहनने क्षमः समर्थो घर्मो वृद्धिं कलयति वृद्धिं प्राप्नोति । तथा न्याये पथि न्यायमार्गे प्रवर्तनं कार्यं । कथंभूते न्याये पथि कुशलैश्चतुरपुरुषैः सुलभः सुप्रापः सुखेन लभ्यस्तस्मिन् ॥ ३६ ॥ अर्थ - हे भव्य पुरुष ! जैसे चन्द्रमा की चांदनी के समान निर्मल कीर्ति दशों दिशाओं में फैले, जैसे स्वर्गादि सुखप्रद गुणों के समूह स्कुरायमान हों, और जैसे खोटे कर्मों का नाश करने में समर्थ धर्म वृद्धि को प्राप्त हो इस प्रकार कल्याण है सुलभ जिसमें, ऐसे न्याय मार्ग में प्रवर्तन करना चाहिये । मात्रार्थ - प्रत्येक पुरुष को ऐसे न्याय मार्ग का अनुसर करना चाहिये जिससे दशों दिशाओं में उसकी धवल कीर्ति फैले, दोष सन्तति दूर होकर आत्मा में सम्यक्त्व आदि गुण प्रगट हों, धर्मकी वृद्धि एवं प्रभावना प्रगट हो। ऐसा आचार्य श्री का उपदेश है जिसे पालन करना एवं अपना जीवन तद्रूप बनाना मनुष्य मात्र का कर्तव्य है । १२७ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ सूक्तिमुक्तावली शिखरिणी छन्दः करे श्लाघ्यत्यागः शिरसि गुरुपादप्रणमनं । सुखे सत्या वाणी श्रुतमधिगतं च श्रवणयोः ।। हृदि स्वच्छा वृवि विजय भुजयोः पौरुषमहो । विनाप्यैश्वर्येण प्रकृतिमहतां मंडनमिदं ॥ ९७॥ व्याख्या - अहो आश्चर्ये प्रकृतिमहतां स्वभावेनोत्तमानां पसां ऐश्वर्येण साम्राज्येन विनापि इवं मंडनं भक्ति इदमिति किं । करे इस्ते स्यागो दानं श्लाघ्यो मंडनं न कंकणादिः । पुनः शिरसि गुरूणां पादयोश्चरणयोः प्रणमनं नमस्कार करणमेव मंडनं न मुकुटतिलकादीनि । मुझे सत्या वारयेत्र मंहनं न साम्बूलादि । श्रवणयोः कर्णयोः अधिगतं पठितं श्रतं शास्त्रमेव मंडनं न कुंडलादि । हृदि हृदये स्वच्छा निर्मला वृत्ति व्र्व्यापार एवं मंडनं न हारमालादिः । भुजयोः बाह्रोविजयि जयनशीलं पौरुषं पराक्रमो धर्मविषये यदूबलं तदेव मंडनं न केयूरादिः । महतां पुंसां धनं विनापीदमेव मंडनं ॥१७॥ अर्थ- हाथों में प्रशंसनीय दान, मस्तक में निर्मन्थ गुरुओं के चरणकमल को नमस्कार, मुख में सत्य वचन, कर्णों में प्राप्स हुआ शास्त्र ज्ञान, हृदय में निर्मल विचार और भुजाओं में सबको विजय करने वाला पुरुषार्थ, अहो बड़ा आश्चर्य है कि सज्जन पुरुषों का यह भूषण ऐश्वर्यं बिना ही होता है । भावार्थ- सध्जन पुरुष स्वभाव से ही अपने हाथों से दान देते हैं । दिगम्बर निन्य गुरुओं के चरणारविन्द को विनय पूर्वक मस्तक से नमस्कार करते हैं, मुख से सदा सत्य भाषण करते हैं, Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्ती + कर्णों से पवित्र जैनसिद्धान्त के शास्त्रों का श्रवण करते हैं, जिसके हृदय में सर्वदा निर्मल विचार धारा प्रवाहित रहती है और जिनकी भुजाओं में सविषयी पुरुषा विद्यमान रहता है । ऊपर कहे गये यही कार्य सज्जन पुरुषों के आभूषण हैं। अन्य सोने चांदी के आभूषण तो कहने मात्र के हैं उनसे मनुष्य जन्म की शोभा नहीं है। और न उनसे आत्मा का उत्थान होता है। अतः सज्जन महा पुरुषों के उपरोक गुग उपादेय हैं, उन्हीं से आत्माओं का कल्याण हुआ है और होगा । शिखरिणी छन्दः भवारण्यं मुक्त्वा यदि जिगमिषुर्मुक्तिनगरौं । तदान मा कार्षी विषयविषवृक्षेषु वसतिं ॥ यतश्छायाप्येषां प्रथयति महामोद्दमचिरादयं जन्तुर्यस्मात्पदमपि न गन्तुं प्रभवति ||१८|| Ap व्याख्या - भो श्राद्ध | यदि चेद् भवारण्यं संसाररूपां अव मुक्त्वा त्यक्त्रा मुक्तिनगरी सिद्धिपुरीं प्रति जिगमिषुरसि गंतुकामोसि तदानीं त्वं विषयविषवृक्षेषु विषया एव विषवृक्षास्तेषु वसतिं निवासं मा कार्षी र्मा व्यषाः कुतः यस्मात् कारणात् एषां विषयविषवृक्षाणां छायापि महामोक्षं महदज्ञानं प्रथयति विस्तारयति । यस्मान्महामोद्दादयं अन्तुः प्राणो अचिराद् वेगात पदमपि गतुं एकं पारमपि चलितुं न शक्नोति किन्तु स्थावरत्वं प्राप्नोति ॥ ६८ ॥ अर्थ - हे भव्य ! यदि तू संसार रूप भयंकर वन को छोड़कर मुक्तिरूपी नगरी के प्रति गमन करने की इच्छा करता है तो इंद्रियों Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० सूक्तिमुक्तावली के विषय रूपी विषवृक्षों पर निवास मत कर। क्योंकि इन विषय रूपी वृक्षों की छाया भी शीघ्र ही महामोह को उत्पन्न कर देती है। जिस महान मोहमें फँसकर प्राणी एक पैर भी आगे नहीं चल सकता । भावार्थ- इन्द्रियों के विषय विष वृक्षों के समान हैं। इनको सेवन करने वाला या इन विषयों में अन्धा हुआ [ अनुरक्त हुआ ] प्राणी कदापि मोक्ष पद प्राप्त नहीं कर सकता। इसलिये मुमुक्षु [ मोक्ष प्राप्त करने के इच्छुक ] भव्य पुरुष को कदापि इन विषय वासनाओं का सेवन [संसर्ग ] नहीं करना चाहिये किन्तु इन विषयों को किम्पाक [ किन्दुरी ] फळ समान जान कर त्याग करने का हो लक्ष्य रखना चाहिये। और उस लक्ष्यको सिद्धि में अनेकों संकटों का सामना भी करना पड़े तो भी उसकी परवाह न करके सतत प्रयत्नशील रहना चाहिये । तथा आत्म निर्भर होकर एवं सहिष्णु बन कर उन संकटों - आपत्तियों को समता के साथ सहन करना चाहिये । जब तक इस मार्ग का अनुसरण नहीं किया जायगा तब तक कदापि कोई भी पुरुष अपने लक्ष्य की सिद्धि तक नहीं पहुँच सकेगा यह एक निश्चित सिद्धान्त है। इसी में प्रत्येक प्राणी का कल्याया निहित है । आधुनिक भौतिकवाद विचार के लोग भले ही इस मुमुक्षु को बुरा बतायें, उसकी निन्दा करें, उसे कायर कहें या मार्ग शिथिलता के अनेकों प्रलोभन प्रदर्शन करें परन्तु उस दूषित वातावरण की ओर दृष्टिपात न करके अपने लक्ष्य की सिद्धि में भागे बढ़ता ही चला बाधे । Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली. अमितताका भाडार्य अमितानि ने कितना उत्तम प्रतिपादन किया है : मुर्खापवादासनेन धर्म, मुश्चन्ति सन्तो न धुधार्चनीयम । ततो हि दोषः परमाणुमात्रो, धर्मभ्युदासे गिरिराजतुल्यम् ॥ भाशय यह है कि अनानियों द्वारा अपवाद किये जाने पर पर्व पीड़ित किये जाने पर भी सज्जन मुमुचु पुरुष अपने लक्ष्यभूत धर्म को कभी नहीं छोड़ते क्योंकि वर्तमान समयका दुःख तो परमाणु मात्र है जो कि नहीं के बराबर है किन्तु परके अपवादादि से धर्म को छोड देने में सुमेरु पर्वत तुल्य नक निगोद के दुःखों को भोगना पड़ता है जिसमें असंख्यात अनन्त भव दुःखों में ही व्यतीत होते हैं। इसलिये धर्म मार्ग में सदा कटिबद्ध हद रहना चाहिये । और भी अभिवगति आचार्य ने कहा है : सर्षेऽपि भावाः सुखकारिणोऽमी। ___ भवन्ति धर्मेण विना न पुसाम ॥ तिष्ठन्ति वृक्षाः फलपुष्पयुक्ताः । कार्य कियन्तं खलु मूलहीनाः ॥ संसार में जितने पदार्थ सुखकर प्रतीत होते हैं या सुखदाई देले जाते हैं इन सब का एक मात्र कारण धर्म सेवन ही है, धर्म मेवन के फल से ही सष मुख के साधन सुलभता से उपलब्ध होते हैं एवं सहा.सुखकर सामग्री का समागम बना रहता है। बिना Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली धर्म पालन के पापरूप प्रवृत्ति से कोई भी पदार्थ सुखकर सिद्ध नहीं हो सकता जैसे कि फल फूल पत्ते वाले वृक्ष जिनकी कि जो काट वी गई वे कितने समय तक हरे भरे रह सकते हैं। किन्तु किंचित्काल के पश्चात ही वे मुरझाकर शोभाविहीन विरूप प्रतीत होने लग जाते हैं । इसी प्रकार धर्मभना रहित प्राणी के लिये कोई भी पदार्थ सुखकर नहीं हो सकता। इसके लिये तो सारा संसार शून्य अन्धकारमय हो जाता है। इसलिए जो भव्य पुरुष धर्म की रक्षा करते हैं धर्म को भद्धापूर्शक धारण करते हैं । सर्वत्र उनकी रक्षा करने वाले सैकड़ों हजारों साधन सुलभता से अनायास हो आकर प्राप्त हो जाते हैं । अत: धर्म से बढ़ कर कोई अष्ध पदार्थ . सेवा योग्य नहीं है, धर्म ही जीवन का प्रारणधार है, सर्वाधार है और सब असार है || इन्द्रवजाचन्दः सोमप्रभाचार्यप्रभा व लोके । वस्तुप्रकाशं कुरुते यथाशु ।। तथायमुच्चैरुपदेशलेशः, शुभोत्सवानगुणांस्तनोति ।। ९९ ॥ व्याख्या-न्यथा येनप्रकारेण लोके भुवने सोमप्रभा, चन्द्रप्रमा, आचार्य प्रमा, आचार्य प्रतिमा च आशु शीघ्र वस्तुप्रकाशं घटपटादिपदार्थप्रकाशं कुरुते विदधाति तथा वेन प्रकारेण अयं श्रथमाणः उपदेशलेश सिमुक्काबलिरूपः समुपदेशः पय: उत्कृष्टान् शुभोत्सव Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली १३३ ज्ञानगुणान कल्याणप्रद ज्ञानगुणान् तनोति विस्तारयति अत्र श्लेषेण प्रन्यकर्त्रा 'सोमप्रभाचार्य' इति स्वनामापि सूचितम् ॥ ६३ ॥ इति सामान्यप्रक्रमः अर्थ - जिस प्रकार लोक में चन्द्रमा की प्रभा और आचार्यो की प्रभा [ प्रतिभा ] शीघ्र ही वस्तुओं [ पदार्थों ] का ज्ञान कराती है उसी प्रकार यह आदर्श स्वरूप किश्चित् आचार्य का उपदेश भी अनेकों शुभ कल्याण तथा ज्ञानादि गुणों का विस्तार करनेवाला है । अतः भव्यात्माओं का कर्तव्य है कि श्रद्धापूर्वक इस उपदेश को हृदयङ्गम करें | अथ प्रशस्तिमाइ मालिनी छन्दः अमजद जित देवाचार्यपद्धोदयाद्रि - | धुमणि विजयसिंहाचार्यपादारविंदे ॥ मधुकर समतां यस्तेन सोमप्रमेण । व्यरचि मुनिपराशा सूक्तिमुक्तावलीयं ॥ १०० ॥ व्याख्या - वेन सोमप्रभेण मुनिपराज्ञा मुनिपा: मुनिश्रेष्श स्तेषां राजा सूरीश्वरस्तेन मुनिपराजा सूरीश्वरेण इयं सूक्तिमुकाबली सूक्तान्येव सुभाषितान्येव शोभनप्रस्तावकाव्यान्येव मुक्ता मौक्तिकानि मुक्ताफलानि तेषां आवली से रियरचि रचिता तेन केन यः सोमप्रभः अजितदेवनामाचार्यस्य पट्ट एवं उदयाद्रिरुदयाचलः तत्र मणिः सूर्यसमानः विजयसिंहाचार्यस्तस्य पादारविंदे चरणकमले Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ सूक्तिमुक्तावली मधुकरसमता भ्रमरतुल्यतां श्रमजत् अप्रापत । पूर्व अजितदेवाचार्यस्तत्पट्ट विजयसिंहाचार्यास्तस्पट्टे सोमप्रभाचाचीरतेनेयं सिंदूरकरनामसूक्तिमुक्तावली व्यरचि रुता ॥ १० ॥ खोमप्रभसूरिणा विरचिता सूक्तिमुक्तावली समाप्ता । अर्थ-जो भजितदेव आचार्य के पट्टरूपी नदयाचल पर सूर्य समान विजयसिंह भाचार्य के चरण रूपी कमलों में भ्रमर की समता करता था ( अर्थात चरण कमलों का सेवक था ) उस सोमप्रभ आचार्य ने यह सूक्तिमुक्तावली ( उत्तम वचन रूप मोतियों की माला ) नामक ग्रन्थ रचा। नोट- इति श्रीसिंदूरप्रकराख्यस्य व्याख्यायां वर्षकीतिभिः सूरिभि विहितायां सामाऊमोऽजगि समाप्तोऽयं प्रन्थः । १. प्रत्येक प्रकरण की समाप्ति पर यह पुष्पिका वाक्य है। १०६ पृष्टः का यह ८१ वाँ श्लोक है• पाने 'धर्मनिधन्धनं तदितरे, श्रेष्ठ दयाल्यापकं । मित्रे प्रीतिविवर्धन रिपुजने, वैरापहारक्षम ।। भूत्ये भक्तिमरावई नरपती सन्मानसंपादकं । भट्टादौ सुयशस्कर वितरणं, न क्वाप्यहो निष्फलं ॥८॥ इति दान प्रक्रमः १. धर्मस्य कारणं २. अपात्रे ३, दानं विहितं इत्त सत् । Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली १३५ श्रीसकलकोाचार्यविरचिता पञ्चपरमेष्ठिस्तुतिः नाभयादिजिनेश्वरान् मुनिनुत्तान् नाकाधिपः पूजितान् । मन्तातीतगुणार्णवान् सुविमलान विश्वप्रकाशात्मकान ।। संसाराम्बुधितारकान् भवभृतां बन्धुपमान् स्वामिनः । वन्दे तद्गुणहेतवेऽत्र शिरसा मुक्स्यज्ञानारागिणः ॥ १ ॥ अखिलभुवनसेन्यान् सर्वलोकामभूस्थान् । निरुपमसुखयुक्तांस्त्यक्तसंसारदुःखाम् ।। वरवसुगुणभूषान् ज्ञानदेहान् विशुद्धय । चलविभवपूर्णान् संस्तु सिद्धिनायान् ॥२॥ पश्चाचारमपारसौख्यसदनं थे प्राचरन्ति स्वयं । शिष्याणां मुनिनायकाः शिवकरा आचारयन्स्येव । तेषां पानसरोरुहा, नघाहरा-नाचारशुद्धच सका। सूरीणां प्रणमामि भक्तिसहितो मुधोऽघशान्त्य मुदा ॥ ३ ॥ ये पठन्ति सकलागममेव, पाठयन्ति शिवदं वरशिष्यान् । ते स्तुता मम दिशन्तु गुणोधान, पाठकाः स्वकृपयात्मभारच ||४|| ये साघयन्ति चरणं सुखरत्नवाधि । हरज्ञानशुद्धमनिशं विविधं च योग | आतापनादिजमपीइ विशन्तु ते मे।। श्रीसाधयोऽत्र नमिताः स्वगुणान् गरिष्टान ||५|| अन्तिस्त्रिजगबुधार्चितपदाः सन्मुक्तिमुक्तिप्रदाः । सिद्धा येऽगुणाङ्किता अवपुषो ये सूरयोऽध्यापका: पश्चाचारपरायणाश्च निपुणाः भीसाधयो नि:स्पृहाः ते वन्द्याश्च मयाऽखिलानिजगुणान् सर्वान् प्रद्यर्मम ॥६॥ इति पञ्चगुरुस्तुतिः Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ सूक्तिमुक्तावली १०८ श्रीआचार्यकल्प श्रीश्रु तसागरस्तुतिः सिद्धान्तवेदी श्रुतपारगो यः, वामी पटुः सतत्रयरत्नधारो। अकिञ्चन: शीलगुणाकरश्च, नमाम्यहं श्रीश्रुतसागरं तं ॥१॥ स्वाध्यायनिष्टो यमिना वरिष्ठः श्रेष्ठो विरागी महता महिः । ज्येष्ठो मुनीशो गुणिना गरिष्टः ईडे सदा तं महिमाविशिष्ट ॥२॥ स्यात्वा सुपुत्रादि कुटुम्बिवर्गान् धर्मानुकूला रमणीमनिन्द्यां। भीवीरसिन्धु गुरुमाप मोदाद् दीक्षां श्रितो जातजिनेन्द्ररूपां ॥३॥ श्वेताम्बरे धर्मकुले सुजन्म दैगम्बरे धर्मपथे घढीयान् । दिग्वस्त्रभृन्मोक्षपयानुरागी वन्दे मुनीन्द्र श्रुतसागरं तं ।। ४ ॥ नित्यं हि सूरेग्नुकूलवृत्ति कुर्वस्तथासौ खलु सूरिकल्पः । स्यागी सदाभ्यास्मिकशोधनिष्ठः जीवाइसी वर्षशतं पृथिव्यां ॥५॥ भव्याजनीनां स विभास्वरः सन् सत्ता ताम्भोनिधिपूर्णचन्दः। विवादिनांगर्वविखण्डनाय स्याद्वादधाम्बप्रयुत्तः स्तुवे तं ॥ ६ ॥ अध्यात्ममूर्तिः किल संयमी च यः संशयध्वान्तहरो विवस्वान् । योगी सदानियतत्वविच्च स्तुवेऽपि तं सद्व्यवहारविज्ञ॥ ७॥ नयाभिर्वाग्भिरतीबद: श्चर्चासमायां खलु लब्धकीर्तिः । युक्त्या महत्या एफुटयत्यशेषं तवं भूताब्धि तमहं प्रवन्दे ॥ ८॥ वात्सल्यमूर्तिश्च कृपापयोधिः संघे गरीयान् किल साधुवर्गे । साध्वीश्च श्राद्धान मूदुमिष्टवाक्यः सन्तोषयंस्तं शिरसा नमामि ॥६॥ नमोस्तु ते धर्मघुरधराय नमोस्तु ते भव्याहिसंकराय । नमोस्तु ते बोधिसमाधिभाजे नमोस्तु ते साधुगणार्चिताय ॥ १० ॥ नमोस्तु मुनिवर्य 1 ते सकलतापहचंद्रमा । नमोस्तु गुरुवासलत्व गुणरत्ननिधये च ते ॥ क्रियादि जगतां शिवं मधुरवाफसुधां वर्षयन् । पुनातु भविनां मनः शुधिचरित्रपूतो भवान् ।। मया संस्तूयते नित्यं अतसिन्धुर्मुनीश्वरः। कुर्याच्छिवं सुभन्याय मह्यं च जगतेऽपि च ॥ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० श्लोकानामकाराद्यनुक्रमः [ अ ] भदसं नादत्ते अपारे सारे अमजद जितदेव अवद्यमुक्ते पथि असत्यम प्रस्थय आत्मानं कुपथेन मायुर्दीर्घतरं वपुः औविष्याचरणं कदाचिन्नातङ्कः करे श्लाघ्यत्यागः कलहकलभविन्ध्यः कान्तारं न यथेतरो कालुष्यं जनयन् किं ध्यानेन भवत्य क्रीडाभूः सुकृतस्त्र कुशलजननबन्ध्यां कृत्वात्पदपूजनं धनं दचं विश्वं चण्डानिलः स्फुरित [ बा ] [ श्रौ ] [क] [ष] [4] श्लोक ३४ १०० १३ ३१ ६५ २८ ५१ ११ ४२ ८३ ४१ १६ २५ 3 ६५ ६५ पृष्ठ E rr १३३ २० ४३ 5 ३३ १५ १२८ ५६ ११० ** २४ ३६ ६३ १२६ ११६ ११५ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १.३८ रलोक पृष्ठ चारित्र चितुते तनोति जातः कल्पतरू जिनेन्द्रपूजा गुरु १२३ १०६ ४४ तममिलषति तस्यासन्ना रति तस्याग्निर्जल मणवः ते धत्तरतरु वन्ति तोयत्यग्निरपि त्रिसंध्यं देवा! त्रिवर्ग संसाधन दत्तस्तेन जगत्य दायादाः स्पृहयन्ति दारिद्रयन तमोक्षते [ ] धत्ता मौनमगार धर्मध्वंस घुरी धर्मध्वस्तयो धमै जागरयस्य 10] न देषं नादेव नवते परदूषणं Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमस्या देवाना निम्नं गच्छति निम्नगेव निःशेषधर्मवन दाह नीचस्यापि चिरं नौरागे सरूणी परज नमनः पीडा पापं लुम्पत्ति दुर्गविं पात्रे धर्म निबन्धनं पिता माता भ्राता पीयूष विषवज्ज प्रत्यर्थी प्रशमस्य प्रतिष्यं यन्निशं प्रसरति यथा कीर्ति [फ फलति कळितश्रेयः [भ] मवारण्यं मुक्त्वा यदि भक्ति तीर्थ करे गुरौ भोगान कृष्णभुजङ्ग [म मानुष्यं विफलं वदन्ति मायामविश्वास मुग्धप्रतारख पर। मुष्णाति यः कृत Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलं मोहविषमस्व यः संसार निरास यः प्राप्य दुष्प्राप्य यः पुष्पैर्जिनमर्चति यस्पूर्जितकर्मशैल यमरः फलमहदादि यदि प्रावा तोये यदशुभरजः पदुर्गामटवी निर्तित कीर्ति यो यस्माद् यस्मादाविर्भवति यस्माद्विनपरम्परा यो धर्म दइति यो मिनं मधुनो रत्नानामिव रोहण लब्धु ं बुद्धिकला लक्ष्मीः कामयते लक्ष्मी एतं स्वयम् लक्ष्मीः सर्पति वरं विभववन्ध्यता • [ य ] [<] [ 2 ] [[ ] श्लोक * ८ २२ ४ १२ ८१ २६ ५ ३५ ३० ४६ ४ ** ६७ ॐ २३ ७६ ६३ २१ पृष्ठ ७५ ३२ १३ १०० * ३. ११८ ७४ ४ R ६५ ta ૧ ६० ३१ ८६ १०५ ३४ #t ८१ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ť वरं चिमः पाणिः यहि स्तृप्यति विलयति कुवोध विधाय मायां विविध विवेकवनसारिण विश्वासायतनं व्याघ्र व्याल जलानला शमालानं भजत् स कमलवनमग्नेः सर्वं ज्ञीप्स्यति सन्तः सन्तु मम प्रसन्न सन्तापं तनुते सन्तोषरथूलमूलः सिन्दुर प्रकरस्तपः सोमप्रभाचार्यप्रभा सौजन्यमेव विदधाति स्वर्गस्तस्य गृहान्नणं स्वस्याले पिि इरति कुमतिं भिन्दे हरति कुलकलङ्क हिमति महिमाम्भोजे १४१ ] [ स ] [<] स्टोक * 3 20 ६१ १४ ५४ ८७ ३५ ५० ཝ * २५ ८६ २ ४ ६४ ₹ 商家 ६२ {. Ne ६६ સ ६८ पूछ ७६ ५६ * ७१ ११५ ४१ ५१ ६६ ३६ re ३ ६२ ??? १३२ 5. १५ ६५ ५२ २०७ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ टीकागतश्लोकानुक्रमणिका श्लोक अङ्कस्थाने भवेच्छीलं यिनो धनमप्राप्य कलौ काले चले चित्त किंजपिणेत बहुणा कुरङ्गमातङ्ग गवाशनानां स वचा क्षितिगतमिव चोल्लय पासय जिने भक्ति जिने णामजिणा जिणगामा पंसणभट्टो भट्टा वेषेऽपि योवववः . धर्मार्थकाममोक्षाण भोगे रोगभयं माताप्येका पिताप्येकः मूर्खापवादासनेन शुचिर्भूमिगत सर्वेऽपि भावाः टीकाकतु: प्रशस्तिः तपोगणे नागपुरीयपूर्व श्रीचन्द्रकीाहपरिराजा । तेषां विनेयर्षभहर्षकीनिसूरीश्वरो वृचिमिमामकार्षीत् ।। १३१ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ पं० १ ८ १ ११ २ ११ २ ११ ३ १६ 4U W १७ १० १६ १० २१ १० २० १२ १ १२ ११ १२ २० १४ १४ १० १४ २० १६ १२ १६ १६ १६ १६ Co ** bvm my = २२ २१ ४ २३ १० २३ ११ १४३ शुद्ध पत्र अशुद्ध सद्गरूणां श्रीतून् ज्ञान प्रारभे यानव अथनर निद्रा ऐन्धभारं माचरतां का चरखएड माराधयतां श्रीघ श्रीधर्म द्वारे भक्ति भक्तिपूजाद्वार भव्यः कुर्वतां यो जिनपूजा पूजाविधिस्तुतिः अनेन यावदय सेवमानानां एवं पतन्तं शुद्ध सद्गुरूणां श्रोतृन ज्ञान प्रारम्भे यानया अथ पुनर्नर निद्रानेह एघभार माचरतां च काचख एड माराधयतांच श्री जिनमें श्री जिनधर्म द्वार भक्ति भतिद्वार भव्य ! कुर्वतां च पुनर्यस्तं श्री जिम जिनपूजा स्तुति: पूजा स्तुतिविधि तु आगमाज्ज्ञात्वा तेनैव यावदयं सेवमानानां सां एवंभूतो पतन्तं सन्वं Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 20 is * m पृष्ठ पं० २३ १४ २३ १८ ९५ ६ २४ २३ २६ २६ २६ २६ १० २६ ११ २६ १२ २६ १३ २६ १४ २६ १४ २६ १५ २६ १६ २६ १७ २६ १७ २६ १७ २६ १७ १६ t pha ६ १० २६ २७ १६ अशुद्ध भवम घ स्वज्यक गुरोः १४४ न. विलोकन्ते पुनः पुनः कुंगुरु पुनः पुन: पुनः पयति पुनः पुनः सचातुर्य हिलं सुखकार व अशुभ कारणं कुर्वतां श्रुतः शुद्ध अधर्म च सतां *RYK गुरोः शासनं भवनाशनं ससार परिभ्रमणधार तोयेनैकेन पुनः किं न विलोकन्ते अदेवं कुदेव पुनः किं न विलोकन्ते पुनः किं न विलोकन्ते कुगुरु पुनः किं न त्रिलोकन्ते पुनः किं न विलोकन्ते पुनः किं न विलोकन्ते पश्यन्ति पुनः किं न त्रिलोकन्ते पुनः किं न विलोकन्ते सुचातुर्यं हितं सुखं सुखकारणं च दुःखं दुःखकारण तवां कुर्वतां श्रतः किं विशिष्टः समयः ܀ दयारसमयः दया कृपा एव रसो गुण स्तेन निर्मितो यो स दयारसमयो दया गुण प्रधान इत्यर्थः Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ पं० २८ १० ३० १२ ३४ १२ ३५ १० अशुद्ध शुद्ध भाव भावं कुवत तली कारं कुर्वता धमत्य धर्मस्य मध्यामत मिथ्यामति ननोति पितमोति प्रणीतसिद्धान्त श्रीजिनप्रणीतसिद्धान्त आराघयतां तदाराध्यता इति भो भन्यप्राणिन् । इति च सता रममा रमसाद् उत्कंठ उरकण्ठया त जिन कृतः यस्मिन् तस्मिन् सत्वेधु सर्वसस्येषु मित्यर्थः मित्याइ क्लेशे पुनः कथंभूता त्रिदि- त्रिदिपावर्ग एव ओको वौकसः नि:णिः गृहं तस्य नि.अणिः सौपानपंक्तिः तदर्यात पुनः पुन यदि प्रसूयते तथा तथा उरगवत्रादमृतं सर्पमुखात् पीयूषमभिलपति स्वामिवं तथा स्वामित्वं स्लेश २२ उद्यते ३८ ३८ २२ ३ २१ प्रसुते Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ पंο ४. ११ ४२ ६ ४२ १३ ४५ ४६ २ ३ ય ५ S لن ५८ YE १३ ५६ १५ ६० २१ ६१ १ ६१ १ ६१ २ ६५ ६ ६५ १० ६६ २० ६६ २१ ६ ६७ अशुद्ध सर्वे r २१ १४६ पुनरसत्यवचनम्य तत् किं सत्यमेव वांच्छति शिकत्वादि दोर्गस्यैक सर्वांगस B ४८ ४८ रिचित कृतं ४५ १२ अदक्षं अदत्तं द्रव्यं } १० पुराला पुरार्गल ५२ ३८ वें श्लोक का अर्थ ३६ वें में ३६ वें का अर्थ २८ वें पर पढ़ ५५ १७ आविलव १३ विवितात्मनां अविलखं विविक्तमनां धनैरपि द्रव्यः सप्ताजियो सोबरोग्नेः चेतनस्य विना सह भोगशिले मोचित्य कष्ट्रारूप विक्षपन् विनयनय शुद्ध न्यायश्री रिणः विलम्पति स अथासत्यवचनस्य ततः किं सत्यमेव वचः वाच्छति श्चक्रित्यादि दौत्येक सर्वागांस धनैः द्रव्यैः सप्तार्चिषो सोदरो चैतन्यस्य विनाशने मौचित्य कटरुप विक्षिपन् विनयवन चनश्रेणिः विलुम्पति Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ पं. मुजहीते ७४ १८ ८१ १७ मसंगजो सुखान सुखान् सुखात मुनिहीते कर्षण क्षेत्रादि क्षेत्रादिकर्षणं राजघटान्तं गजघटान्तं सर्पति सपन्ति लिङ्गव लिङ्गत्वानपुसकर भरणीकाष्ट भारिण: कार्य चरितात्मना चरितार्जिता न तु न शेफाजाता शेफसंजाता गुणसङ्ग निगुणिसन शमदया शमदय: अल्पमेधाः अल्पमेषः तथा अतः वख्या व्याख्या तसदा तहि वं विचरतुं विचरितुं पुण्यं समावितुं समोहसे न कपमपि निर्गुणसङ्ग निगुणिसङ्गः निगुणसंगमः निगुणिसङ्गमः मम तस्य च पक्षिणः भई मुनिमिरानीतः सच नीतो गवाशन: विधिप्रागल्भ्य বিধিমা ८४ १६ =६ २१ ८ ६ २८ १२ ६ १५ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ 4 अशुद्ध पर कुमते कुपथे कुत्सितपथे 15 14 65 15 65 15 कुत्सितमते सुखे अन्धता अन्धता दचे धन्ते 103 26 184 4 खेदं श्रियः परिभवन संपदेष संसारहितो बन्धन विरतिरमणी देशविरति एवं मेघन्टात स्यात मुणग्रहण यज्ञः श्रियां परिभवो संपन्न संसाररहितो बन्धने विरति / सर्वदेशविरति 118 12 118 15 118 15 118 15 116 13 121 13 124 1 मेघसमूह * भवेत गुणग्रहणे यशश्चय साव चार प. पू. विन्य प्राय धाराका मत :.. सुविधा . .;..T:.