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सूक्तिमुक्तावली
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दान देते समय दातार के इतने विशुद्ध परिणाम होते हैं कि जिसकी तुला नहीं की जा सकती है. विशुद्ध परिणाम के कारण जिस जीव के कुगति बन्ध होकर परभव सम्बन्धी आयुका बन्ध यदि नहीं पड़ा है तो वह कुगति बन्धको छेव कर सुगति-बंध को कर लेता है। और तो क्या ? दान देने की अनुमोदना करने बाले भी उत्तम क्षेत्र में जाकर जन्म धारण करते हैं | देखिये जब राजा जंघ और रानी श्रीमती भक्ति पूर्वीक मुनियों को दान दे रहे थे उस समय सिंह, बैल, नेवला, बन्दर भारि पशु इस दान पात्र और दातार को सराहना कर रहे थे। दान देने के माहात्म्य से वे दोनों राजा रानी उत्तम भोग भूमि में उत्पन्न हुए और सराहना करने वाले वे पशु भी उसी उत्तम भोग भूमि के क्षेत्र में तिर्यच्च पर्याय में अवतरित हुये । कर्म भूमि के प्रारम्भ में राजा जंघ का जीव प्रथम तीकर श्री ऋषभनाथ हुये और रानी श्रीमती का जीव श्रेयान्स राजा हुये जो दान के प्रथम प्रवर्तक कहलाये इस प्रकार दान की महिमा अद्भुत है। गृहस्थावस्था में पट् कर्म [ असि, मसि कृषि, वाणिज्य, विद्या शिल्प ] द्वारा उपार्जित ओ पाप हैं वे दान के प्रभाव से नष्ट हो जाते हैं ऐसा दान तीन प्रकार के पात्रों में निरन्तर देना योग्य है।
शार्दूलविक्रीडित छन्दः
दारिद्रय' न तमीक्षते न भजते दौर्भाग्यमालम्बते । नाकीर्तिर्न पराभवोऽभिलषते न व्याधिरास्कन्दति || दैन्यं नाद्रियते दुनोति न दरः क्लिश्नन्ति नैवापदः । पात्रे यो वितरत्यनर्थदलनं दानं निदानं श्रियः ॥ ७८ ॥