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________________ ६८ सूक्तिमुक्तावली मनः प्राणस्पृशां प्राणिनां विनयं अभ्युत्थादिक असे यं नयति क: कमिव अह्निः सर्पो जीवितमिव यथा सर्पों जीवितं क्षयं नयति । पुनरंजसा वेगेन कीर्ति प्रोन्मूलयति कः कामिव मत्तगजो हस्ती कैरविण कमलिनीं प्रोन्मूलयति तद्वत् ॥ ५१ ॥ अर्थ - तीव्र पवन जैसे बादलों को नष्ट कर देता है अर्थात् घायु के वेग से जिस प्रकार सब बादल विघट जाते हैं उसी प्रकार मान कषाय के कारण मनुष्य का उचित आचार विचार नष्ट हो जाता है, जीवों के जीवन को जैसे सांप नष्ट कर देता है वैसे ही मान विनयगुण को नष्ट कर देता है ( अहंकारी के विनय भाव कदापि नहीं होता ) कमलिनी को जैसे हाथी खाद ढालता है वैसे कीर्ति को शीघ्र ही नष्ट कर देता है-मान के कारण कीर्ति नष्ट हो जाती है, और उपकारी के उपकार को जैसे नीच पुरुष नष्ट कर देता है । अर्थात् किये हुये उपकार को भूलकर नीच मनुष्य उपकार करने वाले का अहित कर डालता है उसी प्रकार मान कषाय मनुष्यों के धर्म, अर्थ, काम इन तीनों पदार्थों ( पुरुषार्थों ) का नाश कर देता है ॥ ५१ ॥ भूयश्वाह वसन्ततिलका छन्दः मुष्णाति यः कृतसमस्तसमीहितार्थं । विनयजीवितमङ्गभाजां ॥ संजीवनं जात्यादिमानविषजं विषमं विकारं । तूं मार्दवामृतरसेन नयस्व शांतिम् ॥ ५२ ॥
SR No.090482
Book TitleSuktimuktavali
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorAjitsagarsuri
PublisherShanti Vir Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages155
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size2 MB
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