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________________ सूक्तिमुक्तावली धर्म पालन के पापरूप प्रवृत्ति से कोई भी पदार्थ सुखकर सिद्ध नहीं हो सकता जैसे कि फल फूल पत्ते वाले वृक्ष जिनकी कि जो काट वी गई वे कितने समय तक हरे भरे रह सकते हैं। किन्तु किंचित्काल के पश्चात ही वे मुरझाकर शोभाविहीन विरूप प्रतीत होने लग जाते हैं । इसी प्रकार धर्मभना रहित प्राणी के लिये कोई भी पदार्थ सुखकर नहीं हो सकता। इसके लिये तो सारा संसार शून्य अन्धकारमय हो जाता है। इसलिए जो भव्य पुरुष धर्म की रक्षा करते हैं धर्म को भद्धापूर्शक धारण करते हैं । सर्वत्र उनकी रक्षा करने वाले सैकड़ों हजारों साधन सुलभता से अनायास हो आकर प्राप्त हो जाते हैं । अत: धर्म से बढ़ कर कोई अष्ध पदार्थ . सेवा योग्य नहीं है, धर्म ही जीवन का प्रारणधार है, सर्वाधार है और सब असार है || इन्द्रवजाचन्दः सोमप्रभाचार्यप्रभा व लोके । वस्तुप्रकाशं कुरुते यथाशु ।। तथायमुच्चैरुपदेशलेशः, शुभोत्सवानगुणांस्तनोति ।। ९९ ॥ व्याख्या-न्यथा येनप्रकारेण लोके भुवने सोमप्रभा, चन्द्रप्रमा, आचार्य प्रमा, आचार्य प्रतिमा च आशु शीघ्र वस्तुप्रकाशं घटपटादिपदार्थप्रकाशं कुरुते विदधाति तथा वेन प्रकारेण अयं श्रथमाणः उपदेशलेश सिमुक्काबलिरूपः समुपदेशः पय: उत्कृष्टान् शुभोत्सव
SR No.090482
Book TitleSuktimuktavali
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorAjitsagarsuri
PublisherShanti Vir Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages155
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size2 MB
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