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________________ सूक्तिमुक्तावली १३३ ज्ञानगुणान कल्याणप्रद ज्ञानगुणान् तनोति विस्तारयति अत्र श्लेषेण प्रन्यकर्त्रा 'सोमप्रभाचार्य' इति स्वनामापि सूचितम् ॥ ६३ ॥ इति सामान्यप्रक्रमः अर्थ - जिस प्रकार लोक में चन्द्रमा की प्रभा और आचार्यो की प्रभा [ प्रतिभा ] शीघ्र ही वस्तुओं [ पदार्थों ] का ज्ञान कराती है उसी प्रकार यह आदर्श स्वरूप किश्चित् आचार्य का उपदेश भी अनेकों शुभ कल्याण तथा ज्ञानादि गुणों का विस्तार करनेवाला है । अतः भव्यात्माओं का कर्तव्य है कि श्रद्धापूर्वक इस उपदेश को हृदयङ्गम करें | अथ प्रशस्तिमाइ मालिनी छन्दः अमजद जित देवाचार्यपद्धोदयाद्रि - | धुमणि विजयसिंहाचार्यपादारविंदे ॥ मधुकर समतां यस्तेन सोमप्रमेण । व्यरचि मुनिपराशा सूक्तिमुक्तावलीयं ॥ १०० ॥ व्याख्या - वेन सोमप्रभेण मुनिपराज्ञा मुनिपा: मुनिश्रेष्श स्तेषां राजा सूरीश्वरस्तेन मुनिपराजा सूरीश्वरेण इयं सूक्तिमुकाबली सूक्तान्येव सुभाषितान्येव शोभनप्रस्तावकाव्यान्येव मुक्ता मौक्तिकानि मुक्ताफलानि तेषां आवली से रियरचि रचिता तेन केन यः सोमप्रभः अजितदेवनामाचार्यस्य पट्ट एवं उदयाद्रिरुदयाचलः तत्र मणिः सूर्यसमानः विजयसिंहाचार्यस्तस्य पादारविंदे चरणकमले
SR No.090482
Book TitleSuktimuktavali
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorAjitsagarsuri
PublisherShanti Vir Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages155
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size2 MB
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