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________________ ५६ सूक्तिमुक्तावली दया क्षमा क्षति ता एव कमलिन्या ताः क्लिश्यन् पीडयन् अन्योपि नदीपूरः कमलिनी: पीडयति । पुनः किं कुर्वन् लोभांबुधि षढयन् लोभ एव अम्बुधिः समुद्रस्तं वद्ध यन् वृद्धि नयन् । “जहालाहो तहा लोहो” इति । पुनः किं कुर्वन धर्मस्य मर्यादा एव तट चरणधिधिरूपं तटं उगुजन् पोडयन भजयन् । अन्योपि नदीपूरः प्रवृद्धः सन तट पातयति । पुनः किं कुधम् शुभमनोहंसप्रवासं दिशन् । शुभं धर्मध्यानसहितं यन्मनातदेव हंसस्तस्य प्रवास परदेशगमनं दिशन् आदिशन् । भन्योपि नदीपूरो हंसान् उड्डापति ( उल्लापयति ) ईरशो मूछी परिग्रहः क्लेशकरः स्यात् ।। ४१ ॥ __अर्थ-इस पद्यमें परिग्रह का वर्णन किया है कि परिग्रह कैसा मनर्थकारक है-हृदय की कलुषता को पैदा करता हुआ, अज्ञानता को रचता हुआ, धर्म रूपी वृक्ष को बखाइता हुआ, नीति दया क्षमा रूपी कमलिनी को क्लेश पहुँचाता हुआ, लोभरूपी समुद्र को बढ़ाता हुआ, मर्यादा रूप तट को उखाड़ता हुआ, शुभ मन रूप हंस को परदेश गमन कराता हुआ परिग्रह रूपी मदी का प्रवाह वृद्धि को प्रान हुआ क्या क्या अनर्थ नहीं करता किन्तु सारे ही अनर्थों का मूल कारण है । इसप्रकार परिग्रह को बुरा जान उसका परिमाण करना योग्य है। अर्थात लोभ कषाय को रोकने के लिये परिग्रह की मर्यादा बांधना चाहिये। __ भूयोपि परिग्रहदोषानाह-- मालिनीछन्दः कलहकलभविन्ध्यः क्रोधगृनश्मशानं । व्यसनभुजगरन्धं द्वेषदस्युप्रदोषः ।
SR No.090482
Book TitleSuktimuktavali
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorAjitsagarsuri
PublisherShanti Vir Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages155
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size2 MB
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