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________________ सूक्तिमुक्तावली ७४ अर्थ-धनके कारण से अन्ध हुई बुद्धि होने के कारण से ही पुरुष गहन अटवी में करते हैं। विदेश में नमन को हैं, गहरे समुद्र का अवगाहन करते हैं, अधिक क्लेश वाली खेती करते हैं, कंजूस स्वामी की सेवा करते हैं और अनेक हाथियों के संघट होने से चलना है. कठिन जहां पर ऐसे युद्ध में जाते हैं यह लोभ का ही तो माहात्म्य है। लोम के वशीभूत होकर मनुष्य क्या २ पाप नहीं करता है किन्तु सभी पाप कर बैठता है क्योंकि लोभ ही समस्त पापों का सजा है अतः लोभ का त्याग करना ही उचित है ।। ५७ ॥ पुनराह शार्दूलविक्रीस्तिछन्दः मूलं मोहविषद्रुमस्य सुकृताम्भोराशिकुम्भोद्भवः । क्रोधाग्नेररणिः प्रतापतरणिप्रच्छादने तोयदः ।। क्रीडासद्मकलेविवेकशशिनः स्वर्भानुरापनदीसिंधुः कीर्तिलताकलापकलमो लोमा पराभूयतां ॥५८), . .zrinyn Ensinou an. Sa ___ व्याख्या-भो मन्याः | लोभः पराभूयतां निराक्रियता स्य- ५ ज्यतां मोह एव अज्ञानमेव विषद्रुमो विषतरुस्तस्य मूलं जदारूपं मूल शब्दस्याऽजइल्लिगलां । पुनः कथंभूतो लोभः सुकृतमेव पुण्यमेवांभोराशि समुद्रस्तस्य शोधणे कुमोद्भवोऽगस्तिरिव । पुनः कोधाग्नेः अरणिः क्रोध एव अग्निस्तस्य अरणी काष्ट उत्पत्तिस्थानं । पुनः प्रताप एव तरणिः सूर्यः तस्याच्छादने तोयदो भेषोभ्र । पुनः कलेः कलहस्य
SR No.090482
Book TitleSuktimuktavali
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorAjitsagarsuri
PublisherShanti Vir Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages155
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size2 MB
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