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________________ द सूक्तिमुक्तावली सोदरोऽग्नेता । पुनः यः क्रोधः चैतनस्य ज्ञानस्य निपूरने विनासहभोगीशने विषलरोः विषवृक्षस्य चिरमतिशयेन सब्रह्मचारी सहपाठी | ki ___अर्थ-जो क्रोध चित्त को विकृत करने में मद्य का मित्र है अर्थात् शराब जैसा विकारी है [ क्रोध के कारण विवेक नष्ट हो माता है ] भय के उत्पन्न करने में सर्प तुल्य है, शरीर को जलाने में अम्नि के समान है अर्थात् क्रोध के आवेश में आकर प्राणी अग्नि समान जाज्वल्यमान होने लगता है, चेतन ( आत्मा) के जीवन को नष्ट करने में विषवृक्ष का चिरकाल साथी है अर्थात् विषवृक्ष के समान है। आत्मा का हित चाहने वाले चतुर पुरुषों द्वारा वह क्रोष जड़से दवाढ दिया जाना चाहिये। भावार्थ-आत्मकल्याण के इच्छुक पुरुषों को चाहिये कि ऐसा क्रोध कभी न करें जिससे हेयोपादेय रहित बुद्धि हो जाय भतः क्रोध का सर्वथा त्याग करना ही श्रेयस्कर है ॥ ४५ ॥ हरिणीछन्दः फलति कलितश्रेयाश्रेणीप्रसूनपरम्परः । प्रशमपयसा सिक्तो मुक्ति तपश्चरणद्र मः ।। यदि पुनरसौ प्रत्यासत्तिं प्रकोपहविर्भुजो। भजति लभते भस्मीभावं तदा विफलोदयः ॥४६॥ व्याख्या-तपश्चारित्ररूपएष द्रुमो वृक्षः मुक्ति मोझं फलति निष्पादयति । कथंभूतः कलितश्रेय गीप्रसूनपरम्परः फलिता
SR No.090482
Book TitleSuktimuktavali
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorAjitsagarsuri
PublisherShanti Vir Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages155
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size2 MB
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