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________________ ६० सूक्तिमुक्तावली आत्मा तो सम्पूर्ण विभाव को छोड़ कर परभव को चला जाता है तो फिर मैं व्यर्थ ही अनेक घोर पापों को क्यों करता हूँ ? ऐसा कभी भी विचार नहीं करता है। भावार्थ --- अगर संसार का समस्त धन भी इसे प्राप्त हो जाय तो भी कभी यह मोही प्राणी सन्तोष धारण नहीं करता । तथा यह जगत का वैभव कभी साथ भी नहीं जाता सब यहीं पर पड़ा रह जाता है तो में क्यों पापोपार्जन करूं जिससे नरक तिर्यच्च आदि की भयंकर घोर वेदनाओं का सामना करना पडे ऐसा कभी विचार विमर्श नहीं करता ॥ ४४ ॥ तत्र नंदराजाकथा | अथ क्रोधजयार्थ - मुपदेशमाहशार्दूलविक्रीडितम्बः यो मित्रं मधुनो विकारकरणे संत्राससंपादने । सर्पस्य प्रतिविम्वमङ्गदहने, सप्तार्चिषः सोदरः || चैतन्यस्य निषूदने विपतरोः सब्रह्मचारी चिरं । स क्रोधः कुनलाभिलाषकुशलैः निर्मूलमुन्मूल्यतां ||१५|| व्याख्या - आत्मनः श्रेयोवांद्याचतुरैर्नरैः स क्रोधः कोपो निर्मूलं समूलं यथा स्यात् तथा उन्मूल्यतां उच्छिद्यतां सः कः यः क्रोधः विकारकरणे चित्तादिविकारविधाने मधुनो मद्यस्य मित्र सुहृत् । पुनर्यः क्रोधः संत्रास संपादने भयजनने सर्पस्य प्रतिनि सर्पसदृशं । पुनर्यः क्रोधः भंगदद्दने शरीरप्रज्वालने सप्तार्चिषोऽस्नेः
SR No.090482
Book TitleSuktimuktavali
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorAjitsagarsuri
PublisherShanti Vir Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages155
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size2 MB
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