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________________ सूक्तिमुक्तावली के विश्राम करने की भूमि है, पापों को खानि है, आपत्तियों का । स्थान है, खोदे ध्यान का क्रौड़ावन है, व्याकुलताका भएकार है, आठ मदों का मन्त्री अर्थात् सहायक है, शोक का कारण है, कलह का क्रीड़ागृह है, ऐसा अनेक अनर्थों का कारण परिग्रह विरक्त चित्त पुरुषों द्वारा त्याग करने योग्य है ।। ४३ ।।) शार्दूलविक्रीडितछन्दः बहिस्तृप्यति नेन्धनरिह यथा नांभोभिरंभोनिधिस | तद्वन्मोझनो धनैरपि धनजन्तुर्न संतुष्यति ॥ न त्वेवं मनुते विमुच्य विभवं निःशेषमन्यं भवं । यात्यात्मा तदहं सुधैव विदधाम्येनांसि भूयांसि कि ||४४|| व्यास्था-यथा वह्निः घनैरपि इन्धनैः समिदिर्न तृप्यति न तृप्ति याति । पुनर्यथा अंभोनिधिः समुद्रः भंभोभिर्ज लैः कृत्वा म तृप्यति तद्वत् तयोर्वत् जंतुः प्राणी जातु कदाचित धनैरपि बहुभिर्धनैः द्रव्यः कृत्वा न संतुष्यति न संतोषं प्राप्नोति । कथंभूतो जन्तु: मोहेन घनो निविड तु पुनः जन्तुः एवं न मनुते न जानाति यदयं आत्मा जीवो निःशेषं समस्तं विभवं द्रव्यं विमुच्य त्यक्त्वा अन्यंभवं अपर जन्म परभवं याति तत् तस्मात् कारणात् अहं मुधैव वृथैव भूयांसि प्रचुराणि एनांसि पापानि कि किमर्थ विदधामि करोमि एवं न जानामि || ४४ ।। अत्र नन्दराजकथा प्रसिद्धा। इति परिप्रहप्रक्रमः धर्म-जैसे इस संसार में अग्नि इंधन से तृप्त नहीं होती है, जल से समुद्र तृप्त नहीं होता उसी प्रकार अस्यन्त लोभी प्राणी अधिक धन होने पर भी संतोष को प्राप्त नहीं होता और यह मेरा
SR No.090482
Book TitleSuktimuktavali
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorAjitsagarsuri
PublisherShanti Vir Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages155
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size2 MB
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