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________________ सूक्तिमुक्तावली है, पुण्य रूप वन को दायामल समान है, कोमल परिणाम रूप मेघ के उड़ाने के लिये पवन समान है। [ परिग्रह की तृष्णा के कारण कोमल परिणाम कभी हो नहीं सकते ) तथा नय रूप जो कमल 4 उसको जलाने के लिये तुषार के तुल्य है ऐसा विचारकर पदाथों में अतिशय अनुराग त्यागने योग्य है। मपि परिहोगमा-- शार्दूलविक्रीडितछन्दः प्रत्यर्थी प्रशमस्य मित्रमधृतेमोइस्य विश्राममा । पापानां खनिरापदांपदमसद्ध्यानस्य लीलावनं ।। व्याक्षेपस्य निधिर्मदस्य सचिवः शोकस्य हेतुः कलेः । केलीवेश्मपरिग्रहः परिहतेयोग्यो विविक्तात्मना ।।४।। व्याख्या-भो मव्याः ! अयं परिग्रहो मुर्छाधिक्य विवितामना विवेकवता पुसा परिहतेः परिहारस्य योग्यः परिहर्तुमुचितः । कीहशः प्रशमस्य उपशमस्य प्रत्यर्थी शत्रुः । पुन: अघृतेः असंतोषस्य मित्रं सुहत् । पुनर्मोहस्य मोहनीयकर्मणः वा विश्रामभुः विश्रामस्थानं । पुनः पापानां अशुभकर्मणां स्वनिः खानिः । पुनरापदा कष्टानां पई आस्पदं 1 पुनरसद्धचानस्य आरौिद्रध्यानस्य लीलावनं क्रीडावनं । पुनब्यांक्षेपश्य व्याकुलस्य निधिनिधानं । पुनर्मदत्य अहंकारस्य सचिवो मंत्री । पुनः शोकस्य हेतुः कारणं । पुनः कलेः कलहस्य केलीवेश्म कोडागृहमित्यर्थः ॥ ४३ ॥ वर्ष- कैसा है परिग्रहः-समता भाव का शत्रु है, अधैर्य का मित्र है अर्थात् परिग्रही के किसी कार्य में धैर्य नहीं रहता, मोह
SR No.090482
Book TitleSuktimuktavali
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorAjitsagarsuri
PublisherShanti Vir Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages155
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size2 MB
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