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________________ ६२ सूक्तिमुक्तावली उत्पादिता श्रयसां पुण्यानां कल्याणानां वा श्रेणिः राजिरेव प्रसूनानां पुष्पाणां परम्परा पंक्तिर्येन सः । पुनः कथंभूतः प्रशम एवं उपशम एव पयो जलं तेन सिक्तः सेकं प्रापितः । यदि पुनः परं तु असौ तपश्चरणद्रुमः प्रकोपचविर्भुजः कोषबह: प्रत्यासत्ति सामीप्यं भजति आश्रयति तदा भस्मीभावं भस्मरूपतां लभते प्राप्नोति । कथंभूतः विफलोदयः विगतः फलस्योदयो यस्य फलोदयरहितः ॥ ४६ ॥ अर्थ - शन्त शिजींचा हुआ तपश्चररूपी वृक्ष अनेक पुण्य समूह रूप पुष्पों की पंक्तियों से सुशोभिव होता हुआ मोक्ष रूपी फल को फलता है ( मोक्षफल को देता है ) यदि वह तप रूपी वृक्ष क्रोध रूपी अग्नि को निकटता को प्राप्त हो तो फिर बिना फल दिये ही दूग्ध हो जाता है । भावार्थ- मुक्तिरूपी फल को देनेवाला तप रूपी वृक्ष है । अगर क्रोध - अग्नि का सेवन हो जाय तो वह तपवृश्च भस्म हो जाय अतः क्रोध का त्याग कर देना ही कल्याणकारी है ॥ ४६ ॥ पुनः क्रोधदोशनाहशार्दूलविक्रीडितबन्दः संतापं तनुते भिनशि विनयं सौहार्दमुत्सादयत्युद्वेगं जनयत्यवद्यवचनं ते विधत्ते कलिं ॥। — " कीर्ति कृन्तति दुर्मतिं वितरति व्याहृति पुण्योदयं । दत्तेयः कुमतिं स हातुमुचितो, रोषः सदोषः सतां ||४७| व्याख्या - स रोषः क्रोधः सतां सत्पुरुषाणां दातुं त्यक्त
SR No.090482
Book TitleSuktimuktavali
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorAjitsagarsuri
PublisherShanti Vir Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages155
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size2 MB
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