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________________ सूक्तिमुक्तावली अर्थ- कोप को प्राप्त हुए सर्प के मुख रूप छिद्र में हाथ डालना अच्छा है, प्रज्वलित अग्नि के कुएड में कम्पापात लेना कूद पढ़ना श्रेष्ठ है, शीघ्र ही विष खा लेना भी अच्छा है परन्तु विद्वानों को विपत्तियों का घर दुर्जनता का करना अच्छा नहीं है । भावार्थ - तत्काल मर जाना तो श्रेष्ठ है परन्तु दुर्जनता का व्यवहार करना या दुर्जनों को संगति करना उत्तम नहीं है ॥ ६१ ॥ पुनराह --- Fo वसंततिलका छन्दः सौजन्यमेव विदधाति यशश्चयं च । स्वःश्रेयसं च विभवं च भवक्षयं च || दौर्जन्यमावहसि यत्कुमते तदर्थम् । धान्ये दवं दिशमि तज्जलसेक साध्ये || ६२ || । व्याख्या - सौजन्यमेव सुजनतैव पुंसां यशश्चयं कीर्तिसमूहं विवाति करोति । पुनः स्वश्रेयर्स कल्याणं विदधाति । पुनर्विभवं द्रयं विदधाति । पुनर्भत्रक्षयं संसारचयं मोक्षं विदधाति । ततो हे कुमते हे कुबुद्ध े यत्तदर्थं यशश्चयाद्यर्थं दौर्जन्यं पिशुनतां आवहसि घरसि । तत् धान्ये धान्यक्षेत्रे दवं दावाग्नि दिशसि ददासि । कथंभूते धान्ये जलसेकसाध्ये जलस्य सेकेन सिंचनेन साध्ये निष्पादनीये तत्र दावं ददासि ॥ ६२ ॥ अर्थ -- हे अज्ञानी जीव ! सज्जनता हो कीर्ति को संचित करती है, आत्मकल्याण सम्पदा को देती है तथा जन्ममरण रूप
SR No.090482
Book TitleSuktimuktavali
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorAjitsagarsuri
PublisherShanti Vir Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages155
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size2 MB
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