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________________ सूक्तिमुक्तावली - प्राप्त होती है, और सारा संसार अवश्य ही उन वर्शनहीं जाता है।) भावार्थ:--ओ पुरुष सन्तोष धारण कर धार्मिक जीवन व्यतीत करते हैं उनके पुण्य उदय से उन्हें इस लोक, परलोक में सब सुख के साधन मिलने हैं। कल्पवृक्ष, कामधेनु, चिन्तामणिरत्न, नव निधियाँ आदि सभी पदार्थों का सहज ही समागम हो जाता है और तो क्या ? कर्म काट कर अनन्त अविनाशी सिद्ध पदं पाते हैं। . __अथ सौजन्यविधानोपदेशमाह शिखरिणी छन्दः वर क्षिप्तः पाणिः कुपितफणिनो पत्रकुहरे । वरं झपापातो ज्वलदनलकुंडे विरचितः ॥ वरं प्रासप्रान्तः सपदि जठरान्तर्विनिहितो । न जन्यं दौजन्यं तदपि विपदा सम विदुषा ॥६॥ ___ व्याख्या-कुपितस्य फणिनः अधस्य सर्पस्य वक्त्रकुहरे मुखविवरे पाणिहस्तः क्षिप्तो नि:क्षिप्तः सन् वरं में यान् । पुनमदनलकुडे प्रज्वलन अग्निकुठे झपापातो विरचितः कृतो वरं श्रेष्ठः । पुनः प्रासस्य कुन्तस्य प्रान्तोमं जठगन्तः दरमध्ये विनिहितः क्षिप्तो वरं अष्टः । तदपि विदुषा पंडितेन पौर्जन्यं पैशून्यं न जन्य न कर्तव्यमेध । किंभूतं दौजन्यं विपदा आपा कष्टानां सम गृह स्थानमित्यर्थः । अतः कारणात सौजन्यमेव विधेयं ॥ ११ ॥
SR No.090482
Book TitleSuktimuktavali
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorAjitsagarsuri
PublisherShanti Vir Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages155
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size2 MB
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