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________________ १०८ सूक्तिमुक्तावली यत्प्रत्यूहतमः समूहदिवसं यः लब्धिलक्ष्मीलतामूलं तद्विविधं यथाविधि तपः कुर्वीत वीतस्पृहः || ८१ ॥ व्याख्या - बीतस्पृहः बीता गता वृद्दा वांछा यस्य स बीतगृहः सन् बांखा निदानादि रहितः सन् तदुद्विविधं तपः कुर्वीत कुर्यात् तत्किं यत्तपः पूर्वे भवे अर्जितानि उपार्जितानि यानि कर्माणि तान्येव शैलाः पर्वतास्तेषु कुलिशं व तेषां छेदकस्वा | पुनर्यतपः यत्काम एव दाबानोदावाग्निस्तस्य उशलानां जाल: समूहस्तत्र जलं तद्वि नाशकत्वात् । पुनर्संनी दारुणीय करयाना इन्द्रियाणां भीमः समूहः स एवा हि सर्पस्तस्य मंत्राक्षरं सर्वमंत्रस्य बीजं । पुनर्यतपः प्रत्यूहा एष विघ्ना एव तमसोंऽधकारस्य समूहस्तत्र विषं दिनं तन्नाशकत्वात । पुनर्यतपोन्धिलक्ष्मी कँब्धि संपदेष लता वल्लीस्तस्यामूलं उत्पादनकं तद्विषिध द्वादशप्रकारं तपः कुर्वीत ॥ ८१ ॥ अर्थ — जो तप पूर्व भव में उपाजित किये गये कर्मरूपी पर्वत को भेदने के लिये वज्रसमान है, काम रूपी दावानलको ज्यालाओं को बुझाने के लिये जल के समान है, प्रचण्ड इन्द्रियों के समूह रूपी सर्प को वश करने के लिये मन्त्र के समान है, विघ्न रूपी अन्धकार समूह को नाश करने के लिये दिन समान है तथा जो तप न केवल लब्धि को लक्ष्मी रूपी वेल का मूल कारण है। वह दो प्रकार ( अन्तरंग, बहिरंग ) का तप निस्पृह होकर विधिपूर्वक करना चाहिये । भावार्थ - इच्छा निरोध तप से ही पूर्वभव के संचित कर्मों की निर्जरा होती है, कामादि विकार परिणति दूर हो जाती है,
SR No.090482
Book TitleSuktimuktavali
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorAjitsagarsuri
PublisherShanti Vir Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages155
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size2 MB
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