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________________ सूक्तिमुक्तावली इन्द्रियों का दमन होता है, विघ्न आदि शांत हो जाते हैं, क्षायिकज्ञान क्षायिक दर्शन आदि नत्र लब्धियां भी तप के बल से प्राप्त होती हैं । ऐसा जान कर बाह्य आभ्यन्तर दो प्रकार का तप निदान रहित करना चाहिये। तपः प्रभावनामाह शार्दूलविक्रीडित छन्दः यस्माद्विघ्नपरम्परा विघटते दास्यं सुराः कुर्वते । कामः शाम्यति दाम्यतीन्द्रियगणः कल्याणमुत्पति ।। उन्मीलन्ति महर्द्ध यः कलयति ध्वंसं च यः कर्मणां । स्वाधीनं त्रिदिवं शिवं चभजति श्लाघ्यं तपस्तन्न किं ८२। व्याख्या-तसपः किं श्लाघ्यं न प्रशस्थ न अपि तु श्लाघ्यमेव । तस्कि यस्मात्तपसो विघ्नपरंपरा कष्टश्रेरिणविघटते विलयं याति । पुनः सुरा देषा पास्य दासत्वं कुर्वते । पुनयंस्मारकामः शाम्यति उपशमं याति । पुनरिन्द्रियगणः पन्चेन्द्रियसमूहो दाम्यति वर्म प्राप्नोति । पुनर्यस्मात्तपसः कल्याणं श्रेयः मत्सर्पति प्रसरति । पुनयस्मान्महर्द्धयस्तीर्थकरादिसंपदः उन्मीलंति विकसति । पुनर्यस्मात् कर्मणां झानावरणीयादीनां चयः समूहो ध्वन्सं नाश कलयति प्रयाति पुनर्यस्मासुपस: त्रिदिवं स्वर्गः च पुनः शिषं मोक्षः स्वाधीन स्वायत स्यात तत्तपसः किं श्लाघ्यं न स्यात् । अपितु श्लाध्यमेव ।। ८२॥ अर्थ-जिस तप के प्रभाव से विघ्नों का समूह नष्ट हो जाता है, देव भी सेवक बनकर सेवा करते हैं, काम की विकार परिणति शान्त हो जाती है, इन्द्रियां वशीभूत हो जाती हैं कल्याण
SR No.090482
Book TitleSuktimuktavali
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorAjitsagarsuri
PublisherShanti Vir Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages155
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size2 MB
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